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असम में ‘पत्रकारिता’ पर हमले का उद्देश्य

असम सरकार ने सोशल मीडिया पर निगरानी के लिए टीम बनाई है। राज्य से बाहर के मीडिया संस्थानों व उनके लिए लिखने बोलने वाले पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाना मुश्किल नहीं होता, क्योंकि देशद्रोह तथ्यों पर आधारित नहीं होता है, बल्कि लिखी व बोली गई सामग्री की व्याख्या होती है। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

असम में एक आंकड़े के लिए शोध किया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में संविधान के अधिकार का इस्तेमाल करने के कारण थानों में कितने मुकदमें दर्ज कराए गए। ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और इससे जुड़े पत्रकार करण थापर के खिलाफ नया मुकदमा तब दायर किया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने पहले एक दर्ज मामले पर कार्रवाई करने पर रोक लगा दी थी। यह ‘राजनीतिक निशाने’ की प्रवृति की तरफ इशारा करता है।

पूरी कहानी यह है

गत 11 जुलाई, 2025 को असम के मॉरिगांव में ‘द वायर’ के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में एक एफआईआर (संख्या 0181/2025) दर्ज किया गया था।

दरअसल, 28 जून, 2025 को ‘द वायर’ ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसमे यह विश्लेषण शामिल था कि कश्मीर के पहलगाम में भारतीय नागरिकों के खिलाफ आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ किए गए आपरेशन सिंदूर में भारतीय वायु सेना को राजनीतिक नेतृत्व की बाधाओं के कारण लडाकू विमान गंवाने पड़े।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 12 अगस्त 2025 को 11 जुलाई, 2025 की एफआईआर पर कार्रवाई करने पर रोक लगा दिया। साथ ही भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 में देशद्रोह को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है, उसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नोटिस जारी किया।

सुप्रीम कोर्ट के 12 अगस्त 2025 के आदेश के बाद असम पुलिस की क्राइम ब्रांच ने 12 अगस्त, 2025 को ही सिद्धार्थ वरदराजन और करण थापर को सम्मन जारी किया, जिसमें उन्हें 22 अगस्त को गुवाहाटी के पान बाजार स्थित क्राइम ब्रांच कार्यालय में पेश होने के लिए कहा गया। लेकिन उन्हें एफआईआर की कोई कॉपी नहीं दी गई। हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक खबर के अनुसार यह एफआईआर (संख्या 03/2025) गत 9 मई को दर्ज किया गया था, जिसमें ‘द वायर’ द्वारा प्रकाशित 14 आलेखों व साक्षात्कारों का उल्लेख किया गया। इस एफआईआर में भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 यानी भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को ख़तरे में डालने वाले कार्य, धारा 196 यानी विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना, धारा 197(1)(डी)/3(6), धारा 353, 45 और 61 के तहत आरोप लगाए गए हैं।

पत्रकार करण थापर व सिद्धार्थ वरदराजन

खैर, दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त, 2025 को सिद्धार्थ वरदराजन व करण थापर को गिरफ्तार करने से असम पुलिस को रोक दिया। हालांकि जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जायमाल्या बागची ने दोनों से मामले के अनुसंधान में पुलिस को सहयोग करने को कहा है।

कई थानों में एफआईआर राजनीतिक हथियार

कई थानों में एक तरह के आरोप में एफआईआर दर्ज कराने की घटनाएं राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। सत्ताधारी इसका इस्तेमाल करते हैं। सत्ता के संरक्षण में एफआईआर दर्ज करवाना और थानों में उसे दर्ज कर गिरफ्तारी व सम्मन जारी करना मुश्किल नहीं होता है। सत्ता संरक्षण इस तरह एफआईआर दर्ज करने व करवाने की संस्कृति से विरोधी या सत्ता से अलग विचार रखने वालों को वर्षों व महीनों परेशानियों और उत्पीड़न झेलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अलग विचार रखने वाले सत्ता की ताकत के सामने घुटने टेक दें, यह सत्ता का उद्देश्य होता है। इसीलिए देखा जाता है कि वर्षों तक मुकदमा चलने के बाद कानून व नियमों की कसौटी पर आरोपी बरी हो जाते हैं। लेकिन सत्ता के संरक्षण में मुकदमें दर्ज कराने व करने वालों की कोई जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है।

