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मेरी निगाह में बिहार चुनाव के परिणाम (पहला भाग)

“मैं तो अब भी मानता हूं कि इंडिया एलायंस की जो पार्टियां थीं उन्हें पहले ही चुनाव का बहिष्कार कर देना चाहिए था। आज भी अगर वे चुनाव परिणाम को खारिज करें और बहिष्कार करें तो स्थितियां बदल सकती हैं। उन्हें कहना चाहिए कि भाई, पांच साल के लिए हम लोग सड़क पर रहेंगे, गांवों में रहेंगे और गली-कूचों में रहेंगे।” पढ़ें, अली अनवर के विस्तृत विश्लेषण का पहला भाग

वैसे तो मैं स्वास्थ्य कारणों से इस चुनाव में बहुत सक्रिय रूप से भाग नहीं ले सका। हालांकि बीते 28 सितंबर, 2025 को अस्वस्थ रहने के बावजूद सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार और हमारा संगठन ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में शामिल हुआ। फिर अस्वस्थता ऐसी हुई कि पूरे चुनाव के दौरान क्षेत्रों में नहीं जा सका, लेकिन अपने संगठन के अनेक साथियों से मिले फीडबैक के आधार पर और कुछ दूसरे लोगों की बातों के आधार पर भी, पहली बात तो यह है कि बिहार में वोटों की डकैती हो गई। बिहार के लोगों के वोटों को डकैतों के गिरोह ने लूट लिया। अब सवाल यह है कि यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। इसकी संभावना पहले से थी। वोटों को लूटने का यह पैटर्न महाराष्ट्र में भी दिखा। यही पैटर्न हरियाणा में भी दिखा। लोग कहते थे कि बिहार हरियाणा और महाराष्ट्र नहीं है। देश के लोग मानते भी थे कि राजनीतिक रूप से बिहार के लोग सजग हैं और इस तरह की चीज नहीं होगी।

लेकिन ऐसा नहीं है कि विपक्षी पार्टियों ने भरसक प्रयास नहीं किया। चुनाव आयोग से मिलने की कोशिश की, उससे बात करने की कोशिश की, उनको ज्ञापन दिया। और यहां तक कि इस मामले को कोर्ट तक में ले गए। केंद्रीय चुनाव आयोग पर इसका कुछ असर हुआ। वह यह कि एसआईआर में 12 तरह के कागजातों में से एक कागजात की मांग की गई थी, उसमें आधार कार्ड को भी दस्तावेज माना गया। एक तरह से नया वोटर लिस्ट ही तैयार हो गया। यह उनकी कोशिशों का परिणाम था, जिसमें योगेंद्र यादव जैसे अन्य प्रोग्रेसिव लोग और सिविल सोसाइटी के लोग थे। ये वे लोग थे जो इस खतरे को समझ रहे थे। वे इस लड़ाई को कोर्ट में भी ले गए। लेकिन वहां पर बस इतनी ही राहत मिली कि आधार कार्ड को एक दस्तावेज के रूप में जोड़ लिया गया। यदि एसआईआर के दौरान चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेजों में आधार कार्ड को नहीं जोड़ा गया होता, तो विपक्ष के लिए रिजल्ट और भी खराब हो सकता था। करीब 68 लाख वोट करीब काटे गए और करीब 21 लाख वोट नए जोड़े गए। जिनके नाम काटे गए, क्यों काटे गए? किस जाति के लोगों, किस मजहब के लोगों का और किस इलाके में ज्यादा कटा, इन सबका विवरण आयोग ने अभी तक नहीं दिया है। हालांकि लोग प्रयास कर रहे हैं, लेकिन समय लगेगा। इस डकैती का प्रमाण के साथ भंडाफोड़ होगा।

