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एसआईआर के जरिए मताधिकार छीने जाने से सशंकित लोगों की गवाही

रूबी देवी फुलवारी शरीफ़ की हैं। उनके पास कोई दस्तावेज नहीं है। उन्होंने जन-सुनवाई में बताया कि “मेरे पास अपने पूर्वजों से जुड़े कोई दस्तावेज नहीं है। मेरे दादा-दादी और माता-पिता सभी अशिक्षित लोग थे। उन्होंने कभी कोई सरकारी काग़ज़ नहीं बनवाया। अब मुझे बहुत डर लग रहा है कि मेरा नाम अगर वोटर लिस्ट में नहीं आया तो मेरा क्या होगा?” बीते 21 जुलाई को पटना में हुई जन-सुनवाई के बारे में बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

बिहार से मेरा काफ़ी पुराना रिश्ता रहा है। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर और तथागत गौतम बुद्ध की वैचारिकी से प्रभावित होने की वजह से सदैव ही गया, नालंदा, राजगीर और पाटलीपुत्र का एक अलग ही आकर्षण रहा। फिर जब कभी मौक़ा मिला, गौतम बुद्ध और सम्राट अशोक से जुड़े स्थलों की यात्रा पर गया। बाद में मुझे अररिया और आसपास के जिलों में कार्यरत जन संगठन जन जागृति शक्ति संगठन में आने का मौक़ा मिला, जहां हमारे साथी कामायनी स्वामी और आशीष रंजन तथा अन्य मित्र नरेगा मज़दूरों तथा गरीब वंचित लोगों को संगठित करने के लिए दशकों से कर्मरत हैं। उनकी जीवनशाला के विद्यार्थी हों अथवा हर ग्रीष्मकाल में होने वाली इंटर्नशिप में आने वाले टीनएजर्स-यूथ के साथ समय गुज़ारने और सीखने-सिखाने की गरज़ से मेरा आना जाना लगा रहा है।

करीब दो साल पहले तो ऐसा भी हुआ कि मैं अररिया जाने के लिए बागडोगरा एयरपोर्ट उतरा ही था कि मुझे सीमांचल लाइब्रेरी मूवमेंट के साथियों का आदेश मिला कि मैं पहले किशनगंज आऊं। उनके द्वारा संचालित फ़ातिमा शेख़ लाइब्रेरी और रुकैया सखावत आदि पुस्तकालयों को देखूं, साथियों से मिलूं और फिर वे मुझे अररिया पहुंचाएंगे। मैं खुद भी ऐसा कोई अवसर मिले तो छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने आमंत्रण सहर्ष स्वीकार लिया और मैं बस से किशनगंज पहुंचा, जहां मुझे साक़िब अहमद और शेष मित्रों से मिलने का अवसर मिला। काफ़ी लंबी बातचीत के बाद भी जब बातचीत अधूरी-सी लगी तो वहां मौजूद तमाम साथी एक बड़ी गाड़ी में सवार हुए और मुझे आशीष भाई और कामायनी बहन के डेरा तक छोड़ आए।

छात्र जीवन में आरएसएस छोड़ने के बाद मैं रामविलास पासवान, शरद यादव और लालू प्रसाद यादव के विचारों से काफ़ी प्रभावित रहा और मेरा सामाजिक न्याय की बात करने वाले इन नेताओं की वजह से बिहार से विशेष प्रेम रहा। फिर तो सामाजिक-साहित्यिक कामों से बिहार आने-जाने का क्रम बनने लगा, लेकिन तब आवागमन महज़ ऊपरी ही रहा। बिहार से लगाव का एक बड़ा कारण राजस्थान में विभिन्न कामों में लगे श्रमिकों के मुद्दों को उठाना भी रहा।

पटना में आयोजित जन-सुनवाई के दौरान अपनी बात रखतीं एक महिला व मंच पर आसीन गणमान्य

इस बार बिहार के प्रति एक आदरयुक्त स्नेह के चलते ही जब मुझे ‘भारत जोड़ो अभियान’ की राष्ट्रीय सचिव कामायनी जी का कॉल आया और उन्होंने पटना में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के मुद्दे पर गत 21 जुलाई को आयोजित की गई जन-सुनवाई में बतौर पैनलिस्ट आने का निमंत्रण दिया तो मेरे शाश्वत बिहार प्रेम ने मुझे हां ही कहने को प्रेरित किया।

