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हूल विद्रोह की कहानी, जिसकी मूल भावना को नहीं समझते आज के राजनेता

आज के आदिवासी नेता राजनीतिक लाभ के लिए ‘हूल दिवस’ पर सिदो-कान्हू की मूर्ति को माला पहनाते हैं और दुमका के भोगनाडीह में, जो क्राति स्थल के रूप में जाना जाता है, तरह-तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। जबकि कारपोरेट को हजारों-हजार एकड़ जमीन मुहैया कराया जा चुका है और इस कृत्य में एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों शामिल हैं। बता रहे हैं विनोद कुमार

‘30 जून’ आदिवासियों के इतिहास में ‘हूल दिवस’ के नाम से विख्यात है। हूल का अर्थ होता है– क्रांति। यह क्रांति सिदो और कान्हू के नेतृत्व में हुआ था। इसे संथाल विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें सिदो-कान्हू सहित दस हजार से अधिक आदिवासी शहीद हुए थे। उनकी इसी शहादत की वजह से आदिवासियों के लिए अंग्रेज कई ऐसे भूमि कानून बनाने के लिए मजबूर हुए जो आज भी जारी हैं। विडंबना यह कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों यथास्थितिवादी हैं। वे ‘हूल’ की मूल भावना को नहीं समझते, बस राजनीतिक लाभ के लिए ‘हूल दिवस’ पर सिदो-कान्हू की मूर्ति को माला पहनाते हैं और दुमका के भोगनाडीह में, जो क्राति स्थल के रूप में जाना जाता है, तरह-तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। जबकि व्यवहार में इस कानून का उल्लंघन कर कारपोरेट को हजारों-हजार एकड़ जमीन मुहैया कराया जा चुका है और इस कृत्य में एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों शामिल हैं।

खैर, ‘हूल’ की कहानी जानते हैं। सन् 1562 में राजमहल बंगाल सूबे की राजधानी थी। सन् 1763 में अंग्रेजों ने उधवानाला में मुगल शासक मीर कासिम को हरा दिया और जंगल तरी यानी, मुंगेर, भागलपुर और वर्तमान संथाल परगना के मध्यवर्ती भाग, पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। सन् 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को इस क्षेत्र की दीवानी प्राप्त हो गयी और उनकी समझ बनी कि जब तक पर्वतीय अंचल में बसे पहाड़िया समुदाय को काबू में नहीं किया जाता, तब तक वे इस क्षेत्र में शासन नहीं कर सकेंगे। सन् 1772 में बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने कप्तान ब्रुक के नेतृत्व में 800 सैनिकों की एक टुकड़ी इस क्षेत्र इस निर्देश के साथ भेजी कि पहाड़िया को काबू में कर उनसे इस क्षेत्र में व्यवस्थित ढंग से खेतीबाड़ी कराई जाए। लेकिन कप्तान ब्रुक इस मिशन में कामयाब नहीं हुए। उसके बाद क्लीवलैंड उस क्षेत्र का शासक बना जो बाद में भागलपुर का कलक्टर भी बना। उसकी कोशिश रही कि पहाड़िया समुदाय को मिला कर रखा जाए। उसने पहाड़िया मांझियों, नायकों एवं सरदारों को क्रमशः दो, पांच और दस रुपये मासिक मेहनताने का भी प्रावधान सरकार से करवाया। अपनी अध्यक्षता में ‘पहाड़िया परिषद’ का गठन किया और इस परिषद को न्याय व्यवस्था कायम करने का अधिकार दिया। इन प्रयत्नों से कुछ दिन तो उस इलाके में शांति रही, लेकिन विद्रोह की चिनगारी सुलगती रही, क्योंकि पहाड़िया जाति को अपना स्वाभिमान और स्वच्छंद जीवन पंसद था। उन्हें अपनी सवायत्तता प्यारी थी। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ उनका संघर्ष एक बार फिर शुरू हो गया और वे अंग्रेजों से लगातार लड़ते रहे।

सन् 1766 में सरदार रमना आहिड़ी के नेतृत्व में 1200 पहाड़िया वीरों ने वर्तमान नाला प्रखंड की तराई में अंग्रेजों की सेना से घमासान युद्ध किया। इसमें सरदार रमना शहीद हुए। रमना सरदार के ही सहयोगी थे करिया पुजहर, जिन्होंने पहाड़िया सेना को फिर से संगठित किया और 1772 में उधवानाला के निकट अंग्रेजों को पराजित भी किया। उधर जबरा पहाड़िया ने सन् 1778 में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ से अंग्रेजों को भगाया।

