h n

बिहार चुनाव से उठ रहा सवाल, क्या भारतीय लोकतंत्र मृत्युशैय्या पर है?

बिहार में 2025 का चुनाव राजनीतिक गठबंधनों या दलों के बीच का चुनाव नहीं था, बल्कि सत्ता पर कब्जा करने के लिए दिल्ली में लिखी गई फासीवादी पटकथा थी। भारत में यह लोकतांत्रिक स्वरूप में उभरकर आया है, जिसने सत्ता पर कब्जा करने के तौर-तरीकों को भी बदल डाला है। बता रहे हैं डॉ. गोल्डी एम. जार्ज

बीते 20 वर्षों में नीतीश कुमार दसवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए हैं। इस बार के बिहार चुनाव को समझने के लिए राजनीतिक परिदृश्य और सामाजिक-आर्थिक जनसांख्यिकी का आकलन करना होगा। बिहार के चुनाव के परिणाम का एक और निहितार्थ सामने आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जनता ने एक राजनीतिक शक्ति के रूप में निर्णय लेने की अपनी शक्ति खो दी है। सवाल उठने लगा है कि अब से भारत के नागरिक समय-समय पर उपयोग में लाए जाने वाले वस्तु बनकर रह जाएंगे? यह इस कारण कि भारत के हर एक चुनाव में वोट देने वाली जनता अब केवल एक अदृश्य, अपरिहार्य और बिखरे समूह में परिवर्तित हो गई है। बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में, जहां गरीब, दमित, उत्पीड़ित और हाशिए के लोग सबसे बड़ा वर्ग है, वहीं इस चुनाव के दौरान सामाजिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जाति संगठनों के नेताओं ने राजनीतिक निर्णय और उससे जुड़े आयामों पर अपना दबदबा कायम रखा। देखा जाए तो कुछ शक्तिशाली जातियों के पास ही निर्णय लेने के सारे अधिकार रहे।

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली एनडीए की प्रचंड जीत कभी किसी मुकाबले जैसी नहीं लगी, बल्कि राजा के राजसिंहासन पर राज्याभिषेक जैसी लगी। नतीजों के बाद कई विशेषज्ञों ने चिंता जताई कि क्या यह वाकई भारत के लोकतांत्रिक परिवेश का चुनाव था?

अब समय आ गया है कि भविष्य के तस्वीर को समझ लिया जाए। अब से शायद ही चुनाव लड़ा जाएगा। इसके बरअक्स पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से मतदाताओं को ट्रैप करने की योजनाएं बनाई जाएंगी। इस बार का बिहार चुनाव इसका प्रमाण है। एक ऐसा राज्य जहां पूरी आबादी जातिवाद में उलझी है, महिलाएं नव-गुलामी झेल रही हैं, लगभग आधे युवा बेरोज़गारी की गिरफ्त में हैं, दलितों पर आज भी दिनदहाड़े अत्याचार व उनके साथ जातिगत भेदभाव होता है, अति पिछड़े वर्गों के सामाजिक मूल्य पर अभी भी बहस जारी है, सुखाड़ और बाढ़ की दोगुनी मार है, और जहां लोग जिंदा रहने के लिए अंतर-राज्य प्रवासी मज़दूर बनकर देश के अलग-अलग प्रांतों में जाने को मजबूर हैं।

क्या मतदाता मायने रखते हैं?

इस चुनाव ने निश्चित रूप से इस सवाल को फिर से केंद्र में ला दिया है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाताओं का क्या महत्व है? बिहार चुनाव ने साबित कर दिया कि वोटर और उसके वोट का कोई महत्व नहीं है। जो सत्ता पर काबिज हुआ, उसी का वजूद है, बाकी सब गौण हैं। इस चुनाव से सबसे बड़ी सीख यह है कि मतदाताओं को या तो पूरी तरह से नियंत्रित (मैनेज) किया जा सकता है या पूरी तरह से ध्वस्त किया जा सकता है।