असम और असम से बाहर के पत्रकार

असम में पत्रकारों के लिए सत्ता के मनमानेपन व विचारों के खिलाफ बोलना व लिखना बड़ी चुनौती होती है। बड़ी मीडिया कंपनियों में काम करने वाले पत्रकारों को एक तरह का सुरक्षा व संरक्षण होता है। लेकिन सोशल मीडिया व स्वतंत्र स्तर पर पत्रकारिता करने वालों के खिलाफ चौतरफा दमनात्मक माहौल रहता है। सहयोग की स्थितियां नदारद रहती है। असम में सोशल मीडिया पर लिखने वालों के खिलाफ बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुई हैं।

राज्य सरकार ने सोशल मीडिया पर निगरानी के लिए टीम बनाई है। असम से बाहर के मीडिया संस्थानों व उनके लिए लिखने बोलने वाले पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाना मुश्किल नहीं होता, क्योंकि देशद्रोह तथ्यों पर आधारित नहीं होता है, बल्कि लिखी व बोली गई सामग्री की व्याख्या होती है।

सत्ता अपनी व्याख्याओं को मुकदमे का आधार बनाती है

भारतीय दंड संहिता यानी ब्रिटिश राज में बने कानूनों में 124 (ए) के जरिए राजद्रोह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का प्रावधान किया गया। राज द्रोह के प्रावधनों को राष्ट्र द्रोह व देश द्रोह के रूप में 1947 में सत्ता परिवर्तन के बाद दुरुपयोग किया जाता रहा है। वर्ष 2021 में जब इस प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तब केवल उसी एक वर्ष में 124 (ए) के आरोप में देश भर में 76 मुकदमे दर्ज किए गए थे। मई, 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने 124 (ए) पर रोक लगा दी। तब सरकार ने भारतीय दंड संहिता की जगह 2023 में भारतीय न्याय संहिता को लागू किया गया तो उसकी धारा 152 में 124 (ए) के मुकाबले राष्ट्रद्रोह के लिए कड़े प्रावधान शामिल किए।

देश में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली संस्था पीयूडीआर ने 124 (ए) और 152 के प्रावधानों की तुलना की है और यह बताया कि नए प्रावधान से संविधान में बोलने की आजादी का प्रावधान किस कदर बाधित किया गया। ‘द वायर’ के खिलाफ इसका इस्तेमाल एक उदाहरण है।

पत्रकारों के खिलाफ थाना दर थाना मुकदमे का संदेश

पत्रकारों के खिलाफ थाना दर थाना मुकदमे दर्ज करने व करवाने के मकसद बोलने व लिखने के संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करने की चेतना पर हमला करना है। असम में इस प्रवृति का असर है। आमतौर पर यह माना जाता है कि जब पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के राजनीतिक हथकंडे अपनाए जाते हैं तब पत्रकारिता से जुड़े लोगों के संगठन आवाज उठाते हैं। लेकिन असम से ‘द वायर’ के पत्रकारों के खिलाफ थाना दर थाना दर्ज मुकदमों को लेकर पत्रकार संगठनों की कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है। सोशल मीडिया में भी असम से प्रतिक्रियाओं का सन्नाटा दिखाई दे रहा है। यह किस हालात के संकेत हो सकते हैं?

असम में 2026 का चुनाव

वर्ष 2026 में असम में विधानसभा के चुनाव होंगे। जैसे जैसे चुनाव के महीने नजदीक आते हैं, राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में एक खास तरह का माहौल बनाने की कोशिश में लग जाती हैं। विपक्षी पार्टियां सत्ता की कार्रवाईयों व व्यवहार के खिलाफ लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती हैं। लेकिन सत्ता को अपनी तमाम नाकामयाबियों को ढंकने वाले मुद्दों पर अपनी पूरी ताकत लगानी पड़ती है। माहौल को अपने पक्ष में बनाए रखने के लिए हर पल की सामग्री की जरूरत होती है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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