कोच्चेटन (के.के. कोचू) से मेरी पहली मुलाकात महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टयम में 2012 में एम.फिल. की पढ़ाई के दौरान हुई थी। यह मुलाकात विश्वविद्यालय के पास कोच्चेटन के छोटे भाई के.के. बाबूराज के कमरे में हुई थी। जब हममें से कुछ शोधार्थी आपस में बातचीत कर रहे थे, तभी वे और दो अन्य लोग कमरे में दाखिल हुए। कोच्चेटन कोल्लम जिले के अरिप्पा में आदिवासी और दलित मुनेत्र समिति के नेतृत्व वाले भूमि अधिकार संघर्ष में भाग लेने के बाद अपने घर कडुथुरुथी वापस जा रहे थे। उन्होंने इस अरिप्पा संघर्ष के बारे में बहुत जोश से बात की। उन्होंने हम छात्रों से कहा कि हमें वहां जाना चाहिए।
के.के. कोचू ने एक कट्टर वामपंथी बुद्धिजीवी और लेखक के रूप में शुरुआत की। लेकिन बाद में उन्होंने यह जाना कि जाति और इसके आधार पर भेदभाव का सवाल भारतीय मार्क्सवाद के मूल मुद्दों में शामिल ही नहीं है, जो इसकी सबसे बड़ी खामी है। इसके बाद वे आंबेडकरी विचारधारा और सिद्धांतों पर आधारित सामाजिक चिंतन में जुट गए। कोचू, सीडियन (एसईईडीआईएएन, सोशली इकोनॉमिकली एजुकेशनली डिप्रेस्ड इंडियन एंशिएंट नेटिव्स) जैसे सामाजिक संगठनों के प्रमुख सदस्य रहे और जाति-व्यवस्था के मुखर आलोचक बन गए।
मलयाली लोगों को ‘दलित’ अवधारणा से परिचित कराने में कोच्चेटन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे एक महत्वपूर्ण विचारक और लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने मलयाली लोगों को यह एहसास कराया कि जिस साहित्य, फिल्म और रंगमंच को वे मुख्यधारा के रूप में मानते हैं, असल में उनमें उच्च जातियों की पूजा की जाती है। उन्होंने स्पष्ट रूप से उजागर किया कि मलयालम साहित्य ने समाज में व्याप्त जातिवादी भावनाओं को छिपाकर किस हद तक पार्श्व में धकेल दिया है।

वे लोकप्रिय सिनेमा के जातिगत किले के कुछ हिस्सों को भेदने में सफल रहे। कोचू ने लोकप्रिय इतिहास लेखन में क्रांतिकारी बदलाव किए। उन्होंने अय्यंकाली, पोयकायिल अप्पाचन, पम्पाडी जॉन जोसेफ और अन्य नायकों से जुड़े इतिहास को नए सिरे से पुनर्व्याख्यायित किया। उन्होंने पत्रिकाओं में सैलून कर्मचारियों (नाइयों) के साक्षात्कार और उनके अनुभवों पर लेख प्रकाशित किए।
कोचू ने केरल में जमीन के अधिकार को प्राथमिक मुद्दा बताया। केरल विकास मॉडल को चुनौती देने वाले उनके लेखों को केरल के सभी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।
उन्होंने चेंगारा भूमि आंदोलन और अन्य जन-आंदोलनों में सक्रिय रूप से भागीदारी निभाई। उन्होंने ‘दलित’ शब्द को जातिगत पहचान तक सीमित नहीं रखा। उनके लिए ‘दलित’ एक ऐसी अवधारणा थी, जो सामाजिक आलोचना को सक्षम बनाती है, जिसके परिणामस्वरूप मानवीय गरिमा को पुनः प्राप्त किया जाता है। अगर कोचू के कामों को छोड़ दिया जाए, जो यह दर्शाते हैं कि मलयाली समाज जातिवाद में कितनी गहराई तक डूबा हुआ है, केरल के समाज पर कोई चर्चा संभव नहीं है।
मलयाली लोग, जब तक अस्तित्व में रहेंगे, कोचू के योगदान पर चर्चा जारी रखेंगे। उन्होंने समाज, इतिहास और समकालीन राजनीति को एक आलोचनात्मक ज्ञानमीमांसा और मूल्यमीमांसा के दृष्टिकोण से देखा था।
(यह लेख मूल रूप से मलयाल मनोरमा में प्रकाशित है। यहां इसका अनुवाद प्रकाशक और लेखक दोनों की अनुमति से प्रकाशित है। अनुवादक : गोल्डी एम. जॉर्ज, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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