मैने हां तो कह दिया, लेकिन उस वक्त मैं ‘संगम जात्रा’ हेतु बेंगलुरु में था और वहां से मुझे रांची में आयोजित हो रहे पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के 17वें राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेकर तुरंत राजस्थान पहुंचना था। फिर यात्रा का प्लान बदला गया और मैंने तय किया कि कैसे भी करके पटना जाना ही है, क्योंकि मुझे लगा कि बिहार के आम लोग अपने संवैधानिक अधिकार को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, हमें उनके साथ खड़े होना है। रांची से ‘वंदे भारत’ ट्रेन में लगभग छह घंटे की आरामदायक यात्रा की और मैं रात करीब साढ़े दस बजे पटना स्टेशन पहुंचा।

स्टेशन कांवड़ यात्रियों से अटा पड़ा था। कैसे भी करके रात ग्यारह बजे तक आशीष-कामायनी के घर पहुंच कर सो गया। सुबह पांच बजे बेल चिंघाड़ती हुई बज उठी। पहले तो लगा कि अलार्म है। फिर समझ आया कि यह घंटी दरवाज़े की है। कोई अंदर आना चाहता है। दरवाज़ा खोला तो सामने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज थे। उनको सोने के लिए जगह देकर मैं अंदर के कमरे में खिसक लिया और आदत के मुताबिक़ सात बजे ही जगा।

चाय-नाश्ते के बाद मैं और कामायनी जी साढ़े आठ बजे ही पटना स्थित बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (बीआईए) के सभागार में पहुंच गए, जहां हमसे भी पहले अनेक लोग पहुंच चुके थे। रात भर बस और ट्रेन से यात्रा करके लोग पटना आए थे, ताकि अपनी पीड़ा लोगों को सुना सकें।

जन-सुनवाई एक पुरानी पद्धति रही है, जिसके तहत आम लोगों की बातें समाज के विभिन्न वर्गों के लोग इकट्ठे होकर सुनते रहे हैं, ताकि उनका कोई समाधान निकाला जा सके। समकालीन भारत में जन-सुनवाई की विधा को पुनर्जीवित करने का काम राजस्थान में कार्यरत मज़दूर किसान शक्ति संगठन ने 1990 के दशक में शुरू किया। संगठन ने ग्राम पंचायतों में फैले भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए गांव-गांव में जन-सुनवाई प्रारंभ की। इस अभियान ने देश को सूचना का अधिकार जैसा क़ानून दिया। राजस्थान में तो जन-सुनवाई को क़ानूनी अमली जामा भी पहनाया गया। आज जन-सुनवाई की प्रक्रिया देशभर में काफ़ी लोकप्रिय है।

खैर, पटना में 21 जुलाई को इसी तरह की एक जन-सुनवाई हुई, क्योंकि बिहार में विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र चुनाव आयोग मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेशिव रिवीज़न-एसआईआर) करवा रहा है। बीते  24 जून से शुरू की गई एसआईआर की इस प्रक्रिया से बड़े पैमाने पर मतदाताओं के मताधिकार से वंचित होने की आशंका पैदा हो गई है। वोटर लिस्ट को अपडेट करने के उद्देश्य से की गई इस कवायद के दौरान केवल एक महीने की अत्यंत सीमित समयसीमा के अंदर मांगे जा रहे ग्यारह दस्तावेजों और आधार, फोटो युक्त मतदाता पहचान पत्र तथा राशन कार्ड जैसे व्यापक रूप से प्रचलित पहचान दस्तावेजों को स्वीकार नहीं किए जाने से लोगों के मन में शंकाएं हैं। आम जनों के बीच इसकी तीखी आलोचना हो रही है। फिर चाहे वे शहरी व्यापारी हों या ग्रामीण किसानों या प्रवासी मजदूर, खेतिहर मज़दूर या फिर दलित व अल्पसंख्यक वर्ग के लोग। सभी के मन में भय और आशंका का माहौल बन गया है कि कहीं संविधान प्रदत्त वोट देने और अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार छीन न लिया जाए।

लोकसभा के द्वार पर एसआईआर के विरोध में प्रदर्शन करते इंडिया गठबंधन के घटक दलों के सदस्य