उधर अंग्रेजों ने इस समस्या को अंतिम रूप से सुलझाने के उद्देश्य से एक अंग्रेज अधिकारी जे.पी. वार्ड्स को वहां भेजा और उन्हें तत्कालीन दुमका, गोड्डा, पाकुड़ एवं राजमहल अनुमंडलों के मध्यवर्ती 1338 वर्गमील का सीमांकन करने की जिम्मेदारी सौंपी। वार्ड्स ने यह काम किया और सीमांकन के बाद इस क्षेत्र का नाम ‘दामिन इ कोह’ रखा। इस 1338 वर्गमील क्षेत्र में 11,7,88 एकड़ जमीन को रिजर्व फारेस्ट बना दिया और शेष जमीन पर पहाड़िया को कुरांव खेती तथा जीवन-बसर करने की छूट दी। वे चाहते थे कि पहाड़िया इस जमीन के जंगल को साफ कर इस पर सुव्यवस्थित ढंग से खेती-बाड़ी करें और अंग्रेज सरकार के रैयत बन जाएं।

रांची स्थित सिदो-कान्हू पार्क में अपने पुरखों सिदो-कान्हू की प्रतिमा के साथ आदिवासी बच्चे

लेकिन पहाड़िया जाति को यह बात स्वीकार्य नहीं थी। वे तो स्वच्छंद जीवन के आदि थे और जंगल पर अपना एकाधिकार समझते थे। थोड़ी-बहुत खेती और जंगल से उनका काम बखूबी चल रहा था। उन्हें अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं थी। तब अंग्रेजों ने एक नई चाल चली। इस क्षेत्र विशेष में तत्कालीन बीरभूम, मिदनापुर, बांकुड़ा, मानभूम आदि क्षेत्रों में शिकार के लिए संताल आया करते थे। अंग्रेज अधिकारियों ने आने वाले संतालों को इस क्षेत्र में बसाना शुरू किया। पहले वे इस क्षेत्र में आते और शिकार आदि कर लौट जाते थे, लेकिन पहले कुछ हिंदू जमींदारों ने, और फिर अंग्रेजों ने उन्हें इस क्षेत्र में बसाना शुरू किया। उनका प्रस्ताव था कि संताल इस क्षेत्र के जंगल को साफ कर खेती-बाड़ी करें। तीन वर्ष तक उनसे किसी तरह का राजस्व नहीं लिया जाएगा। उसके बाद गांव का मांझी जो तय करेगा, उतना राजस्व गांव की तरफ से देगा और पांच वर्षों के बाद मांझियों से मिलकर सरकार मालगुजारी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह जिस ‘दामिन-इ-कोह’ का निर्माण पहाड़िया के हित के नाम पर अंग्रेजों ने किया था। इसमें 1851 तक 82 हजार 795 संथाल बस चुके थे, जो 1473 गांवों में रहते थे।

अंग्रेजों के साथ इस क्षेत्र में जमींदार, महाजन, थाना-पुलिस, कोर्ट कचहरी के अमले-सभी पहुंचे और उनका दमन-चक्र शुरू हो गया। अंग्रेज अपने षड्यंत्र में कामयाब हो चुके थे। संथाल विद्रोह से निबटने वाले विशेष आयुक्त ए.सी. विडवेल ने 14 फरवरी, 1856 को बंगाल सरकार के सचिव को संथाल विद्रोह के कारणों का विश्लेषण करते हुए एक पत्र लिखा था, जिसमें यह ब्योरा दर्ज है कि 1837-38 से लेकर 1854-55 तक कितना राजस्व सरकार ने इस क्षेत्र से वसूला। उनके ब्योरे के अनुसार 1837-38 में जिस क्षेत्र विशेष से महज 6682 रुपए के राजस्व की वसूली होती थी, उस क्षेत्र विशेष से वर्ष 1854-55 में 58033 रुपए की वसूली हुई। अंग्रेज अधिकारी बार-बार यह दावा करते थे कि उन्हें इस वसूली में कभी कोई अड़चन नहीं हुई और आदिवासी नियमित रूप से राजस्व दते थे।

