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आदिवासियों की शहादत और अकीदत की नगरी रांची में चौदह दिन

सरकार ने जेल को बिरसा मुंडा संग्रहालय और मेमोरियल पार्क में तब्दील कर दिया है। अंदर दाखिल होने के लिए पचास रुपए का टिकट लगता है। टिकट लिया और विशाल द्वार से होते हुए अंदर दाखिल हो गया। जेल के अंदर की उलगुलान के नायकों को कैद में रखने वाली बेरहम कोठरियां खामोश खड़ी थीं। पढ़ें यह यात्रा संस्मरण

कई बार रांची जाना हुआ। वह एक तरह से मेरा वैचारिक घर है। वहां हमारे खास लोग रहते हैं। छोटानागपुर का संघर्ष प्रेरित करता है। वहां की ‘माय-माटी’ आवाज़ देती है। लेकिन इस बार का आना अलग था और अधिक दिनों का मुकाम था। हर बार एक या दो दिन में वापसी होती थी। इस बार चौदह दिनों तक रूकना था। किसी शहर को समझने के लिए इतने दिन कम नहीं होते।

रांची में इस प्रवास के दो उद्देश्य थे– रिफ्रेशर कोर्स पूरा करना और रांची व इसके आसपास के जिलों में आवाजाही करना। दिन में क्लास और रात में यथासंभव घुमाई-टहलाई। अर्थात समय का सही इस्तेमाल। पहले शहर और बाद में शहर के बाहर ताक-झांक की शुरुआत हुई। सच कहूं तो चौदह दिनों की ऐसी आजादी बहुत सालों बाद नसीब हुई थी। बीते 15 सितंबर को सोमवार का दिन था। इतवार को क्लास चलने के कारण वह छुट्टी का दिन था। उस दिन रांची शहर में घूमने की योजना बनी। सबसे पहले टैगोर हिल जाने का मन बना।

रांची सहित पूरे झारखंड में अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहाड़ हैं। टैगोर हिल उसी तरह की एक पहाड़ी है, जो बिल्कुल रांची में है, जो एल्बर्ट एक्का (परमवीर चक्र विजेता) चौक से लगभग तीन किलोमीटर दूरी पर मोरहाबादी इलाके में स्थित है। यह स्थान इस समय रांची शहर का पर्यटन स्थल और प्रेमी युगलों का पनाहगार बन चुका है। झारखंड के दूसरे पहाड़ों की तरह इस पहाड़ी का इतिहास है और कहिए कि संस्कृति भी है।

टैगोर हिल, रांची (तस्वीर साभार : जनार्दन)

सबसे पहले बात इतिहास की। यह स्थल ज्योतिंद्रनाथ टैगोर (रवींद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई) का आश्रम था। ज्योतिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी की मृत्यु 1884 में हो गई। रवींद्र की प्रारंभिक कविताओं (शोइशब संगीत) में भाभी कांदबरी देवी से लगाव का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इन्हीं कादंबरी देवी की असमय मृत्यु के बाद ज्योतिंद्रनाथ मोरहाबादी (यहां मोर बहुत रहते थे) की इस पहाड़ी पर आश्रम बनाया। वे यहीं रहने लगे। उन्होंने यहां पर एक औषधालय भी खोला। औषधालय का लाभ मोरहाबादी गांव के आदिवासी परिवारों को मिलता था। इसी पहाड़ी पर बने आश्रम में निवास करते हुए 1925 में उनकी मृत्यु हो गई।

टैगोर हिल की सुंदरता मन मोह लेती है। यहां से पूरा शहर और शहर से सटे गांव कंधे से कंधा मिलाए खड़े दिखाई देते हैं।

लेकिन इसी टैगोर हिल को देखकर अवसाद पैदा होता है। सत्यजीत रे की फिल्म ‘चारुलता’ फ्रेम-दर-फ्रेम चलने लगती है। पत्नी वियोग में मृत्यु की ओर बढ़ते हुए ज्योतिंद्रनाथ टैगोर याद आने लगते हैं। और याद आने लगती हैं टैगोर की ये पंक्तियां– “मेरी रानी, ​​मर गई है। और मुझे स्वतंत्रता का स्वाद देने वाली मेरी दुनिया अपनी आंतरिक सुंदरता के साथ कहीं गुम हो गई है।”