यह सनद रहे कि एसआईआर के तहत बिहार के सभी 7.9 करोड़ मतदाताओं को एक महीने में गणना फॉर्म जमा करना आवश्यक है, जिसमें 1 जनवरी, 2003 के बाद पंजीकृत 4.96 करोड़ मतदाताओं को अपनी जन्मतिथि और जन्म स्थान साबित करने के लिए अतिरिक्त दस्तावेज देने होंगे। सन् 1987 के बाद पैदा हुए लोगों के लिए उनके माता-पिता की पहचान का प्रमाण भी अनिवार्य है, यदि उनके माता-पिता 2003 की वोटरलिस्ट में सूचीबद्ध न हों। आयोग ने जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट और जाति प्रमाण पत्र जैसे 11 दस्तावेजों की एक सूची निर्दिष्ट की है, लेकिन आधार कार्ड, अपने द्वारा ही जारी मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को इसमें स्वीकार नहीं किया है। दूसरी ओर यही वे तीन दस्तावेज हैं, जो बिहार के गरीब और हाशिए के समुदायों के लोगों को सबसे आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। इन दस्तावेजों को बाहर रखने से विशेष रूप से दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के सामने मताधिकार से वंचित किए जाने का संकट आयोग द्वारा उत्पन्न कर दिया गया है।

गत 21 जुलाई को तय समय पर जन-सुनवाई की कार्यवाही शुरू हुई। सामाजिक कार्यकर्ता जितेंद्र पासवान के नेतृत्व में “यह हक़ की लड़ाई भाई हक़ की लड़ाई है” जैसे जोशीले गीत से आगाज किया गया।

जन-सुनवाई के रूप में यह पहली ऐसी सार्वजनिक चर्चा थी, जिसमें सिविल सोसाइटी, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों व प्रभावित लोग उपस्थित थे। ये बिहार के 19 जिलों के लगभग 250 लोग थे, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहीं।

बतौर पैनलिस्ट प्रो. ज्यां द्रेज़, प्रो. नंदिनी सुंदर, प्रो. डी.एम. दिवाकर, भारत के पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला तथा पटना हाईकोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस अंजना प्रकाश के अलावा मैं भी शामिल हुआ।

इस जन-सुनवाई के आरंभ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया व सोशल मीडिया पर प्रसारित उन खबरों को दिखाया गया, जिनमें एसआईआर के दौरान अनियमितताएं सामने आईं। इनमें एक वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम द्वारा फ़ील्ड में जा कर की गई कवरेज ने इस सच्चाई को सामने ला दिया कि किस तरह बूथ लेवल ऑफिसर दबाव और हड़बड़ी में फ़र्ज़ीवाड़ा कर रहे हैं। वीडियो में अजित अंजुम बता रहे हैं कि एक ही जगह बैठकर बीएलओ फार्म भर रहे हैं, लोगों तक फार्म नहीं पहुंच रहे हैं और यहां तक कि हस्ताक्षर भी फ़र्ज़ी किए जा रहे हैं।

जन-सुनवाई में पहले अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन में प्रो. राजेंद्र नारायणन ने स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क के साथ मिलकर बिहार के 300 प्रवासी मज़दूरों का फ़ोनबेस्ड सर्वे प्रस्तुत किया। ये मज़दूर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में काम करते हैं। इन मज़दूरों में हर तीन में से एक ने एसआईआर की प्रक्रिया के बारे में सुना ही नहीं, जिन्होंने सुना उनमें से 72 प्रतिशत को कौन-सा दस्तावेज लगाना है, यह मालूम नहीं है। सत्तर प्रतिशत प्रवासी मजदूर चुनाव आयोग के ऑनलाइन पोर्टल के बारे में नहीं जानते हैं। दस प्रतिशत मजदूरों ने सुना तो है, मगर उन्होंने पोर्टल का कभी उपयोग नहीं किया। करीब 45 प्रतिशत मजदूरों ने कहा कि यह एसआईआर की प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए। करीब 33 प्रतिशत मजदूरों के पास चुनाव आयोग द्वारा मांगे गए 11 दस्तावेजों में से एक भी दस्तावेज नहीं है।

इन मज़दूरों का कहना है कि “बिहार से हम 3 हज़ार किलोमीटर दूर आए, वहां कोई रोज़गार नहीं है। इसलिए आना पड़ता है। ऐसे हड़बड़ी में दस्तावेज मांगेंगे तो कैसे चलेगा। यह सब ग़रीब आदमी को परेशान करने के लिए किया जा रहा है।” एक अल्पसंख्यक वर्ग के श्रमिक ने कहा कि “हम मुसलमान हैं। इसलिए हमको बार-बार अपनी पहचान को अपने स्मार्टफोन के जैसे बार-बार अपडेट करना करना पड़ता है।”

