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झारखंड के कुड़मी इन कारणों से बनना चाहते हैं आदिवासी

जैसे ट्रेन के भरे डब्बे की अपेक्षा लोग अपेक्षाकृत खाली डब्बे में चढ़ना चाहते हैं, उसी तरह ओबीसी के तहत मिलने वाले आरक्षण में लाभार्थियों की अपार भीड़ है। इसलिए यह बात पुरजोर स्वर में कही जाने लगी है कि झारखंड के कुड़मी तो आदिवासी ही हैं। पढ़ें, विनोद कुमार का यह आलेख

विशाल और रहस्य से परिपूर्ण इस ब्रह्मांड में असंख्य ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, तारे, सूरज, चांद आदि हैं। उनमें से एक ग्रह पृथ्वी है। इस पृथ्वी पर अनेक महादेश और महासागर हैं। महादेशों में एक एशिया महादेश है, जिसमें अनेक देश हैं और इनमें एक देश भारत है। इसी भारत के एक राज्य झारखंड में दो प्रमुख सामाजिक शक्तियां अलग राज्य बनते ही आपस में भीषण संघर्ष में उतर पड़ी हैं। इन दोनों को न दुनिया में चल रहे सत्ता संघर्ष और संपत्ति की लूट में रुचि है, न विश्व युद्ध की तरफ बढ़ती दुनिया की खबर, न निरंतर घटते मानवाधिकार और साबुन की तरह छीजते लोकतंत्र की। उनके आपसी संघर्ष का मूल विषय है कि कुड़मी/कुर्मी आदिवासी हैं या नहीं? इसके लिए मानवशास्त्र को खंगाला जा रहा है, पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति और विकास संबंधी अवधारणाओं की पड़ताल की जा रही है। भारत का और खासकर झारखंड का मूलवासी कौन है, इसका अनुसंधान किया जा रहा है।

विडंबना यह कि आकाश में अनंत उंचाई पर उड़ते बाज की नजर जैसे पृथ्वी पर उपलब्ध मांस के टुकड़े पर टिकी होती है, उसी तरह यह सारा संघर्ष, अपने मूल की तलाश, अस्तित्व की खोज जैसे गंभीर कार्यों का लक्ष्य आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण है। कुड़मी समाज चाहता है कि उसे ओबीसी श्रेणी से निकाल कर आदिवासी श्रेणी में शामिल कर लिया जाए। उन्हें आदिवासी की पहचान मिले। हालांकि यह बात मुखर स्वर में नहीं कही जाती। कहा तो यही जाता है कि वे भी आदिवासी ही हैं, या कि आदिवासी की तरह अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल थे, लेकिन औपनिवेशिक काल में यानि अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्हें उस सूची से बाहर निकाल दिया गया। हालांकि, वे भी आदिवासियों की तरह टोटमिक हैं। यानि, उनकी भी उत्पत्ति हिंदुओ की तरह ऋषि-मुनियों से नहीं, विभिन्न जीव जंतुओं जैसे, मीन, कछुआ आदि से हुई है।

इस विवाद में यह बात समझ में नहीं आती कि यदि कोई जाति विशेष खुद को आदिवासी ही कहना चाहे, तो इसमें कोई रोक कहां हैं? यह बात सर्वविदित है कि जैसे कोई धर्म परिवर्तन कर मुसलमान या ईसाई बन सकता है, उस तरह का कोई प्रावधान हिंदू बनने की नहीं। हिंदू जन्मना ही बनता है। और उसी तरह आदिवासी बनने की कोई प्रक्रिया नहीं दिखाई देती। हां, हिंदू जैसे आचार-व्यवहार, रहन-सहन का तौर-तरीका अपना कर कोई हिंदू जैसा दिखने की कोशिश कर सकता है। बहुत से सैलानी हिंदू रीति से विवाह कर खुशी का अनुभव करते हैं। उसी तरह कुड़मी जिन्हें सामान्यतः औस्ट्रिक परिवार में शुमार नहीं किया जाता, वे चूंकि सदियों से आदिवासियों के साथ झारखंड में रहते आए हैं, इसलिए उनका रहन-सहन और जीवन के तौर-तरीके आदिवासियों की तरह ही हैं और इसलिए उनमें कभी कोई टकराव इतिहास के लंबे दौर में नहीं हुआ।

