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झारखंड : जब रांची में गैर-आदिवासी जमीन उपलब्ध है तो नगड़ी में रिम्स-2 की जिद क्यों?

राज्य सरकार के पास एचईसी की अफरात जमीन है। पांचवी अनुसूची के बाहर जमीन की कोई कमी नहीं है। बावजूद इसके नगड़ी की ही जमीन पर अस्पताल क्यों? क्या इसलिए कि विकास के नाम पर आदिवासियों से जमीन छीनना और आदिवासियों को दरबदर करना सबसे ज्यादा आसान है? पढ़ें, विनोद कुमार की रपट

झारखंड की ‘अबुआ’ सरकार राजधानी रांची के कांके प्रखंड में नगड़ी गांव के समीप एक बड़ा सरकारी अस्पताल बनाने की तैयारी कर रही है। इसे दूसरा राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स-2) कहा जा रहा है। इसके लिए आदिवासियों से 110 एकड़ कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण किया गया है। भविष्य में और जमीन की भी आवश्यकता होगी। इसे लेकर झारखंड में भारी विवाद चल रहा है। सूबे की सत्ता में साझीदार कांग्रेस के भीतर के ही कई नेता इस मुददे को लेकर आमने-सामने हैं। झारखंड सरकार के स्वास्थ्य मंत्री इरफान अंसारी यदि बढ़-चढ़ कर वहीं पर अस्पताल बनाने की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस के एक अन्य नेता और झारखंड सरकार के पूर्व मंत्री बंधु तिर्की कृषि योग्य जमीन पर अस्पताल बनाने का विरोध कर रहे हैं। एक अन्य नेता गीताश्री उरांव भी सरकार के इस निर्णय का विरोध कर रही हैं।

असल में, झारखंड में कृषि योग्य जमीन का घोर अभाव है। यह पठारी क्षेत्र है और आदिवसियों ने गुजरे जमाने में बड़ी मशक्कत से जंगल-झाड़ साफ कर खेती के लायक जमीन तैयार की थी। चूंकि आदिवासी अर्थ-व्यवस्था प्रारंभ से खेती और वन-संपदा पर निर्भर रही है, इसलिए उनका काम चलता रहा है। जल, जंगल और जमीन आदिवासी जीवन की बुनियाद हैं और इसके लिए वे अंग्रेजों के जमाने से संघर्ष करते रहे हैं। सिदो-कान्हू का ‘हूल’ हो या बिरसा का ‘उलगुलान’ – जल, जंगल और जमीन को बचाने का ही संघर्ष रहां है और उन संघर्षों के बाद ही अंग्रेज उनके लिए विशेष भूमि कानून बनाने के लिए मजबूर हुए, जिसे पांचवी-छठी अनुसूची और छोटानागपुर संथाल परगना टिनेंसी एक्ट के रूप में हम आज देख रहे हैं।

विडंबना यह कि उन्हीं कानूनों का उल्लंघन कर झारखंड की तथाकथित ‘अबुआ सरकार’ नगड़ी की कृषि की जमीन पर 1000 करोड़ रुपए की लागत से अस्पताल बनाने पर अमादा है।

यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के जमाने में 2012-13 के आसपास नगड़ी क्षेत्र में एक विशाल भूखंड ‘एजूकेशन हब’ बनाने के लिए भाजपा सरकार ने अधिग्रहित करने की योजना बनाई थी, जिसका खूब विरोध हुआ। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से वहां सेंट्रल लॉ यूनिवर्सिटी बन गया।

अब दस-बारह वर्ष बाद उसी योजना के लिए प्रस्तावित जमीन के एक हिस्से पर हेमंत सरकार अस्पताल बनाना चाहती है। मजेदार तथ्य यह कि उस समय भाजपा विकास के नाम पर जमीन लेना चाहती थी और तब विपक्ष में रही झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) उसका विरोध कर रही थी। उस समय झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने वहां ग्रामीणों के बीच सभा कर एलान किया था कि कृषि की जमीन पर इस तरह का काम नहीं होगा और उन्होंने ग्रामीणों से कहा था कि वे खेत जोतें और बोएं। और अब मुख्य विपक्षी दल की भूमिका भाजपा के पास है। वह सरकार की इस योजना का विरोध कर रही है और झामुमो इसके पक्ष में है।

कांके प्रखंड के नगड़ी गांव के खेतों में धान की फसल काटते आदिवासी। इन्हीं खेतों में राज्य सरकार अस्पताल बनवाना चाहती है (तस्वीर : विनोद कुमार)

भाजपा की मंशा है कि इस मामले में आदिवासी वोटों की ही मदद से सत्ता में आई और खुद को आदिवासियों का रहनुमा बताने वाली झामुमो को बेनकाब करें। इस काम में पूर्व भाजपा मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, सांसद और मंत्री संजय सेठ सहित कई भाजपा नेता लगे हुए हैं।