इसके बाद हमने हॉल में मौजूद लोगों की गवाही सुनी, जिन्हें एसआईआर प्रक्रिया में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। अररिया की मुन्नी देवी, सहरसा के गोविंद पासवान, कटिहार की रुकमा देवी, रोहतास के हरदेव पाल, पटना की रोशन ख़ातून तथा गया के महावीर मांझी सहित 32 लोगों ने गवाहियां दी। सबसे मार्मिक गवाही पचास वर्षीया फूल कुमारी देवी महतो की थी। उन्होंने बताया कि “मेरा नाम 2003 से वोटर लिस्ट में है। जब बीएलओ मेरे पास आया तब उसने आधार कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास तथा फ़ोटो की मांग की। उस समय मेरे पास फ़ोटो नहीं था। फ़ोटो खिंचवाने और अन्य दस्तावेज के लिए पैसा भी नहीं था। मुझे राशन की दुकान के कोटे से जो पांच किलो चावल मिला था, उसे मैंने एक दुकानदार को बेच दिया और उसके बदले मिले पैसे से सात किलोमीटर दूर जा कर फ़ोटो खिंचवाई। मेरी दो दिन की मज़दूरी भी चली गई और घर में अनाज भी नहीं था। मुझे भूखा रहना पड़ा। मैने फार्म तो जमा करवा दिया है, मगर वोटर लिस्ट में मेरा नाम आएगा या नहीं, पता नहीं।”

इसी तरह पासवान जाति की रूकमा देवी के भी क़रीब डेढ़ सौ रुपए खर्च हुए जो उसे किसी से ऊधार लेना पड़ा। उसने कहा कि “हम शुरू से वोट गिराती आई हूं। आगे भी हमें वोट का अधिकार मिलता रहे, इसके लिए सरकार को सारे दस्तावेज उपलब्ध करवाना चाहिए।” हरदेव पाल की समस्या यह है कि उनका बेटा 19 साल का हो गया है और उनको उसका नाम जुड़वाना है। लेकिन अभी तो उन्हें खुद अपना और अपनी पत्नी का नाम जुड़वाने के लिए भाग-दौड़ करनी पड़ रही है।

करीब 82 वर्षीय वृद्ध परमेश्वर यादव, जो गया के निगरीटोला से पटना जनसुनवाई में आए थे और भूदानी किसान हैं, का कहना था कि उनके घर पर बीएलओ आया था। उसने बैंक पासबुक की फ़ोटो कॉपी मांगी। उन्होंने उससे कहा कि हम तुमको अपनी बैंक पासबुक की कॉपी क्यों देंगे। यह कहने पर बीएलओ ग़ुस्सा हो कर चला गया। दूसरे दिन आया तो फार्म पर उसने दस्तख़त करवाया और उनकी पत्नी के फार्म पर खुद ही ठप्पा लगा दिया। उनका मानना है कि ये लोग हड़बड़ी में गड़बड़ काम कर रहे हैं। फार्म जमा होने की रसीद भी नहीं दे रहे हैं।

वहीं नालंदा के 73 वर्षीय किसान रामचंद्र प्रसाद को तो फार्म ही नहीं मिला। बीएलओ ने सीधे ही फ़ोटो मांग लिया, जो उन्होंने उसे दे दिया। वे जन सुनवाई में बोले कि “मैं 1987 से वोट देते आ रहा हूं, तो मुझे नागरिकता की क्या ज़रूरत है? अगर अब मेरे से नागरिकता प्रमाण पत्र मांगा जा रहा है तो मेरे वोट से अब तक बनी सरकारें भी संदेह के घेरे में हैं।”