रेल की पटरी पर बैठकर प्रदर्शन करते कुड़मी जाति के लोग

लेकिन यह भी स्पष्ट है कि 70 के दशक में चले धनकटनी आंदोलन की शुरुआत में दो सामाजिक संगठनों का आपस में विलय हुआ। एक तो शिबू सोरेन के ‘आदिवासी सुधार समिति’ और दूसरा कुड़मियों के अब तक के सबसे कद्दावर नेता बिनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में चलने वाले ‘शिवाजी समाज’ में। जाहिर है कि झारखंड की ये दोनों सामाजिक शक्तियां समरूप होते हुए भी दो अलग-अलग सामाजिक संगठनों के दायरे में थीं। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के गठन में भी इन दोनों संगठनों की महती भूमिका थी। कुड़मियों ने भी महाजनी शोषण के खिलाफ चले उस संघर्ष में या फिर अलग राज्य के गठन के संघर्ष में उतनी ही भूमिका निभाई। शक्तिनाथ महतो, निर्मल महतो सहित अनेक कुड़मी नेताओं ने इस आंदोलन में शहादत दी। फिर अलग राज्य के गठन के बाद से वे आपस में टकराव की मुद्रा में क्यों आ गए?

दरअसल, झारखंड अलग राज्य के गठन के कुछ पूर्व से ही आरक्षण के प्रावधानों को लेकर आदिवासी और कुड़मियों में विवाद प्रारंभ हो गया, जो झारखंड अलग राज्य के गठन के बाद तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। और इस आपसी विवाद का फायदा संघी राजनीति और भाजपा ने उठाया। झारखंड में आज भी भाजपा इस विवाद का फायदा उठाती दिख रही है। कुड़मी वोटों की मदद से भाजपा ने झारखंड में अपनी पैठ बनाई और 2019 तक झारखंड की सत्ता पर काबिज रही। बीच-बीच में छोटे अंतरालों के लिए झामुमो या अन्य लोगों का भी शासन रहा, लेकिन 2000-2019 तक भाजपा के ही मुख्यमंत्री बनते रहे।

इस चर्चा को आगे बढ़ाने के पहले थोड़ा इस गुत्थी को सुलझा लेना चाहिए। पिछड़ा या ओबीसी संवर्ग में ही कोयरी, कुर्मी और झारखंड के कुड़मी आते हैं। रीतलाल वर्मा, रामटहल चौधरी, अकलूराम महतो जैसे झारखंड के कई नेता कोयरी समुदाय के थे। एकीकृत बंगाल में, जिसमें बिहार, बंगाल और ओडिशा शामिल था, उसमें इसी संवर्ग में कुर्मी की गणना होती थी। लेकिन झारखंड के कुर्मी, जो आदिवासियों के साथ सदियों से रहते आए हैं, वे खुद को कुड़मी कहते हैं। हालांकि एक दौर वह भी था जब आजादी के कुछ वर्ष पूर्व कुर्मी महासभा के बैनर तले कुर्मियों को एकजुट करने का महाअभियान चला तो उसमें बिहार, बंगाल, झारखंड और सुदूर महाराष्ट्र में बसे कुर्मी शामिल थे। प्रयास यह था कि कुर्मियों को क्षत्रिय का दर्जा दिया जाय। उनकी पहचान उच्च जाति की तरह हो। उनमें जनेऊ और हिंदू रीति-रिवाजों का चलन भी प्रारंभ हो गया। पूरे देश में कुर्मी समुदाय हिंदू वर्ण-व्यवस्था का ही हिस्सा है। कड़वी सच्चाई यह कि झारखंड के कुड़मी खुद को आदिवासियों से अलग अपनी पहचान बनाने लगे। और इसी के बीच 1931 में कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति या इससे मिलती-जुलती सूची से अंग्रेजों ने बाहर कर दिया।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी और ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। जब बिहार से झारखंड अलग नहीं हुआ था तब संयुक्त बिहार में आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण कम था। लेकिन अलग राज्य बनने के बाद यहां आदिवासियों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया और पिछड़े वर्गों को 14 प्रतिशत आरक्षण दिया जाने लगा। इसके अलावा झारखंड में पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून, जो हालांकि अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हुआ है, के तहत कुछ अलग किस्म की सुविधाएं आदिवासियों को मिलने लगी हैं।

कुड़मी समाज के लोगों की परेशानी का सबब यही है। जबकि उनके लिए आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन जैसे ट्रेन के भरे डब्बे की अपेक्षा लोग अपेक्षाकृत खाली डब्बे में चढ़ना चाहते हैं, उसी तरह ओबीसी के तहत मिलने वाले आरक्षण में लाभार्थियों की अपार भीड़ है। इसलिए यह बात पुरजोर स्वर में कही जाने लगी है कि झारखंड के कुड़मी तो आदिवासी ही हैं। उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची में रखा जाना चाहिए। वे इसके लिए धरना, प्रदर्शन, रेल रोको जैसे कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। इसके जवाब में आदिवासी समूह के भी कुछ सामाजिक संगठन समानांतर कार्यक्रम कर रहे हैं। हाल ही में रांची में जोरदार प्रदर्शन हुआ है। इसमें भी आदिवासियों का वह तबका ज्यादा सक्रिय है, जो आरक्षण की सुविधा उठा रहा है।