यह पूरा इलाका उरांव आदिवासियों का है। कहा जाता है कि उरांव समुदाय पहले मूलतः रोहतास गढ़ में बसे हुए थे, लेकिन मुगलों के सतत आक्रमण से वे वहां से दरबदर हुए और रांची की दिशा में बढ़ते चले आए जो एक मुंडा आदिवासी क्षेत्र है और यहां बसने लगे। मुंडा और उरांव दोनों समुदायों में इस बात को लेकर तकरार नहीं हुई। दोनों मिल-जुलकर इस क्षेत्र में रहने लगे। लेकिन जब उरांवों की बड़ी आबादी इस क्षेत्र में आने लगी, तो दोनों समुदायों में समझौता हुआ कि उरांव इस इलाके में रांची जिला तक ही रहें। उस ऐतिहासिक समझौते की स्मृति में रिंग रोड के समीप हर वर्ष एक मेला लगता है, जिसे मुड़मा मेला के रूप में लोग जानते हैं।

उरांव खेती में प्रवीण हैं। लेकिन शहर के विस्तार के साथ खेती की जमीन सिमटती जा रही है। रांची शहर भी किसी जमाने में गांवों का समूह ही था, लेकिन पहले मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव और फिर एचईसी जैसे कारखाने के निर्माण के बाद आधुनिक शहर रांची अस्तित्व में आया, जो झारखंड की राजधानी बनने के बाद सभी दिशाओं में बढ़ रहा है। शहर के बीच की जमीन तो कब की खत्म हो गई, अब रांची से चारों दिशाओं में जाने वाली सड़के, जो अन्य शहरों से जुड़ती है, के दोनों तरफ ही थोड़ी बहुत खेती होती है, जो शहर के निरंतर विस्तार और बन रहे अनगिनत नई सड़कों की वजह से खत्म होती जा रही है। घाटियां कट रही हैं, पेड़ कट रहे हैं और चारों तरफ फोर-सिक्स लेन सड़कें बन रही हैं।

इस प्रकरण का एक चिंतनीय पहलू यह भी है कि पूरे राज्य में चिकित्सा व्यवस्था बेहद खराब स्थिति में है। प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों में डाक्टर नहीं जाते हैं। प्रखंड स्तरीय अस्पताल और जिला अस्पतालों की स्थिति भी बेहद खराब है। राजधानी का एक मात्र सरकारी अस्पताल रिम्स है, जो कि 1960 में अस्तित्व में आया था। लेकिन उसमें भी चिकित्सकों, नर्सों व स्वास्थकर्मियों का घोर अभाव है।

पूरे राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च, 2022 तक राज्य में चिकित्सा अधिकारियों और विशेषज्ञों के 3634 स्वीकृत पदों में 2210 पद रिक्त हैं। यानि अमूमन 60 फीसदी पद। इसी तरह स्टाफ नर्सों के स्वीकृत 5872 पदों में 3033 पद रिक्त हैं। इसी तरह पारा मेडिकल के 1080 स्वीकृत पद में 864 पद रिक्त हैं।

इस स्थिति में सरकारी अस्पतालों में जाने मात्र से सामान्य लोग घबराते हैं। अभिजात्य तबका या मध्यम वर्ग तो सरकारी अस्पतालों का रुख नहीं ही करता। आम आदमी भी निजी अस्पतालों और गांव कस्बों में बसे झोला टाइप डाक्टरों की शरण में जाता है, लेकिन सरकारी अस्पतालों में जाने से बचता है। ऐसे में रिम्स ही एकमात्र अस्पताल है, जहां पूरे राज्य के लोग वहां पहुंचते हैं। ऐसे में राज्य सरकार को वर्तमान के अस्पतालों की स्थिति सुधारने से बेहतर नया अस्पताल खोलना अधिक फायदेमंद लग रहा है। 

अभी तो स्थिति यह है कि कई सामाजिक संगठन, आंदोलनकारी संगठन इस मुद्दे पर सक्रिय हैं। झामुमो सरकार भाजपा सरकार की तरह उनसे बर्बरता से भले ही पेश नहीं आ रही है, लेकिन सरकार जिद पर अड़ी रही तो टकराव हो सकता है।

असल सवाल है कि सरकार नगड़ी की लहलहाती कृषि भूमि, जो संविधान की पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आती है, पर क्यों अस्पताल बनाने की जिद पर अड़ी है? सरकार के पास एचईसी की अफरात जमीन है। पांचवी अनुसूची के बाहर जमीन की कोई कमी नहीं है। बावजूद इसके नगड़ी की ही जमीन पर अस्पताल क्यों? क्या इसलिए कि विकास के नाम पर आदिवासियों से जमीन छीनना और आदिवासियों को दरबदर करना सबसे ज्यादा आसान है? या फिर धीरे-धीरे कर उस सड़क की तमाम जमीन हड़प लेने और कारपोरेट को दे देने की उनकी योजना है?

दरअसल, राष्ट्रीय हित और तथाकथित विकास के नाम पर आजादी के बाद से ही आदिवासियों को उनके अधिवास, जल, जंगल, जमीन से उजाड़ा जाता रहा है। पूरे देश में बड़ी परियोजनाओं, बांधों, स्टील कारखानों, खनन और पार्क, सेंचुरियों के नाम पर एक-तिहाई आदिवासी आबादी विस्थापन की शिकार हो चुकी है। भद्र लोक की समझ है कि राष्ट्र के विकास के लिए आदिवासियों को कुर्बानी देनी ही पड़ेगी। दुखद यह कि झारखंड की ‘आबुआ’ सरकार भी यही सोच है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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