लेकिन मेरा कहना यह है कि पॉलिटिकल पार्टियां देख रही हैं कि चुनाव आयोग पूरी तरह से केंद्रीय सत्ता के अधीन है और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट से फैसले या तो उनके खिलाफ में आते हैं या पेंडिंग में डाल दिए जाते हैं। इन सब में समय निकल जाता है। तो कहने का मतलब यह कि सब पर सरकार का दबाव है। चुनाव आयोग तो उसका पार्टनर बन गया है। मेरी राय थी कि एसआईआर के खिलाफ विपक्ष के लोगों को आंदोलन खड़ा करना चाहिए था। एक बार तेजस्वी जी ने कहा भी था कि अगर ऐसा होगा तो हम लोग चुनाव का बहिष्कार भी कर सकते हैं। मैं तो अब भी मानता हूं कि इंडिया एलायंस की जो पार्टियां थीं उन्हें पहले ही चुनाव का बहिष्कार कर देना चाहिए था। आज भी अगर वे चुनाव परिणाम को खारिज करें और बहिष्कार करें तो स्थितियां बदल सकती हैं। उन्हें कहना चाहिए कि भाई, पांच साल के लिए हम लोग सड़क पर रहेंगे, गांवों में रहेंगे और गली-कूचों में रहेंगे।

यह सिर्फ किसी पार्टी के जीतने या हारने का सवाल भर नहीं है। यह जम्हूरियत के खात्मे का सवाल है। उसका गला घोंटा जा रहा है। तो एक तरह से तानाशाही राज्य कायम किया जा रहा है। जिस तरह से केवल दिखावे के लिए रूस और चीन में चुनाव होते हैं, उसी तरह से यहां भी चुनाव होने लगेगा। फिर यहां लोकतंत्र केवल कहने भर के लिए रह जाएगा। इसको ऐसे भी देखिए कि हिटलर भी जर्मनी में चुनाव में जीत कर ही वहां सत्ता पर काबिज हुआ था।

करीब 15-17 दिनों तक राहुल जी, तेजस्वी जी और इंडिया गठबंधन के अन्य लोग सड़कों पर उतरे और गांव-गांव में लोगों द्वारा यह नारा लगाया गया कि ‘वोट चोर गद्दी छोड़’। लेकिन यह आगे नहीं बढ़ सका। अगर यह आंदोलन बिहार की जनता के बीच खड़ा हो गया होता तो इसका असर दूसरे राज्यों में भी होता। यह तो तब होता जब चुनाव का बहिष्कार करते। इसमें कष्ट बस इतना ही था कि हम विधानसभा में नहीं रहेंगे। लेकिन उससे क्या होता? अब देखिए कि वे विधानसभा में आए हैं तो इतनी कम संख्या में आए हैं कि उनकी किसी बात का असर सरकार पर होगा ही नहीं। कोई डेमोक्रेटिक वातावरण तो इस सरकार की सोच में है ही नहीं।

अब रही बात कि अब क्या हो सकता है। अब वह काम यानी चुनाव को बहिष्कार करना संभव नहीं है, क्योंकि अब तो चुनाव हो गया है और कुछ लोग जीत गए हैं। अब यह समझ में बात नहीं आ रही है कि अब क्या किया जाए, कैसे किया जाए। जेपी ने भी एक बार कह दिया था कि वोट का बहिष्कार हो, पार्लियामेंट से और असेंबली से सभी विपक्षी लोग इस्तीफा दें। हालांकि तब सबने तो इस्तीफा नहीं दिया था, लेकिन यह आंदोलन शुरू हो गया और जिसको आज जेन-जी कहते हैं, यानी युवा वर्ग, पार्लियामेंट और असेंबली में चुनकर आया।

मुख्य बात यह कि चुनाव लड़ने के बाद अब कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अब पश्चिम बंगाल है और भाजपा की सबसे ज्यादा नजर उत्तर प्रदेश पर है। इन सब राज्यों में इसका खतरा है। इसकी काट क्या है और इसके लिए इन राज्यों के लोग क्या करते हैं, यह देखना होगा। बंगाल को ही उदाहरण के रूप में ले लीजिए। बंगाल में हालत यह है कि सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस में इतनी कटुता है कि दोनों एक साथ एक मंच पर नहीं आ सकते। कांग्रेस टीएमसी के साथ हो सकती है, लेकिन वाम मोर्चा कभी नहीं आएगा। लेकिन अगर ये सभी एक साथ आ जाएं और एक साथ मिलकर या तो चुनाव लड़ें या सभी मिलकर एक साथ चुनाव का बहिष्कार कर दें, तो वहां से भी बात शुरू हो सकती है, एक आंदोलन खड़ा हो सकता है। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि वे लोग कर पाएंगे।

