इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन 202 सीटें जीतने में कामयाब रहा। वहीं इंडिया गठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया। मुख्य घटक दल राजद को केवल 25 सीटें मिल सकीं और कांग्रेस केवल 6 सीटों पर सिमट गई। एनडीए की इस अप्रत्याशित जीत से वे भी हैरान हैं, जो एनडीए के कट्टर समर्थक रहे हैं। वहीं, सामाजिक न्याय के पक्षधर महागठबंधन के प्रत्याशियों की करारी हार ने मानसिक रूप से परेशान हैं। चुनाव परिणाम ने एनडीए और महागठबंधन तथा जनसुराज को लेकर किये गए सबके आकलन भी गलत सिद्ध कर दिए हैं। चुनाव परिणामों के आलोक में अगर हम उन आकलनों को देखते हैं, तो कुछ तथ्य उभरते हैं।
हर कोई यह समझ रहा था कि सीमांचल क्षेत्र के मुस्लिम मतदाता इस बार ओवैसी के दल के बजाय महागठबंधन का पूर्णरुपेण साथ देंगे। मुस्लिम मतों में बिखराव नहीं होगा। लेकिन, ओवैसी के दल ने इस चुनाव में भी पूर्ववत पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया है। महागठबंधन के समर्थकों को भी यह अनुमान था कि इस बार सीमांचल के मुस्लिम मतदाता पूर्णतया भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर महागठबंधन के पक्ष में मतदान करेंगे। लेकिन, चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया कि वे ओवैसी के उस नारे के साथ हो गए, जिसमें कहा गया था कि क्या बिहार के मुसलमान सिर्फ दरी बिछाने का काम करेंगे? अगर महागठबंधन ने डिप्टी सीएम पद के लिए मुकेश सहनी के साथ-साथ किसी मुस्लिम नेता के नाम की भी घोषणा कर दिया होता, तो ओवैसी का नारा बेअसर हो जाता। इसके अलावा महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव की सभाओं में वरिष्ठ मुस्लिम नेताओं की अनुपस्थिति रही। इसे अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने महसूस किया था। इसीलिए सीमांचल क्षेत्र में ओवैसी के प्रत्याशियों के समर्थन में अधिकांश मुस्लिम मतदाता हो गये।
एक आकलन यह भी था कि जनसुराज इस चुनाव में एनडीए को अधिक तथा महागठबंधन को कम नुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि उसने सवर्ण जाति के अधिक प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। लेकिन, उसने सिर्फ महागठबंधन को नुकसान पहुंचाया, क्योंकि एनडीए की समर्थक जातियां पूरी तरह एकजुट रहीं। जबकि पिछड़े वर्ग, अति पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियों के मतदाता महागठबंधन के साथ लामबंद नहीं रह सके। विभिन्न कारणों से उनके मतों में बिखराव हो गया।

महागठबंधन की करारी हार की एक बड़ी वजह कांग्रेस नेतृत्व की भूमिका भी रही। बिहार कांग्रेस के नए नेतृत्व से लेकर राहुल गांधी तक यह सिद्ध करने में जुटे रहे कि अब बिहार में कांग्रेस राजद की पूंछ नहीं है। राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा में उमड़ी भीड़ को लेकर कांग्रेस के कृष्ण अल्लवारू तथा प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष और राहुल गांधी को यह समझाया कि अब बिहार में कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है। सूबे के युवा आपके साथ हो गए हैं। राहुल भी इस मुगालते में आ गए। यही कारण है कि अधिक सीटें हासिल करने के दबाव वाली राजनीति के तहत तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से बचते रहे। वहीं, बिहार में बड़े जनाधार वाला दल भाकपा माले के राष्ट्रीय अध्यक्ष दीपांकर भट्टाचार्य स्पष्ट रूप से महागठबंधन के नेता तेजस्वी को सीएम फेस बताते रहे। औरंगाबाद जिले के कुटुम्बा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी राजेश राम चुनाव हार चुके हैं। चुनाव पूर्व बक्सर में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की हुई सभा में भीड़ नहीं थी। राहुल की वोट अधिकार यात्रा में भी अगर तेजस्वी और दीपांकर भट्टाचार्य शरीक नहीं होते, तो वह अपार भीड़ नहीं दिखती।