टैगोर हिल के बाद जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय जाना हुआ। इस विभाग में जाने का अर्थ ही कुमार सुरेश सिंह, पद्मश्री प्रोफेसर रामदयाल मुंडा, डॉ. रोज केरकेट्टा, और वीर भारत तलवार के भाषाई और सांस्कृतिक योगदान को मूर्त रूप में देखना है।

यह विभाग पूरे भारत के विश्वविद्यालयों में एकलौता ऐसा विभाग है, जहां आदिवासी भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन शुरू हुआ। इस विभाग को स्थापित करने के लिए रांची विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति और ‘बिरसा मुंडा’ जैसी बेहतरीन किताब के लेखक कुमार सुरेश सिंह ने मिनेसोटा विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरीका के प्रोफेसर रामदयाल मुंडा को जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था। प्रोफेसर मुंडा रांची विश्वविद्यालय आए और तमाम सहयोगियों के साथ मिलकर जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग स्थापित किया। इस विभाग में कुड़ुख, मुंडारी, संथाली, हो, खड़िया के अलावा नागपुरी, खोरठा, कुरमाली और पंचपरगनिया आदि भाषाओं और उनके साहित्य का अध्ययन-अध्यापन और शोधकार्य होता है।

सन् 1980 में इस विभाग में 6 आदिवासी और तीन गैर-आदिवासी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की शुरुआत हुई, जो बहुत जरूरी प्रयास था। इससे आदिवासी और गैर-आदिवासी भाषा और साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का आगाज़ हुआ। यह प्रयास सांस्कृतिक निकटता का प्रयास था। मगर अफसोस है कि खोरठा और कुरमाली बोलने वाले कुड़मी लोग राजनीतिक प्रोपेगेंडा का शिकार होकर इस समय अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल होने के लिए आंदोलनरत हैं।

मैंने विभाग के मुंडारी विषय के शोधार्थियों को संबोधित किया। उनसे बातचीत हुई। मुंडारी विषय के प्रोफेसर मनय मुंडा से मिलना हुआ। वे रामदयाल मुंडा के सुपरविजन में काम करने वाले अंतिम शोधार्थी रहे हैं। भाषा विज्ञान पर उनकी गहरी पकड़ है। उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं। उन्होंने जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के इतिहास से लेकर वर्तमान गतिविधियों और समस्याओं से अवगत कराया। करीब 45 साल पुराने इस विभाग की उपलब्धियां चमत्कृत करती हैं। अगर इस विभाग को पर्याप्त प्राध्यापक और उचित संसाधन मिल जाए तो यह विभाग आदिवासी भाषा विज्ञान के क्षेत्र में बड़ा मुकाम हासिल कर सकता है।

अब बातें बिरसा जेल और समाधि स्थल की। आसमान में काले बादल पानी का घड़ा लेकर टहल रहे थे। हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। लाल ईंटों की ऊंची दीवारें नम थीं। मानों बिरसा के दुख से जेल की दीवारें द्रवित हो उठी हों। सरकार ने जेल को बिरसा मुंडा संग्रहालय और मेमोरियल पार्क में तब्दील कर दिया है। अंदर दाखिल होने के लिए पचास रुपए का टिकट लगता है। टिकट लिया और विशाल द्वार से होते हुए अंदर दाखिल हो गया। जेल के अंदर की उलगुलान के नायकों को कैद में रखने वाली बेरहम कोठरियां खामोश खड़ी थीं।

बिरसा जेल में बिरसा मुंडा की प्रतिमा (तस्वीर साभार : जनार्दन)