अली अनवर, पूर्व राज्यसभा सदस्य व ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष

बिहार में वोट चोरी के प्रमाणों को जुटाने में समय लगेगा। हालांकि यह तय है कि प्रमाण मिलेंगे। लोग इस काम में लग गए हैं। लेकिन यह उसी तरह से होगा जिस तरह से कर्नाटक और महाराष्ट्र में वोट चाेरी के प्रमाण चुनाव के एक अरसा बीतने के बाद मिले। कोर्ट में यह मामला गया है। लेकिन यह कायदे से अभी गया भी नहीं है। सामान्यत: अदालत को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए था। लेकिन उसका जो रूख दिख रहा है, उसके हिसाब से ये प्रमाण बेमानी हो जाएंगे और तब तक दूसरा चुनाव आ जाएगा। दूसरी बात यह कि अगर अदालत कोई फैसला दे भी वह एक-दो सीटों के मामले में देगी, क्योंकि आप एक-दो क्षेत्रों के मामलों को लेकर गए हैं। ऐसे में एक-दो सीटों के घट जाने पर भी भाजपा या फिर सत्तासीन पार्टी पर कोई असर नहीं होगा।

अब दूसरा कारण जो मैं मानता हूं कि शुरू से ही जिस तरह से इंडिया एलायंस का और एनडीए का गठबंधन बना और जिस तरह से सामाजिक आधारों पर एकजुट करने की कोशिश की गई तो सामाजिक आधारों के लिहाज से इंडिया गठबंधन से ज्यादा बड़ा गठबंधन एनडीए का था। इसमें उपेंद्र कुशवाहा भी थे, मांझी भी थे, नीतीश बाबू तो थे ही। भाजपा थी और चिराग पासवान भी थे। एनडीए गठबंधन की वोट कैच करने की क्षमता इंडिया गठबंधन से अधिक थी। इंडिया गठबंधन में देख लीजिए तो कांग्रेस और राजद के अलावा वामपंथी दल थे। इसमें भी 10-11 सीटों पर इनकी फ्रेंडली फाइट थी। हालांकि इसमें थोड़ा बहुत इधर-उधर करके इसको घटाने की कोशिश की, लेकिन एक मैसेज तो यह आम जनता में चला ही गया कि ये लोग आपस में ही लड़ रहे हैं।

एक और बात यह भी कि इंडिया गठबंधन द्वारा मुकेश साहनी का नाम बतौर उपमुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। जहां एक ओर भाजपा ने नीतीश कुमार के लाख चाहने के बाद भी यह घोषित नहीं किया कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन इंडिया गठबंधन के लोग भाजपा से आगे बढ़ गए। तेजस्वी जी तो मुख्यमंत्री का चेहरा थे ही, मुकेश साहनी को भी उपमुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया गया। मुकेश साहनी की पार्टी का तो एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका। वैसे भी वह कोई नेता नहीं हैं। लोगों को मछली-भात खिला देने से और यह कि फिल्म इंडस्ट्री से पैसा लेकर आ जाने से कोई नेता नहीं हो जाता है। मैं उनसे एक बार मिला हूं और उनको जानता हूं। उनके स्टैंडर्ड को जानता हूं। बिल्कुल वैसे ही जैसे फिल्मों की शूटिंग के दौरान प्लाईवुड से महल खड़ा कर दिया जाता है। वे इंडिया गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी थे। दूसरी बात यह थी कि गठबंधन में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने में भी देरी की गई। फिर उम्मीदवारों की सूची में भी अनावश्यक देरी हुई। इसमें सावधानी बरतनी थी और दो महीना पहले ही उम्मीदवारों की सूची जारी की जानी चाहिए थी।

लेकिन आप देखिए कि नामांकन पत्र दाखिल करने के अंतिम दिन तक उठापटक चलती रही। किसी से सिंबल वापस लेना पड़ा और किसी को फिर देना पड़ा। यदि यह काम पहले कर दिया गया होता तो उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्रों में जन संपर्क करने में आसानी होती। एक बात यह भी कि इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के पास न तो कोई तंत्र था, न कोई मंत्र था और न ही लक्ष्मी का सहयोग था। दूसरी ओर भाजपा व उसके सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के साथ पूरा तंत्र खड़ा था। रुपए-पैसे की भी कोई कमी नहीं थी। चुनाव आयोग भी उनके साथ था।