फुलवारी शरीफ़ की राखी देवी घर-घर जाकर कुछ काम करके बड़ी मुश्किल से जीवनयापन कर पा रही है। वह भी जन-सुनवाई में अपनी पीड़ा बताने पहुंची थी। उसने कहा कि “पिछले कईं दिनों से मैं परेशान हूं। मुझे फार्म नहीं मिला। मैं आंगनबाड़ी केंद्र भी गई, लेकिन मुझे वहां कोई बीएलओ नहीं मिला। न कोई मेरे घर पर फार्म देने आया। मेरे पास सिर्फ़ आधार कार्ड, वोटर कार्ड और राशन कार्ड है। इसके अलावा और कोई दस्तावेज़ नहीं है। मुझे यह चिंता सता रही है कि मुझे फार्म नहीं मिलेगा तो मैं वोटर लिस्ट में अपना नाम कैसे जुड़वा पाऊंगी और मेरा नाम अगर वोटर लिस्ट से हटा दिया गया तो मैं वोट देने के अधिकार से वंचित हो जाऊंगी। सरकार तो कहती है कि हर नागरिक को मताधिकार का हक़ है। लेकिन यह तो सिर्फ़ बातें हैं।  अधिकार केवल काग़ज़ों में है।”

राखी देवी की तरह ही बिहार के कमजोर वर्ग के लाखों लोग हैं जिनको अब यह डर सता रहा है। दलित संगठनों के राष्ट्रीय महासंघ द्वारा बिहार में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि 71 प्रतिशत दलितों को डर है कि उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा। यह बहुत बड़ी संख्या है और यह हमारे राजनीतिक लोकतंत्र पर बड़ा सवालिया निशान भी है।

रूबी देवी भी फुलवारी शरीफ़ की हैं। उनके पास कोई दस्तावेज नहीं है। उन्होंने जन-सुनवाई में बताया कि “मेरे पास अपने पूर्वजों से जुड़े कोई दस्तावेज नहीं है। मेरे दादा-दादी और माता-पिता सभी अशिक्षित लोग थे। उन्होंने कभी कोई सरकारी काग़ज़ नहीं बनवाया। अब मुझे बहुत डर लग रहा है कि मेरा नाम अगर वोटर लिस्ट में नहीं आया तो मेरा क्या होगा?”

एक महिला जो नेपाल से यहां ब्याह कर आई, उसने भी अपनी पीड़ा बताते हुए कहा कि उसका मतदाता सूची में भी नाम रहा है। वह कईं बार वोट डाल चुकी है। उसे राशन भी मिलता है। अब उसका नाम काट दिया जाएगा तो वह कहां जाएगी। ‘मिड डे’ के लिए लिखे अपने लेख में वरिष्ठ पत्रकार अयाज़ अशरफ़ ने  ज़िक्र किया है कि नेपाल के मधेसी समुदाय और बिहार-यूपी के लोगों के बीच सीमा पार शादियां बहुत आम बात है। हर साल लगभग हजारों लड़कियां सीमा के इस पार या उस पार ब्याही जाती हैं। इनमें बड़ी संख्या में यादव और मुस्लिम लड़कियां होती हैं। चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के फ़ैसले से दोनों देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक संबंधों पर बहुत गहरा असर हो सकता है। यह एक ऐसा कदम है जो सरहदों के पार बसे एक ही संस्कृति के लोगों को बांट सकता है।

सुनवाई में कई गवाहों ने एसआईआर प्रक्रिया में दोहरे मापदंडों का उल्लेख किया, जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के प्रति नरमी बरती जा रही है और दूसरों को परेशान किया जा रहा है। कई महिलाएं भी मनमाने बहिष्करण के खतरे में हैं। कुछ को अपने माता-पिता के घर से दस्तावेज लाने के लिए कहा जा रहा है, जो शायद बहुत दूर हो। उत्तरी जिलों में, कई विवाहित महिलाएं नेपाल में पैदा हुई थीं, लेकिन अब वे वास्तव में भारतीय नागरिक हैं और कई बार मतदान कर चुकी हैं, फिर भी उन्हें मतदाता सूची से हटाया जा सकता है।

बहरहाल, इन प्रभावित लोगों की बातों को सुनकर पता चलता है कि एसआईआर प्रक्रिया व्यावहारिक नहीं है। कुछ हफ्तों में करोड़ों दस्तावेजों को इकट्ठा करना, अपलोड करना और सत्यापित करना एक दबावग्रस्त तंत्र के लिए संभव ही नहीं है। समय सीमा भी बिल्कुल अवास्तविक है और बीएलओ को कोई महत्वपूर्ण प्रशिक्षण नहीं दिया गया है।