एक बात तो यह कि कुड़मी को यदि आदिवासी मान लिया जाए, तो उनकी जमीन भी आदिवासियों के जमीन की तरह पांचवी अनुसूची में आ जाएगी। यह विवाद असल में भाजपा के लिए गले में अटकी हुई हड्डी बन चुकी है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि 14 लोकसभा सीटों वाले झारखंड में कुछ ही संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं, जहां कुड़मी वोट निर्णायक है। अब वह उन चंद सीटों के लिए पूरे देश के आदिवासियों को नाराज करने का खतरा मोल नहीं ले सकती। यहां यह उल्लेखनीय है कि पूरे देश में अनुसूचित जनजाति की कुल सीटें 47 हैं और इसमें से आधे से अधिक पर भाजपा का कब्जा है।

एक बात यह भी कि कुड़मी को आदिवासी सूची में शामिल करने का आंदोलन समीपवर्ती बंगाल में भी चल रहा है। वहां कुड़मी पक्ष इस मामले को कोलकता हाइकोर्ट ले गया था, जहां यह दावा खारिज किया जा चुका है। कुछ ऐसा ही खेल महाराष्ट्र में चल रह है जहां मराठे ओबीसी का दर्जा पाना चाहते हैं। और इसी कड़ी में मणिपुर में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच जारी तनाव को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। वहां मैतेई, जो कि हिंदू हैं, आदिवासी का दर्जा चाहते हैं। वहां तो हाई कोर्ट ने इसके लिए आदेश तक जारी कर दिया। लेकिन उसके बाद से वहां व्यापक स्तर पर हिंसात्मक घटनाएं घटित हुईं। 

खैर, झारखंड के कुड़मियों के आंदोलन का केंद्र फिलहाल कोयलांचल यानि उत्तरी छोटानागपुर और धनबाद है। इसकी ऐतिहासिक वजह है। पूरे उत्तरी छोटानागपुर और कोयलांचल में जमीन का अधिग्रहण आसानी से हुआ। कोयलांचल में यानि धनबाद की सारी जमीनें कुड़मियों की थी, जहां आज बैंक मोड़ है। कुड़मी समाज के लोग किसानी को गर्व की बात समझते थे, इसलिए उन्होंने शुरू में कोयला खदानों में काम करना भी कबूल नहीं किया, क्योंकि तब मजदूरी बहुत कम थी। लेकिन जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ और श्रमिकों को अच्छा वेतन आदि मिलने लगा, तब उन्हें लगा कि नौकरी करनी चाहिए और उन्होंने इसकी मांग की। लेकिन तब तक वह क्षेत्र बहिरागतों से भर गया। बोकारो स्टील परियोजना में भी यही हुआ। लोगों ने खेती योग्य जमीन तो मुआवजे के लिए छोड़ दी, लेकिन गांव-घर बचाने की कोशिश की। परिणाम यह हुआ कि विस्थापितों की दो श्रेणियां बन गईं। पहली श्रेणी में वे जो जमीन और घर दोनों से वंचित हो गए और दूसरी श्रेणी में वे लोग रहे जिनके केवल खेत गए। पहली श्रेणी के विस्थापितों को नौकरी मिली और दूसरी श्रेणी के लोगों को केवल मुआवजा मिला। कुड़मी समाज के लोग दूसरी श्रेणी में रहे। 

कुड़मी युवा आज की तारीख में बेरोजगारी के कारण परेशान हैं। खनन और अन्य कार्यों के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण से खेती योग्य जमीन भी कम हो गई है। इसलिए कोयलांचल कुड़मी आंदोलन का आज अगुआ क्षेत्र बन गया है। हेमंत सोरेन और इंडिया गठबंधन ने विधानसभा चुनाव के समय अपने घोषणापत्र में ओबीसी कोटे में सुधार का वादा तो किया था, लेकिन वह अभी तक नहीं पूरा किया गया है।

इस कारण कुड़मी समाज को लगता है कि आदिवासी बन कर ही आरक्षण का लाभ और अन्य सुविधाएं प्राप्त की जा सकती है। अब तो यादव समूह भी कहने लगे हैं कि वे जंगल में पशुओं को चराते हैं, जंगल से उनका भी रिश्ता है, इसलिए उन्हें भी अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करना चाहिए। इसी तरह से कई अन्य समुदाय भी आदिवासी बनना चाहते हैं। और आदिवासी समुदाय को लगता है कि ऐसा हुआ तो उनकी अस्मिता और पहचान ही खत्म हो जाएगी।

इस संबंध में झारखंड के बुद्धिजीवी डॉ. रामदयाल मुंडा ने एक साक्षात्कार में मुझसे कहा था कि “हां भाई मान लिया, सभी आदिवासी ही हैं। बस हम जरा अधिक आदिवासी हैं।”

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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