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गुरु तेग बहादुर के हिंदू राष्ट्र के रक्षक होने का मिथक

‘हिंद दि चादर’ – यह वाक्यांश कब और कैसे अस्तित्व में आया? इसे किसने गढ़ा और सबसे पहले इसका उपयोग किस कृति में किया गया? क्या ऐसा नहीं लगता कि यह सिक्ख गुरुओं को हिंदुत्व के झंडे के नीचे लाकर उन्हें 33 करोड़ देवी-देवताओं के साथ खड़ा करने की कपट चाल है? पढ़ें, डॉ. जस सिमरन केहल का यह आलेख

धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को सन् 1950 में भारत में मूल अधिकार का दर्जा दिया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 हर नागरिक को यह अधिकार देते हैं कि वह अपने धर्म में आस्था रख सके, उसका आचरण कर सके और उसका प्रचार भी कर सके। संविधान किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक धन के इस्तेमाल पर रोक लगाता है और यह भी कहता है कि जिन शैक्षणिक संस्थाओं का खर्च सरकार उठा रही है, उनमें धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। सन् 1948 में स्वीकृत मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का अनुच्छेद 18 सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। मगर इसके बाद भी उत्तर कोरिया, सऊदी अरब, ईरान और चीन सहित कई देशों में लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता हासिल नहीं है और दुनिया भर में केवल 20 संविधानों में धार्मिक समानता का जिक्र है।

अपनी पसंद के धर्म को मानने के अधिकार की रक्षा करने की लड़ाई में गुरु तेग बहादुर (1621-1675) ने अपनी जान न्यौछावर की थी। उनकी शहादत इस अधिकार को संवैधानिक और कानूनी दर्जा मिलने के करीब 275 साल पहले हुई थी। तेग मल से तेग बहादुर और फिर गुरु तेग बहादुर बनने की उनकी जीवन यात्रा ने दमनकारी औरंगजेब के भारत को इस्लामिक राज्य (दारूल इस्लाम) बनाने के सपने को चूर-चूर कर दिया। उनकी शहादत ने न केवल मक्का के धर्मगुरुओं के भारत को दारूल हर्ब (इस्लाम से युद्धरत राज्य) बताने को चुनौती दी, बल्कि उससे मुगल साम्राज्य के पतन की शुरुआत भी हुई।

इन दिनों कई धार्मिक और राजनीतिक संगठन व सरकारें भी गुरु तेग बहादुर की शहादत का 350वां वर्ष मना रहे हैं। इस मौके पर मैं इतिहासविदों और समाजविज्ञानियों से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। यद्यपि धार्मिक आस्थाओं और सिद्धांतों पर सामान्यतः प्रश्न नहीं उठाए जाने चाहिए, मगर एक सिक्ख बतौर यह मेरा कर्तव्य है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुरु नानक ने अपने समय में हरिद्वार और मक्का में प्रचलित धार्मिक विश्वासों पर प्रश्न उठाए थे और कबीर ने मुल्ला और पंडित दोनों को कटघरे में खड़ा किया था।

मेरे प्रश्न निम्नांकित हैं–

कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर की शरण में क्यों गए जबकि उनके पूर्व के गुरु काफी पहले ही वेद आदि हिंदू धर्मग्रंथों को खारिज कर चुके थे? क्या नौंवे गुरु वह पहले व्यक्ति थे, जिससे उन्होंने मदद मांगी? या, क्या वे गुरु तेग बहादुर की शरण में तब आए जब हिंदू राजाओं ने उनकी मदद करने से इंकार कर दिया? यहां यह बताना मुनासिब होगा कि उस समय दक्कन पर शक्तिशाली मराठा साम्राज्य काबिज था, मेवाड़ में राजपूत सत्ता में थे और कश्मीर के नजदीक जम्मू पर हिंदू जामवाल राजा हरिदेव का शासन था। इस मुद्दे पर भी शोध की जरूरत है कि क्या गुरु तेग बहादुर की गिरफ्तारी/आत्मसमर्पण का एकमात्र कारण यह था कि वे कश्मीरी पंडितों का साथ दे रहे थे? या फिर किन्हीं अन्य कारणों से गुरु तेग बहादुर को प्रताड़ना दी गई और अंतत: वे और उनके साथी मृत्यु को प्राप्त हुए? तथ्य यह है कि नौवें गुरु को उनकी शहादत के दस साल पहले 8 नवंबर, 1665 को भी गिरफ्तार किया गया था। तब भी औरंगजेब ने उन्हें मृत्युदंड दिए जाने का आदेश दिया था। मगर जयपुर के राजा रामसिंह के कहने पर दो महीने जेल में रखने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था।