लेकिन हकीकत यह नहीं थी। आदिवासी समुदाय, जिसने अपने मेहनत से दामिन-इ-कोह के जंगलों को साफ कर खेती लायक जमीन बनाई थी, उनका भीषण शोषण हो रहा था। सरकार को नियमित राजस्व चुकाने के लिए उन्हें महाजनों से कर्ज लेना पड़ता। महाजन उदारता से कर्ज देते और सिर्फ सूद के रूप में उनकी फसल का बड़ा हिस्सा उठा ले जाते। बंगाली मूल के हिंदू जमींदार संथाल गांवों में गैर-आदिवासी जमींदारों को बसाने में लगे थे। महेशपुर और पाकुड़ के राजा संथालों के गांव को गैर-आदिवासी जमींदारों को लीज पर दे रहे थे। महेशपुर के राजा ने अपने अधीन पड़ने वाले 300 संताल गांवों को बाहिरागतों (बाहर से आए लोगों को) को लीज पर दे दिए, जो तरह-तरह के टैक्स संतालों से वसूलते थे। यानी सरकारी राजस्व में तो लगातार वृद्धि हो ही रही थी, जमींदार, सूदखोर-महाजनों, थाना के अमलों द्वारा भी आदिवासियों का भीषण शोषण हो रहा था।

उसी दौरान अंग्रेज सरकार ने रेलवे लाइन बिछाने का काम भी शुरू किया था और करीब 200 मील रेलवे लाइन संथाल क्षेत्र में बिछना था। इसके लिए संथाल क्षेत्र में बड़े पैमाने पर काम शुरू हुआ। बड़े-बड़े बांध, जंगल की सफाई, पुल निर्माण आदि कार्यों में रोजगार का प्रचुर अवसर था और यह कठिन काम संथाल ही कर सकते थे। जाहिर है इस क्षेत्र में रोजगार का अवसर मिला, लेकिन उन आदिवासियों का रेलवे के अधिकारी और ठेकेदार शोषण करते थे और आदिवासी महिलाओं के यौन शोषण की कई घटनाएं भी लगातार हुईं। एक अंग्रेज लेखक मैक्डगाल लिखते हैं– “विद्रोहियों की मुख्य शिकायत महाजनों और छोटे अधिकारियों द्वारा मनमाने पैसे की उगाही थी, लेकिन जमींदारों – हिंदू, मुस्लिम और यूरोपीय – द्वारा उन पर होने वाला अत्याचार भी कारण बना। रेलवे के कुछ कर्मचारियों पर संथाल महिलाओं के साथ बलात्कार का भी आरोप था।”

और विद्रोह फूट पड़ा। 30 जून, 1855 को 10 हजार से भी अधिक सशस्त्र संथाल भोगनाडीह में जमा हुए। उन्होंने इस बात की घोषणा की कि वे बहिरागत महाजनों से इस क्षेत्र को खाली कर देंगे और इस क्षेत्र पर कब्जा कर अपना राज यहां स्थापित करेंगे। डब्लू.डब्लू. हंटर ने ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगला’ (लंदन, 1868) में अपने ब्योरे में जहां-तहां हिंदू शब्द का इस्तेमाल इस संदर्भ में किया है कि हूल-विद्रोही हिंदुओं के विरोधी थे। लेकिन भागलपुर के कमिश्नर ने बंगाल सरकार के सचिव को 28 जुलाई, 1885 को जो पत्र लिखा था, उसके अनुसार कुम्हार, तेली, सोनार, मोमिन, चमार और डोम जैसी दलित हिंदू एवं मुसलमान जातियां इस हूल में आदिवासियों के साथ थीं। हूल विद्रोह के नेता सिदो और कान्हू इस मुद्दे पर साफ थे कि उनके दुश्मन वे लोग हैं – चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों या यूरोपीय – जो आदिवासी समाज का शोषण कर रहे हैं। वे इस क्षेत्र में ब्रिटिश राज का खात्मा कर अपना राज, अपनी व्यवस्था कायम करना चाहते थे।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भोगनाडीह से कलकत्ता के लिए यात्रा शुरू हुई। कारवां बढ़ता गया। हंटर के ब्योरे के अनुसार कम से कम 30 हजार लोग तो विद्रोह के नेताओं के अंगरक्षक ही थे। यह कारवां अपने साथ अपना रसद लेकर चल रहा था। लेकिन जब वह स्टाॅक खत्म हो गया तो लूटपाट शुरू हो गई।