दरअसल बिहार मतदान के नतीजे, बुनियादी तौर से चुनाव प्रचार के दौरान जमीन पर छाए माहौल को नहीं दर्शाते। बात बिल्कुल साफ है कि जमीनी माहौल और नतीजों में बहुत बड़ी गहरी खाई है। ऐसा लगता है कि भारत का चुनावी लोकतंत्र उस खाई में दबकर मरती जा रही है।

कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी और कई अन्य नेता पिछले कुछ समय से वोट चोरी का मुद्दा उठा रहे हैं। ईवीएम से छेड़छाड़ के पहले के दावों के अलावा, राजनीतिक हलकों को अब पता चला है कि वोटों में हेराफेरी कई तरीकों से हो सकती है। चुनाव आयोग और राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों ने इन आरोपों का त्वरित खंडन किया। आयोग ने राहुल गांधी को मतदाता-स्तरीय विस्तृत जानकारी की शपथपत्र प्रस्तुत करने का निर्देश भी दिया है। चुनाव आयोग ने आगे कहा कि यदि राहुल गांधी ऐसा नहीं करते, तो आयोग पर लगाए गए ‘बेबुनियादी’ दावे पर माफी मांगें।

बिहार के इस बार के चुनाव में एक दिलचस्प बात यह है कि एक एग्जिट पोल ऐसा भी था, जिसने एनडीए का 243 सीटों पर जीत की भविष्यवाणी की थी। यह इसलिए भी दिलचस्प है, क्योंकि अधिकांश एग्जिट पोल ने एनडीए के पक्ष में 130 से 170 सीटों के बीच भविष्यवाणी की थी। ऐसा पहली दफा हुआ कि किसी एग्जिट पोल ने किसी एक पार्टी या गठबंधन के पक्ष में सभी सीटें जीतने की बात कही।

जब नतीजे आए तो राष्ट्रीय स्तर के सभी एग्जिट पोल के अनुमान वस्ताव में गलत रहे, क्योंकि आंकड़े उनके अनुमान से भी काफी ज्यादा थे। लेकिन वह अनजान एग्जिट पोल ज्यादा करीब नजर आया। 243 में से 202 सीटें अंतिम आंकड़े थे। भाजपा ने 89, जदयू ने 85 और शेष सीटें उनके सहयोगी दलों को प्राप्त हुए। इनमें चिराग पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी (राम विलास) शामिल रही, जिसने 19 सीटों पर जीत हासिल की। यह नतीजा सभी को चौंकाने वाला था।

20 नवंबर, 2025 को पटना के गांधी मैदान में शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

चुनाव में महागठबंधन की लगभग संपूर्ण हार दिखी। महागठबंधन को मिले 35 सीटों में 25 राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के पक्ष में गए। 2010 के बाद यह राजद की सबसे बड़ी हार है। तब राजद को 22 सीटें मिली थीं। क्या अधिकतर मतदाताओं ने एनडीए के पक्ष में मतदान किया? विधानसभा चुनाव में महागठबंधन 37.3 फीसदी तक कैसे गिर गई? 2024 के लोकसभा चुनावों से महागठबंधन को इस बार 2.8 फीसदी वोट कम मिले।

बिहार के चुनाव में जीत में मतदाताओं द्वारा डाले गए वोटों से कहीं ज़्यादा धांधली की भूमिका रही। चुनाव के दौरान एनडीए की ‘स्मार्ट मैनेजमेंट’ वाली कहानी भी सामने आई। यह कथा-कहानी चुनाव के धांधली को बखूब ढंकती रही। दरअसल स्मार्ट मैनेजमेंट ने एक ऐसी प्रक्रिया को साफ़-सुथरा दिखाया जो न तो न्यायसंगत थी और न ही स्वतंत्र।