कांग्रेस के नये प्रदेश अध्यक्ष ने सूबे के हर जिले में नया नेतृत्व भी नहीं बनाया। सांगठनिक कमजोरी वाली कांग्रेस पार्टी के साथ न तो सवर्ण मतदाता हैं और न ही दलित। पिछड़े वर्ग की जातियां और मुसलमान तबका तो बहुत पहले कांग्रेस से विलग हो चुका था। कांग्रेसी नेतृत्व की ज़िद और उसके गलत आकलन की वजह से जो नकारात्मक भूमिका रही, इससे चुनावी माहौल में महागठबंधन की सेहत पर बुरा असर पड़ा। फलतः इस बार भी महागठबंधन की शिकस्त की एक बड़ी वजह कांग्रेस रही।
यह भी देखा गया कि तेजस्वी सहित महागठबंधन का हर नेता भाजपा पर हमलावर रहा, लेकिन नीतीश कुमार को निशाने पर नहीं लिया। जबकि गत चुनाव में तेजस्वी शालीनता से ही मगर नीतीश कुमार पर तीखे हमले करते रहे। जबकि नीतीश कुमार निरंतर राजद के जंगलराज और सूबे में विकास कार्य नहीं करने का दोषी बताते रहे। नीतीश के शासन काल में विद्युतापूर्ति में अपेक्षित सुधार, सड़कों का निर्माण, जीविका के जरिए सूबे की लाखों गरीब परिवार की महिलाओं को अर्थोपार्जन के योग्य बनाने का प्रयास, विकास मित्र और टोला सेवक बनाकर महादलितों के बेरोजगार युवक-युवतियों को रोजगार मुहैया कराना यथार्थ रूप में मतदाताओं को दिख रहा था। नीतीश की योजनाओं से लाभान्वित परिवारों के मतदाता भला क्यों महागठबंधन को वोट देते?
गौरतलब है कि नीतीश कुमार की जनसभाओं में जीविका से जुड़ी महिलाओं के अलावा विकास मित्रों और टोला सेवकों की सुनिश्चित भीड़ हमेशा दिखाई देती रही। जीविका योजना के जरिए दस हजार रुपए मतदान पूर्व महिलाओं को उपलब्ध कराना भी एनडीए के मतदाताओं की संख्या में वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दूसरी तरफ, भाजपा के मतदाता पूर्णतया एकजुट रहे। बड़ी संख्या में भाजपा के सांसद और दूसरे हिंदी प्रदेशों के विधायक करीब एक महीने से गुपचुप तरीके से हर विधानसभा क्षेत्र में एनडीए के पक्ष में माहौल बनाते रहे तथा मतदाताओं को एनडीए के पक्ष में मतदान के लिए उत्प्रेरित करते रहे। यह भी सच है सरकारी-प्रशासनिक तंत्र और चुनाव आयोग ने परोक्ष रूप से एनडीए के लिए हरसंभव कार्य किया है। विशेष मतदाता पुनरीक्षण के जरिए महागठबंधन समर्थक समुदाय के मतदाताओं के नाम काटे गए और फर्जी नाम जोड़े गए हैं। इसका प्रमाण राहुल गांधी दे चुके हैं।
भाजपा अब बिहार में सशक्त स्थिति में आ चुकी है, इसलिए नीतीश कुमार को उसके रहमोकरम पर जीने के लिए विवश हो चुके हैं। वह नीतीश कुमार को गोल्डेन जीरो अर्थात सिर्फ नाम के लिए मुख्यमंत्री बनाकर रखेगी, क्योंकि जदयू के पास एक खास वोट बैंक है। अगर भाजपा नीतीश को निपटा देगी, तो वह वोट बैंक राजद और वाम दलों की ओर मुड़ जाएगा। इस खतरे को भाजपा नेतृत्व समझ रहा है, इसलिए वह नीतीश कुमार को कठपुतली बनाकर अपने साथ रखेगा। इसके अलावा भाजपा अपने उस कलंक को झुठलाने की कोशिश भी कर सकेगी कि वो सहयोगी दलों को निगल जाना चाहती है। उसका फासिस्ट रूप भी छुपा रहेगा। चुनाव परिणाम ने एक बार पुनः यह संकेत दिया है कि एनडीए के जनाधार में सेंध नहीं लगी और ना भविष्य में महागठबंधन सेंधमारी कर सकेगा। सूबे में सामाजिक न्याय की शक्तियों में बिखराव है और उन्हें एकजुट करने में राजद और वाम दल विफल सिद्ध हो रहे हैं। भाजपा को शिकस्त देने के लिए महागठबंधन को नई नीति-रणनीति बनानी होगी। अब महागठबंधन को निरंतर जन आंदोलन करना होगा। जन आंदोलनों के जरिए ही महागठबंधन सामाजिक न्याय की शक्तियों को एकजुट एवं लामबंद करने में सफल हो सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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