एक और भी समस्या सामने आई कि एसआईआर की यह प्रक्रिया मानसून के दौरान की जा रही है, जब ग्रामीण लोग रोपनी और खेती के अन्य कामों में व्यस्त हैं और कुछ क्षेत्र बाढ़ के कारण कटे हुए हैं। प्रवासी श्रमिक अन्य राज्यों में काम करने के लिए गए हैं, जिनके कारण वे अनुपस्थित हैं। इसमें पूरे सरकारी तंत्र को झोंक दिया गया है। शिक्षक, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, बीडीओ और जिला मजिस्ट्रेट सहित पूरा प्रशासनिक तंत्र इस विशाल प्रक्रिया पर अभी अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए है। इससे बिहार की अन्य सार्वजनिक सेवाओं, जैसे स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों को गंभीर नुकसान हो रहा है।

कई प्रभावित लोगों की शिकायत थी कि उन्हें आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई दिनों की मजदूरी छोड़कर खर्च करना पड़ा है। कुछ लोगों ने यह भी शिकायत की कि फॉर्म प्राप्त करने, भरने या अपलोड करने या सहायक दस्तावेजों के लिए ‘सहायता’ के लिए उनसे राशि वसूली गई।

मैंने जन-सुनवाई में अपने संबोधन में कहा कि यह विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर सुनियोजित बहिष्करण है। यह हमारे राजनीतिक लोकतंत्र को समाप्त करने का षड्यंत्र है। हर वयस्क भारतीय को वोट देने का अधिकार मिला है। इसे संविधान में राजनीतिक न्याय कहा गया है। आज इसे राजनीतिक अन्याय में बदलने की कोशिश हो रही है।

मैने यह भी कहा कि आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने लिखा था कि इस देश में कुछ लोगों को मतदान का अधिकार नहीं देना चाहिए। ख़ासतौर पर अल्पसंख्यक समुदायों को। वे उनको दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहते थे। लेकिन यहां बिहार में  तो उससे भी आगे बढ़ कर नागरिकता ही छीन लेने का प्रयास होता नज़र आ रहा है। यह गरीब मज़दूर किसान दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू वर्गों को अपने राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने की शुरुआत है।

न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश ने बतौर पैनलिस्ट अपनी बात रखते हुए कहा कि चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेज़ ग्रामीण बिहारवासियों के लिए जमा कर पाना असंभव है। वहीं पूर्व केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने कहा कि प्रशासन का दुरुपयोग हो रहा है। यह लोगों की मदद नहीं बल्कि उन्हें परेशान कर रहा है। एसआईआर की प्रक्रिया संविधान के अनुसार नहीं है। 

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ ने कहा कि एसआईआर को संशोधित नहीं, बल्कि रद्द किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग ने अपनी प्रक्रियाओं का कई बार उल्लंघन किया है। इससे मतदाता सूची की गुणवत्ता गिरेगी और उद्देश्य विफल होगा।

समाजशास्त्री प्रो. नंदिनी सुंदर का कहना था कि “एसआईआर लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। मेरी आशा है कि हमारी आवाज़ सुनी जाएगी और हम आगे लड़ाई जारी रखेंगे।”

ए.एन. सिन्हा संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. डी.एम. दिवाकर का विचार था कि “आज हमारा लोकतंत्र न जनता का है, न जनता के लिए है, न जनता के द्वारा है। हमें इसे वापस लाने के लिए संघर्ष करना होगा।”

इस जन-सुनवाई का इस सर्वसम्मत प्रस्ताव के साथ समापन हुआ कि एसआईआर की पूरी प्रक्रिया को रद्द कर देना चाहिए और इसके लिए लोगों को एकजुट होकर विरोध किए जाने की आवश्यकता जताई गई। जन सुनवाई का आयोजन भारत जोड़ो अभियान, जन जागरण शक्ति संगठन, जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वयन, समर चैरिटेबल ट्रस्ट, स्वराज अभियान और कोसी नवनिर्माण मंच ने मिलकर किया था। मेरे लिए पटना की इस जन-सुनवाई में शामिल होना भारत के राजनीतिक न्याय, समानता, संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए शुरू हो रहे संघर्ष में सहभागी होने का अवसर था। इस जन-सुनवाई ने आम भारतीयों के मत देने के अधिकार को बचाने की दिशा में जो आवाज़ उठाई आज वह आवाज़ बिहार विधानसभा से लेकर संसद तथा सड़कों पर गूंज रही है। चारों तरफ़ से एक ही आवाज़ आ रही है कि एसआईआर के नाम पर लोगों के वोट चुराने की साज़िश को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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