गुरु गोविंद सिंह के दरबार में 52 कवि थे। उनमें से एक सेनापति अपनी कृति ‘श्री गुरु सोभा’ में नौवें गुरु के बारे में लिखते हैं–

“प्रकट भयो गुरु तेग बहादुर, सगल सृष्टि पर ढांपी चादर”

यह पंक्ति नौंवे गुरु को मृत्युदंड दिए जाने के एक या दो दशक बाद लिखी गई थी और इसमें उन्हें पूरे ब्रह्मांड का तारक बताया गया है। गुरु को ‘ब्रह्मांड के तारक’ से पदानवत कर ‘हिंद का तारक’ क्यों और कब घोषित किया गया? उस समय का हिंद अफगानिस्तान से लेकर बर्मा तक फैला हुआ था। अगर आज ‘हिंद दि चादर’ का अर्थ हिंदू धर्म बताया जा रहा है और गुरु तेग बहादुर को हिंदू धर्म का तारक बताया जा रहा है तो निःसंदेह हमें अपने अंतःकरण में झांकना चाहिए।

सत्रहवीं सदी के मध्य में बंगाल के गवर्नर शाइस्ता खान के दरबारी चित्रकार अहसान द्वारा बनाई गई गुरु तेग बहादुर की पेंटिंग (स्रोत : विकिपीडिया)

तर्क के लिए अगर गुरु तेग बहादुर को हिंदू धर्म का रक्षक मान भी लिया जाए तो इससे भी कई प्रश्न उपजते हैं। ‘हिंद दि चादर’ – यह वाक्यांश कब और कैसे अस्तित्व में आया? इसे किसने गढ़ा और सबसे पहले इसका उपयोग किस कृति में किया गया? क्या ऐसा नहीं लगता कि यह सिक्ख गुरुओं को हिंदुत्व के झंडे के नीचे लाकर उन्हें 33 करोड़ देवी-देवताओं के साथ खड़ा करने की कपट चाल है? गुरुओं की मौत हिंदू धर्म की रक्षा करते हुए हुई – यह नॅरेटिव एक बार स्थापित हो जाने के बाद सिक्खों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताना आसान हो जाएगा।

आज भारत में हिंदू बहुसंख्यकवाद का बोलबाला है। मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। उन्हें रोज-ब-रोज अपमान और अत्याचार झेलने पड़ते हैं। उन्हें ‘जय श्रीराम’ कहने पर मजबूर किया जाता है। अगर आज गुरु होते तो इस स्थिति को देख वे क्या करते? अगर गुरु तब होते जब लाखों बौद्ध भिक्षुकों के गर्दन काटे जा रहे थे और बौद्ध शोध व शिक्षण संस्थाओं को जमींदोज किया जा रहा था तब गुरु अपनी चादर किसके ऊपर फैलाते?

डॉ. आंबेडकर ‘बहुसंख्यकों की निरंकुशता’ को असली लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा मानते थे। गुरु तेग बहादुर ने सामाजिक-धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना के लिए संघर्ष किया। चौदह साल की छोटी-सी उम्र में उन्होंने करतारपुर की लड़ाई में मुग़ल योद्धा पैंदा खान से मुकाबला किया। और 54 साल की उम्र में बिना घबराए या डरे जलाल्लुदीन जल्लाद की तलवार का सामना किया। इस पूरे दौर में वे उस ‘बहुसंख्यकों की निरंकुशता’ के खिलाफ लड़ रहे रहे थे जिसकी आशंका डॉ. आंबेडकर ने व्यक्त की है।

