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मेरा बच्चा सो रहा है, बता रहे हैं खाली बच्चा गाड़ी को ढोते आदिवासी दंपत्ति

ईंट भट्टे में काम करने वाला एक आदिवासी दंपत्ति, मध्यप्रदेश के एक हाईवे पर पैदल निकल पड़ा। रास्ते में उसने अपना छह माह का बच्चा खो दिया। परन्तु फिर भी, सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित उनके गांव की ओर उनकी यात्रा जारी है

नन्हें जू और उनकी पत्नी सरोज बाई राष्ट्र स्तरीय लॉकडाउन के करोड़ों पीड़ितों में शामिल हैं। बिना विचारे और मनमाने ढंग से लागू किये गए लॉकडाउन बारे में कहा जा रहा था कि यह कोरोना वायरस को जहां का तहां रोक देगा। तालाबंदी को पचास दिनों से अधिक गुज़र चुके हैं। उसका इस जानलेवा बीमारी पर कोई असर पड़ा है या नहीं, यह कहना मुश्किल है परन्तु यह पक्का है कि इसने उन अगणित असहाय मजदूरों के जीवन में तूफ़ान बरपा कर दिया है जो अपने गांव-घरों से सैकड़ों मील दूर कमरतोड़ मेहनत कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे थे।   

बहरहाल, यह आदिवासी दंपत्ति इंदौर-धार मार्ग पर कलारिया गाँव में एक ईंट भट्टे पर काम करता था। उनका छह माह का बच्चा था। उनके लाड़ले का नाम था शुभम। लॉकडाउन के चलते भट्टा बंद हो गया। उनकी मामूली बचत जल्दी ही खत्म हो गई। कोई मददगार न पा उन्होंने तय किया कि वे ग्वालियर जिले के घाटा नामक अपने गांव तक की लगभग 560 किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करेंगे। उन्हें मालूम था कि आगरा-मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग उन्हें उनकी मंजिल तक ले जायेगा। अपनी पूरी गृहस्थी अपने माथे पर लाद कर दोनों निकल पड़े। बच्चे को उन्होंने एक बच्चा गाड़ी में लिटा दिया। गाड़ी की रस्सी पकड़ नन्हे आगे चला और सरोज बाई पीछे।  

नन्हे जू, सरोज बाई और बच्चा गाड़ी

बीते 7 मई (गुरूवार) की शाम को बच्चे का शरीर तेज बुखार से तपने लगा। उन्होंने कोई डाक्टर तलाश करने की कोशिश की जो उनके लाडले का इलाज कर सके। परन्तु, रास्ते में पड़ने वाले कस्बों और गावों के दवाखानों में मोटे-मोटे ताले लटके हुए थे। किसी तरह दवाई की एक दूकान से क्रोसिन सिरप की एक बोतल खरीदी और बच्चे को एक-दो चम्मच दवा चटा दी। तड़के चार बजे बच्चे की सांसें थम गयीं। घबरा कर उन्होंने मदद मांगने के लिए एक झोपड़े का दरवाज़ा खटखटाया। एक बुज़ुर्ग महिला बाहर निकली, उसने बच्चे को देखा और कहा कि वह चला गया है। 

शुभम को गाड़ने के बाद दंपत्ति आगे चल पड़े। वे अब भी बच्चा गाड़ी को खींच रहे थे। अब उसमें बच्चा नहीं था। कुछ आगे जाने पर एक स्कार्पियो सवार महिला ने उन्हें देख कर अपनी गाड़ी रोकी। नन्हें और उसकी पत्नी थके हुए और भूखे थे और उनकी आँखों से झरझर आंसू बह रहे थे। महिला ने उन्हें कुछ खाने को दिया, पानी पिलाया और सांत्वना दी। उनकी आपबीती सुनने के बाद महिला ने उनसे पूछा कि वे खाली बच्चा गाड़ी क्यों ले जा रहे हैं। जवाब सरोज ने दिया, “शुभम का शरीर हमारे साथ नहीं है पर वो गाड़ी में सो रहा है. वो हमें घर पहुंचाएगा।” 

महिला चकित रह गई। क्या ये जानती है कि ये क्या कह रही है? क्या इसका दिमाग चल गया है? मृत बच्चा भला सो कैसे सकता है? 

मिर्जा ग़ालिब ने क्या खूब कहा है, “दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना”. 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अमरीश हरदेनिया

अमरीश हरदेनिया फारवर्ड प्रेस के संपादक (ट्रांसलेशन) हैं। वे 'डेक्कन हेराल्ड', 'डेली ट्रिब्यून', 'डेली न्यूजटाइम' और वीकली 'संडे मेल' के मध्यप्रदेश ब्यूरो चीफ रहे हैं। उन्होंने कई किताबों का अनुवाद किया है जिनमें गुजरात के पूर्व डीजीपी आर बी श्रीकुमार की पुस्तक 'गुजरात बिहाइंड द कर्टेन' भी शामिल है

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