फासीवाद के चार आधुनिक चाल

भारत में जातिवाद, पूंजीवाद और फासीवाद एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। इनका प्रभाव अब सीधे तौर पर चुनाव प्रणाली पर दिखता है। काफी अरसे से जातिवाद और पूंजीवाद पर गहन चर्चा होती रही, पर फासीवाद पर चर्चा कम हुई है। वैसे भी भारत में फासीवाद उस परंपरागत रूप में नहीं दिखाई देता, जिसके लिए वह जाना जाता रहा है। फासीवाद के आज नए चुनावी अवतार सामने आए हैं। यही कारण है कि इसको समझना इतना आसान भी नहीं रहा। लेकिन इसका मुख्य लक्ष्य वही है जो बेनिटो मुसोलिनी या फिर एडोल्फ हिटलर का था। यानि सत्ता पर काबिज होना।

दरअसल फासीवाद सरकार और सामाजिक संगठन की एक अत्यंत सत्तावादी और राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी प्रणाली है, जिसके दर्शन में अनेक तत्वों को बड़ी चतुराई से मिश्रित किया गया है। इसकी विशेषता है तानाशाही नेता के प्रति समर्थन, केंद्रीकृत निरंकुशता, सैन्यवाद, विपक्ष का बलपूर्वक दमन, प्राकृतिक सामाजिक पदानुक्रम में विश्वास, राष्ट्र या जाति के कथित हित के लिए व्यक्तिगत हितों की अधीनता, तथा समाज और अर्थव्यवस्था का मजबूत नियमन। साम्यवाद, जनतंत्र, उदारवाद, बहुलवाद और समाजवाद के विपरीत, फासीवाद पारंपरिक वाम-दक्षिणपंथी स्पेक्ट्रम के सबसे दक्षिणपंथी पक्ष में है। फासीवाद हिंसा के विभिन्न रूपों को – जिसमें राजनीतिक हिंसा, सामाजिक ऊंच-नीच या भेद-भाव, साम्राज्यवादी हिंसा और युद्ध – राष्ट्रीय कायाकल्प के साधन के रूप में देखता है।

बिहार में 2025 का चुनाव राजनीतिक गठबंधनों या दलों के बीच का चुनाव नहीं था, बल्कि सत्ता पर कब्जा करने के लिए दिल्ली में लिखी गई फासीवादी पटकथा थी। भारत में यह लोकतांत्रिक स्वरूप में उभरकर आया है, जिसने सत्ता पर कब्जा करने के तौर-तरीकों को भी बदल डाला है। इसके कुछ परीक्षण और प्रयोग बहुत पहले ही शुरू हो गए थे। खासकर महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के दौरान, और बाद में हरियाणा और अन्य राज्यों में भी इसका विस्तार हुआ। अब यह बिहार में बड़े पैमाने पर प्रवेश कर चुका है।

पहली चाल रही, स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) अथवा विशेष गहन पुनरीक्षण। चुनाव आयोग ने एसआईआर को शुद्धिकरण के कारणों के बहाने लागू किया। लेकिन लोकतंत्र की नसों पर एक सुनियोजित सर्जिकल स्ट्राइक रहा। वैसे यह सर्जिकल स्ट्राइक अभी भी जारी है। मतदाता सूची की सावधानी से जांच की गई। नई सूची से कई लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। चाहे वे गांव के हों या फिर शहर के। मतदाताओं के नाम बहीखाते से हटाई गई प्रविष्टियों की तरह, वे गायब हो गए। चुनाव आयोग की हेल्पलाइनों ने कोई मदद नहीं की। ‘तत्काल उल्लेखों’ से अभिभूत होकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना मुंह मोड़ लिया। इस बात को अब हमें समझना होगा कि जब कोई एल्गोरिथम मतदाता सूची का आकार छोटा कर देता है, तो वहीं पर लोकतंत्र मर जाता है।

दूसरी चाल रही पैसे की बारिश। विधानसभा चुनाव से पहले राज्य सरकार ने स्वरोजगार के लिए महिलाओं के खातों में पैसे ट्रांसफर किए। यह भाजपा सहित अपने सहयोगी दलों की ओर से विभिन्न राज्यों में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त हासिल करने के लिए अपनाई गई एक सफल रणनीति का हिस्सा है।