दूसरी बात यह है कि हर जगह जंगल राज की बात होती है। हम लोग जर्नलिस्ट हैं। लालू जी के राज में भी अपराध की घटनाएं होती थीं। लेकिन नीतीश जी के राज में जिस तरह से आपराधिक घटनाएं हुईं, दिनदहाड़े लोगों की हत्याएं हुईं, वह किसी जंगल राज से भी बड़ी चीज थी। फिर एसआईआर के जरिए वोटों की डकैती तो इन सभी से अलग है। राहुल गांधी जी ठीक कहते हैं कि यह एक सेंट्रलाइज्ड तरीके से एक सिस्टम के जरिए किया गया। नई टेक्नोलॉजी के सहयोग से एक जगह बैठकर नाम काटने और जोड़ने का धंधा शुरू हो गया। लेकिन इसके काट के लिए जो तैयारी करनी चाहिए थी, नहीं की गई।

एक मसला है नॅरेटिव बनाने का। जातियों को आपस में लड़वाने का नॅरेटिव। इसको ऐसे समझिए कि जिस तरह से उत्तर प्रदेश में जाटवों और गैर-जाटवों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देते हैं, जिस तरह हरियाणा में जाटों के खिलाफ गैर-जाटों को खड़ा कर देते हैं, वैसे ही बिहार में भी किया गया। दरअसल, ये उन जातियों को अपना टारगेट करते हैं, जो थोड़ा बहुत अपना हक लेने का प्रयास करती हैं। आप देखिए कि महाराष्ट्र में इन लोगों ने मराठा बनाम गैर-मराठा का नॅरेटिव बनाया। इसी तरह से बिहार में भी इन लोगों ने यादवों के खिलाफ नॅरेटिव बनाने में सफलता प्राप्त की, जिनकी राज्य में आबादी 14 प्रतिशत है, जो कि जातिवार आबादी के लिहाज से सबसे बड़ी आबादी है। लेकिन जंगल राज का नॅरेटिव खड़ा किया गया। हालांकि एनडीए के लोगों ने खुद यादव उम्मीदवारों को खड़ा किया। तो एक समय में दो काम एनडीए के द्वारा किया गया। यादवों के खिलाफ नॅरेटिव खड़ा किया तो यादवों को उम्मीदवार बनाकर यादव मतदाताओं के बीच पैठ भी बनाई गई।

लेकिन इन सबका कैसे जवाब दिया जाए? सिर्फ भाषण करके, प्रेस कांफ्रेंस करके और 15-17 दिन यात्रा निकाल करके नहीं। इसकी तैयारी जब मोदी इस साल के प्रारंभ में ही आ गए थे, तभी से शुरू हो जानी चाहिए थी।

यह तो कहा ही जा सकता है कि यादव समुदाय के लोग भी भटके हैं, और मुसलमान भी भटके हैं। हालांकि यह बात सही है कि अति पिछड़ों को लेकर तेजस्वी जी और सारी पार्टियों को यह समझ में आ गई थी कि सिर्फ यादव और मुस्लिम के समीकरण से काम नहीं चलेगा। उसमें अति पिछड़े, जिनकी आबादी 36 प्रतिशत है, तो उसमें भी पैठ बनाने की जरूरत है। वैसे पहले से नीतीश कुमार और भाजपा ने अति पिछड़ों में पैठ बनाने के लिए बहुत काम किया है। यादवों के खिलाफ नॅरेटिव बनाकर उन्हें अपने साथ जोड़ा गया है।

एक अहम बात यह कि जहां एक ओर एनडीए के लोगों को हर तरह की धांधली करने की छूट दी गई। चुनाव के पूर्व और मतदान के एक दिन पहले तक महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रुपए भेजे गए। दूसरी ओर इंडिया गठबंधन के लोगों को छोटी-छोटी बातों के लिए परेशान किया गया।

क्रमश: जारी

(नवल किशोर कुमार से दूरभाष पर बातचीत के आधार पर)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अली अनवर

लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद तथा ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अध्यक्ष हैं

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