7 जुलाई, 1855 को पंचकठिया के करीब दीघी थाना का दारोगा महेश लाल दत्त और नायक सेजवाल पुलिस की टुकड़ी के साथ सिदो और कान्हू को गिरफ्तार करने पहुंचा। उसने समझने में भूल की थी। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। भीड़ ने उसके दस्ते के साथ उसे पकड़ लिया। भरी जन-अदालत में दो दशकों में किए गए उसके अत्याचारों पर विचार करने के बाद दारोगा और उसके सहयोगी का वध कर दिया गया।

पंचकठिया की समीपवर्ती बाजार के महाजन मानिक चौधरी, गोराचंद सेन, सार्थक रक्षित, निमाई दत्त और हीरू दत्त को भी संथालों ने मार डाला। बरहेट बाजार में नायक सेजवाल खान साहब की हत्या कर दी गई। अंबर परगना जो पाकुड़ राज का हिस्सा था, में भी कई महाजनों की हत्या कर दी गई। पाकुड़ राज के पतन के बाद उस क्षेत्र के सबसे बड़े महाजन दीनदयाल और उसके समर्थकों ने घोषणा कर दी कि अब वे अंबर परगना के जमींदार हैं। लेकिन बाद में दीनदयाल रे को भी मार डाला गया। महेशपुर में राजा के घर को लूट लिया गया।

15 जुलाई, 1855 को संथाल विद्रोहियों का सामना अंग्रेजी सेना के 7वें रेजीमेंट से हुआ। उसके बाद पाकुड़ के नजदीक तारी नदी के किनारे बड़ी संख्या में संथाल विद्रोही मारे गये, लेकिन विद्रोह थमा नहीं, बल्कि फैलता चला गया। संथाल विद्रोह के इतिहासकार डाॅ. के.के. दत्ता (कलकत्ता 1946, पृ. 35) लिखते हैं- “20 जुलाई, 1854 तक विद्रोह बीरभूम के दक्षिण-पश्चिम ग्रैंड ट्रंक रोड से दक्षिण-पूर्व सैंथिया तक तथा भागलपुर से राजमहल तक फैल चुका था। और उससे निबटने के लिए 37 रेजीमेंट, मुर्शिदाबाद के नवाब के 200 निजामत सिपाही, 30 हाथी, 32 घुड़सवार के साथ 63 रेजीमेंट एन.आई. को लगाया गया।”

अंग्रेज अधिकारी बार-बार अपने उच्चाधिकारियों को खबर करते कि विद्रोह पर काबू पा लिया गया है, लेकिन अगले दिन विद्रोह के फिर फूट पड़ने की खबर आती, क्योंकि यह विद्रोह किसी रिसायत, राजा या भाड़े के सैनिकों का विद्रोह नहीं था। यह आदिवासी जनता का विद्रोह था और हर संथाल उसका सिपाही था। फिर भी यह लड़ाई अपने समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी शक्ति और एक छोटी-सी भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले संथालों के बीच थी। अंग्रेज सिपाहियों के पास अपने समय के आधुनिक हथियार थे, जबकि संथाल विद्रोही तीर-धनुष, टांगी, तलवार जैसे परंपरागत हथियारों से लड़ रहे थे। इसलिए इस यद्ध को तो खत्म होना ही था। संग्रामपुर में निर्णायक लड़ाई हुई और दिसंबर, 1855 के अंत तक संथाल-विद्रोह पर काबू पा लिया गया।

कुल 253 विद्रोहियों के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ। दो सरकारी गवाह बन गए। 251 के खिलाफ मुकदमे की कार्रवाई शुरू हुई। इनमें 52 संथाल गांवों के 191 संथाल थे। शेष अन्य दलित जाति समूहों के। 49 कम उम्र के किशोर थे। उन्हें छोड़ कर अन्य को 7 से 14 वर्ष को सश्रम कारावास की सजा मिली। इस विद्रोह में सिदो, कान्हू, चांद, भैरव सहित लगभग 10 हजार से भी अधिक संथाल मारे गये थे। लेकिन इस महान विद्रोह के बाद ही संथाल परगना में प्रशासनिक सुधारों का दौर शुरू हुआ और कई तरह के कानून अस्तित्व में आए। संथाल परगना रेगुलेशन 3-1908, जिसके अंतर्गत उस क्षेत्र में संथालों की जमीन के हस्तांतरण पर पूर्ण रोक का प्रावधन किया गया, के बनने और लागू होने की पृष्ठभूमि हूल-विद्रोह ही था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद उन प्रावधानों को ‘संथाल परगना काश्तकारी’ पूरक प्रावधान अधिनियम 1949 में कायम रखा गया।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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