यह कोई कल्याणकारी योजना नहीं थी। यह एक रिश्वत थी। महिला मतदाताओं को लुभाने में भाजपा पहले से ही माहिर है। ऐसी ही चालें मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार की ‘लाडली बहना योजना’ और महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ भाजपा-शिवसेना-एनसीपी की ‘लाडकी बहीण योजना’ है। इन योजनाओं ने दोनों राज्यों में क्रमश: 2023 और 2024 में सत्ताधारी दल के लिए एक और कार्यकाल सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई थी। दोनों राज्यों में ये योजनाएं उसी साल शुरू की गई, जब वहां विधानसभा चुनाव होने वाला थे। यदि विपक्ष ऐसा कुछ डिजिटल माध्यम से करता या करवाता, तो वे निश्चित ही प्रवर्तन निदेशालय के छापे झेलते। यानि डिजिटल माध्यम से रिश्वत सरकारी रीति से सत्ता पर काबिज होने का एक आसान हथियार बन गया, जो कि अब सामान्य हो रहा है। अब जनता जनतंत्र में केवल लाभार्थी रह गई है।

तीसरी चाल, यह कि लाल किला विस्फोट, जिसकी समयबद्धता अद्भुत थी और जिसका कोई वास्तविक समाधान भी नहीं था। इस घटना ने भय की पूरी संरचना तैयार कर दी। भय का प्रयोग मतदान के दौरान मतदाता का पक्ष और व्यवहार को प्रभावित करने का एक सटीक तरीका है। डर इंसान के राय को बदल सकता है। इससे कहीं मतदान बढ़ता है जहां सत्तासीन दलों को फायदा है। और यदि कहीं नुकसान की संभावना है तो मतदान को कम करवा देता है।

कई अध्ययनों के मुताबिक कई देशों में चुनाव प्रचार में राजनीतिक विरोधियों से वोट छीनने के लिए डर का इस्तेमाल किया जाता है। इस रणनीति के कई तरीके और आयाम होते है। कहीं यह एक घटना से राष्ट्रवाद का स्वरूप लेता है तो कहीं यह व्यक्तियों और नेताओं के बारे मे डर पैदा करना होता है। इसमें विरोधी उम्मीदवार की सीमाओं के बारे में झूठे या भ्रामक सूचना शामिल हैं। या यह भ्रामक दावा किया जाता है कि विपक्ष की चुनावी जीत पूरी तरह से विनाशकारी होगी। व्यक्तिगत स्तर पर जब कोई राजनेता किसी प्रतिद्वंद्वी की शारीरिक या मानसिक अवस्था पर संदेह जताता है, तो अक्सर उसका लक्ष्य डर का इस्तेमाल करके समर्थकों को नेताओं और उम्मीदवारों की योग्यता पर संदेह उत्पन्न करना होता है।

इस तरह की योजना में मीडिया की भूमिका सत्तासीन दल के चीयरलीडर या प्रतिध्वनि के रूप में रहती है। वास्तव में मीडिया द्वारा बिहार एग्ज़िट पोल ने नतीजों का पूर्वानुमान नहीं लगाया था, क्योंकि इसकी पटकथा बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी। मीडिया अब केवल उसकी पुष्टि करने का काम करती है।

चौथी चाल रही एक ट्रोजन हॉर्स को मैदान में उतारना। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ी। यह एक नई ताकत लग रही थी, पर वास्तव में यह एक ट्रोजन हॉर्स के माफिक थी। उसने जाति और वंशवाद की राजनीति से मुक्त युवाओं द्वारा संचालित एक मंच बनाने में तीन साल लगाए थे। पूरे चुनाव में इसका वोट शेयर 2.8 फीसदी रहा। इस चुनाव में 2024 के लोकसभा चुनाव से महागठबंधन को 2.8 फीसदी वोट का नुकसान हुआ। ऐसे में विधानसभा चुनाव में विपक्ष का वोट केवल 37.3 फीसदी रह गया। यह 2.8 फीसदी ट्रोजन हॉर्स के हिस्से गया।