क्या यह ज़रूरी है कि हर व्यक्ति उसी धर्म में बना रहे, जिसमें उसने जन्म लिया है? गुरु नानक ऐसा नहीं मानते थे। पहले गुरु ने हिंदू रीति-रिवाजों को गलत बताया और एक नए पंथ की शुरुआत की, जिसे दसवें गुरु (गुरु गोविंद सिंह) ने एक नए धर्म का आकार दिया। गुरु ग्रंथ साहिब में अनेक स्थानों पर हिंदू और मुस्लिम दकियानूसी परंपराओं और प्रथाओं की कड़ी आलोचना की गई है। इसलिए यह मानना मुश्किल है कि नौवें गुरु ने उस धर्म के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी, जिस धर्म के खिलाफ उनके पहले और बाद के गुरुओं ने विद्रोह किया था।

तथ्य यह है कि गुरु तेग बहादुर मानवाधिकारों के रक्षक थे और धर्मांतरण करने का अधिकार भी एक मानवाधिकार है। वे केवल जबरिया धर्मांतरण के खिलाफ थे। अपनी मर्ज़ी से धर्म बदलने से उन्हें कोई उज्र न था। स्वयं उनके अपने पुत्र ने देश के अलग-अलग हिस्सों के पांच व्यक्तियों का उनकी मर्ज़ी से सिक्ख धर्म में धर्मांतरण करवाया था। ये लोग लाहौर, दिल्ली, जगन्नाथपुरी, द्वारका और बीदर से थे। आगे चलकर लाखों लोग इन पांचों के दिखाए रास्ते पर चले। गुरु तेग बहादुर ने किसी धर्म विशेष की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपनी पसंद के धर्म को चुनने के अधिकार की रक्षा के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान की थी। उनकी कुर्बानी के 350 साल बाद आज हमारे सत्ताधारी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात कर रहे हैं। बहुसंख्यकवाद का दबदबा बढ़ रहा है। दूसरे धर्मों – जिनमें से एक के मानने वाले आबादी का 15 फीसद और दूसरे के दो फीसद हैं – को नीची निगाहों से देखा जा रहा है। पंद्रह प्रतिशत को कलंकित किया जा रहा है और दो प्रतिशत को दबे-छुपे ढंग से कमज़ोर किया जा रहा है। कुछ तो यहां तक कह रहे हैं कि ये जो दो फीसद हैं, दरअसल, वे हिंदू धर्म का लड़ाका दस्ता हैं। मर्ज़ी से धर्मांतरण को जिहाद बतलाया जा रहा है।

गुरु तेग बहादुर अगर आज होते तो वे न केवल अपने धर्म में आस्था रखने, उसका आचरण करने और उसकी शिक्षा देने के लोगों के हक़ के लिए लड़ते वरन् उन नास्तिकों के लिए भी खड़े होते जो आज दुनिया की आबादी का करीब 10वां हिस्सा हैं। जहां तक हिंदू राष्ट्र का सवाल है, वे धार्मिक बहुसंख्यकों के अमानवीय इरादों का उतना ही पुरजोर विरोध करते जितना उन्होंने दारुल इस्लाम का किया था। इस महान गुरु को केवल एक धर्म का रक्षक बताना न केवल उनके सर्वोच्च बलिदान का अपमान है, बल्कि इससे सिक्ख धर्म को कमज़ोर करने के षड्यंत्र की बू भी आ रही है।

(आलेख पूर्व में अंग्रेजी में काउंटरकरेंट्स डॉट ऑर्ग द्वारा प्रकशित व यहां लेखक की अनुमति से हिंदी अनुवाद प्रकाशित है। अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जस सिमरन केहल

डॉ. जस सिमरन केहल हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं। उन्होंने पत्रकारिता एवं जनसंचार के साथ-साथ आंबेडकर विचार में भी स्नातकोत्तर उपाधि हासिल की है। वे पंजाब के नांगल में केहल ट्रामा सेंटर चलाते हैं।

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