मेमोरियल के मुख्य द्वार से अंदर जाने पर उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा की विशाल प्रतिमा दिखाई पड़ी। बिरसा की प्रतिमा के ठीक सामने एक मंदिर है, जिसका धरती आबा और आदिवासियत से कोई लेना-देना नहीं है। बहरहाल यहीं से जेल की कोठरियां शुरू होती हैं। सारी कोठरियां बंद हैं। उसी किसी कोठरी में 9 जून, 1900 को बिरसा ने अपना देह त्याग दिया था। कहा जाता है कि बिरसा की मृत्यु हैजे से हुई। मगर जिस तरह से आनन-फानन में गुप-चुप तरीके से धरती आबा के शव का पोस्टमार्टम किया गया और उसी दिन गुप्त रूप से हरमू नाले के किनारे उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया, उससे उपजे कई सवाल आज भी प्रासंगिक हैं।

जेल की कोठरियों और दर-ओ-दीवारों से गुजरते हुए बिरसा की कुछ बातें जेहन में थीं, जो मृत्यु के कुछ दिन पहले बिरसा ने जेल में अपने साथी भरमी मुंडा से कहा था। एक तो यह कि “जब तक मैं मिट्टी का यह शरीर नहीं बदलूंगा, तुम नहीं बचोगे। निराश मत होना। यह मत सोचना कि मैंने तुम्हें बीच मझधार में छोड़ दिया। मैंने तुम्हें सारे हथियार, सारे औजार दिए हैं। तुम उनसे खुद को बचाओगे।”

बिरसा जेल की बैरकें

बिरसा ऐसा इसलिए कह रहे थे ताकि वे अपने हजारों साथियों को बचा सकें। भरमी मुंडा को निराश होने से बचाने के लिए बिरसा ने उससे कहा था कि “आज तुम मुझ पर पहरा दे रहे हो। एक दिन तुम देखोगे कि मैं इस धरती का क्या करता हूं। जैसे बाजरा चक्की में पिसता है, मैं इस धरती को पीसूंगा। जैसे गोंदली को भूना जाता है, मैं इसे भूनूंगा। अगर यह धरती टुकड़ों में भी बट जाए, तो भी मैं इसे नहीं छोड़ूंगा।” ये सारे संदर्भ बिरसा मुंडा पर केंद्रित कुमार सुरेश सिंह की किताब में देखे जा सकते हैं।

खैर, जेल प्रांगण से गुजरते हुए ऐसा लग रहा था मानो अतीत अपनी कहानी स्वयं सुना रहा हो। पूरा प्रांगण आदिवासी इतिहास से और आदिवासी जीवन की झांकियों से अटा पड़ा है।

बिरसा मुंडा संग्रहालय और पार्क से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर हरमू नाला है। यहीं पर आनन-फानन में बिरसा के शव को जला दिया गया। आज वहीं पर बिरसा की समाधि है। झारखंड सरकार की ओर से इस जगह को अब पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है

रांची शहर शहीदों और अकीदत का शहर है। यहां परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का चौक है। भाषा के मर्मज्ञ विद्वान फादर कामिल बुल्के की समाधि है। इतिहास में दर्ज है कि 4 अगस्त, 1925 को ऐतिहासिक मोरहाबादी मैदान में महात्मा गांधी ने आदिवासी समाज को संबोधित किया। ताना भगतों से मुलाकात से उन्होंने सात्विक जीवन और अहिंसा का पाठ आत्मसात किया। यहां नेहरू से लेकर सुभाषचंद्र बोस तक का आना हुआ।

यहीं के शहीद चौक पर 1857 के गदर में शामिल क्रांतिकारी आदिवासी शासक राजा विश्वनाथ शाहदेवा को 16 अप्रैल, 1858 को ठाकुर कदंब की पेड़ पर लटका दिया गया। यहीं पर फांसी टुंगरी पहाड़ी है। यहां एक मंदिर भी है। जब अंग्रेज इस इलाके में आए, तो उनका प्रबल विरोध होने लगा। इसलिए अंग्रेजों ने इस पहाड़ी पर बने मंदिर का इस्तेमाल फांसी देने के लिए करना शुरू कर दिया। आजादी मिलने के बाद रांची शहर में पहला तिरंगा यहीं फहराया गया। तब से लेकर आज तक इस मंदिर पर धर्म का ध्वज नहीं, भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराता है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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