जन सुराज पार्टी ने राजद के गढ़ों में सेंध लगाकर महागठबंधन को पूरी तरह से धूल चटा दी। इसने एनडीए के लिए कोई खतरा पैदा नहीं किया, बल्कि उनके लिए चुनाव को एकदम से सुगम बना दिया। बहुत से सीटों पर हार-जीत का फासला 10 हजार वोटों से कम रहा। वर्तमान के ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ चुनाव प्रणाली में, लहर और सफाया के बीच यही अंतर है। एक तीसरा घोड़ा आमतौर पर दौड़ में खलल डालता है। उसे जीतने के लिए नहीं उतारा जाता है, बल्कि उसका काम विजेता के रथ को खींचना होता है।

कुल मिलाकर फासीवाद के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट हैं। यह एक हिंदुत्व राष्ट्रवादी तानाशाही राष्ट्र का निर्माण है। इसका लक्ष्य वर्ण आधारित अपने धर्म (हिंदुत्व) के हिसाब से देश के आर्थिक ढांचे को बदलना, आधुनिक परिवेश में ब्राह्मणवादी सामाजिक संबंधों की नए स्वरूप में स्थापना करना, हिंसक स्व-निर्णय की एक नई संस्कृति स्थापित करना और एक पूर्ण हिंदुत्व साम्राज्य का निर्माण करना है। इसके लिए कहीं जिंदा लोगों को मृत घोषित कर नाम काटना, तो कभी लोगों को लाभार्थी बनाने की राजनीति। कहीं भय की राजनीतिक मार्केटिंग करना या फिर ट्रोजन हॉर्स की रचना करना। यह सब अब इस खेल का हिस्सा है। जगह और स्थानों के हिसाब से कभी इसमें से कोई एक या फिर दो या सभी का प्रयोग करना मुमकिन है। आनेवाले समय मे प्रत्येक राज्य स्तरीय चुनाव में इसका भरपूर प्रयोग होगा।

बहरहाल, कई सवालों के जवाब खोजे जाने बाकी हैं। इनमें यह भी कि भारत के फासीवादी लोकतंत्र की नई कहानी कौन लिख रहा है? वोट चोरी की कहानी का अंतिम परिणाम क्या है? क्या भारत का लोकतंत्र, जिसे डॉ. आंबेडकर जैसे महान व्यक्तित्व ने ‘प्रबुद्ध भारत’ के रूप में सपना देखा था, आज मृत्युशैय्या पर है?

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

संबंधित आलेख

मेरी निगाह में बिहार चुनाव के परिणाम (अंतिम भाग)
“जो लोग ओवैसी की राजनीति को समझते हैं, उनसे कोई सलाह नहीं ली गई और यह भी नहीं हुआ कि पिछले चुनाव से सबक...
बिहार में लोकतंत्र : सबसे बड़ा रुपैय्या या नीतीश कुमार?
एनडीए ने यह चुनाव पूर्ण बहुमत से और आसानी से अवश्य जीत लिया है। लेकिन इसके पीछे अनेक सवाल खड़े हो गए हैं, जिससे...
मेरी निगाह में बिहार चुनाव के परिणाम (पहला भाग)
“मैं तो अब भी मानता हूं कि इंडिया एलायंस की जो पार्टियां थीं उन्हें पहले ही चुनाव का बहिष्कार कर देना चाहिए था। आज...
बिहार के चुनाव नतीजों में क्यों नहीं कोई अजूबापन?
पहले के चुनावों में हम यह सुना करते थे कि शहर का कोई रईसजादा शहर के सबसे बुरी हालात में रहने वाली आबादी के...
बिहार चुनाव : इन राजनीतिक कारणों से हुआ इंडिया गठबंधन का सूपड़ा साफ
नीतीश कुमार की जनसभाओं में जीविका से जुड़ी महिलाओं के अलावा विकास मित्रों और टोला सेवकों की सुनिश्चित भीड़ हमेशा दिखाई देती रही। जीविका...