बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं और बिहार में एक बार फिर नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हो चुका है। हल्की-फुल्की गड़बड़ियों को छोड़ दें तो यह चुनाव लगभग शांतिपूर्ण ही रहा। अधिकतर एग्जिट पोल ने चुनाव का परिणाम राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पक्ष में ही दिखाया था। जहां एक ओर एनडीए ने इसे सुशासन की सरकार की जीत की संज्ञा दी है विपक्षी गठबंधन ने जनादेश को स्वीकार करते हुए भी चुनाव में धांधली का आरोप लगाया है तथा चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को एकतरफा और संदिग्ध बताया है। हर चुनाव के नतीजों के अनेक कारक होते ही हैं। इस चुनाव में भी कई कारक सामने आए।
सबसे बड़े फैक्टर के रूप में उभरे नीतीश कुमार
बिहार के चुनाव के सबसे बड़े फैक्टर नीतीश कुमार को माना जा रहा है, जिन पर सीधे तौर पर किसी प्रकार का भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है तथा उनकी साधारण जीवन शैली का जलवा अब भी बरकरार है। राजनीति में उनके बेटे निशांत का नहीं होना भी उनके लिए फायदेमंद साबित होता है। नीतीश के विरोध में कम उम्र और अनुभवहीन तेजस्वी यादव हर प्रकार से बौने लगते हैं। नीतीश द्वारा किए गए विकास के कार्य, महिला सशक्तिकरण, सभी जातियों को साधने की कला आदि उन्हें विपक्षियों से बहुत आगे रखते हैं। वहीं महिलाओं में नीतीश के प्रति एक अलग ही लगाव दिखता है। हालांकि यह सब इसके बावजूद कि बिहार में अपराध में कोई खास कमी नहीं दिखती है, परंतु बीस वर्ष के शासन में भी कोई बहुत बड़ी जाति हिंसा या फिर सांप्रदायिक दंगा न होने देना भी नीतीश की नेतृत्व की मजबूती का सबूत है। उम्र के साथ उनके व्यवहार में कहीं-कहीं हल्कापन भी दिखता है, लेकिन इन सबसे नीतीश के वोटरों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है।
चुनाव पूर्व वित्तीय लाभकारी योजनाओं का अंबार
चुनाव से पहले महिलाओं को अनेक योजनाओं के अंतर्गत धनराशि वितरण से चुनाव में सफलता का सिलसिला जो मध्य प्रदेश से शुरू होता है, वह लगातार महाराष्ट्र, झारखंड और अब बिहार में भी कारगर साबित हुआ। सितंबर माह में बिहार में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 75 लाख महिलाओं को दस-दस हजार रुपए रोजगार करने को दिया गया तथा सरकार आने के बाद 2 लाख की और धनराशि देने का वादा किया गया। इतना ही नहीं बाद में लाभार्थी महिलाओं की संख्या भी सवा करोड़ तक बढ़ाई गई। इस योजना को चुनाव परिणाम में बड़ा फैक्टर माना जा रहा है। इसी प्रकार अगस्त महीने से 125 यूनिट बिजली फ्री योजना को भी लागू किया। अपने शासन के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार ने इसी वर्ष जुलाई में वृद्धा, विधवा और दिव्यांग पेंशन को 400 से बढ़कर 1100 कर दिया, जिसका फायदा बिहार के लगभग एक करोड़ लोगों को मिला। इन पहलकदमियों ने बिहार के लगभग हर घर को छुआ। इसी प्रकार से जुलाई महीने में जेपी सेनानी योजना के तहत आपातकाल के दौरान एक महीने से छह महीने तक जेल में रहने वाले कैदियों की जेपी सेनानी पेंशन 7,500 रुपये से बढ़ाकर 15,000 रुपए और छह महीने से अधिक समय तक जेल में रहने वालों की पेंशन 15,000 रुपए से बढ़ाकर 30,000 रुपए कर दी गई। वहीं अगस्त महीने में नीतीश सरकार ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राज्य के 90,000 से अधिक बीएलओ का वार्षिक मानदेय 10,000 से बढ़कर 14,000 रुपए कर दिया तथा बीएलओ पर्यवेक्षकों का वार्षिक मानदेय 15,000 रुपए से बढ़ाकर 18,000 रुपए कर दिया। राज्य में 8,400 से अधिक बीएलओ पर्यवेक्षक हैं। चुनाव से कुछ महीने पहले की इन समस्त योजनाओं की घोषणा से लगभग पूरे बिहार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिला तथा इसका फायदा एनडीए गठबंधन को हुआ।

जातीय समीकरण साधने में सफल रहा एनडीए
बिहार की राजनीति में जातियां हमेशा से ही प्रासंगिक रही हैं। चुनाव दर चुनाव इनका महत्व बढ़ता ही गया है। सदियों से सामाजिक वंचना का दंश झेल रही जातियां भी लोकतंत्र के इस पर्व में न सिर्फ सहभागिता दिखा रही हैं, बल्कि प्रतिनिधित्व की लड़ाई के साथ सरकार की निर्माण और विघटन में भी निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। पूरे चुनाव में जातियों के लिहाज से भी एनडीए मजबूत दिखा। नीतीश कुमार कुर्मी समाज से आते हैं और इस कारण कुर्मी जाति की पहली पसंद एनडीए बनी रही। वहीं राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा के उपेंद्र कुशवाहा कोइरी समाज का वोट आकर्षित करने में सफल रहे। पिछली बार यानी 2020 के चुनाव में अकेले लड़ने वाले चिराग पासवान ने इस चुनाव में अपनी जाति के वोट की पूरी तरह से जिम्मेदारी ली तो दूसरी ओर जीतनराम मांझी ने भी मुसहर समाज को जोड़ कर रखा। भाजपा को बिहार के लगभग समस्त ऊंची जातियों व वैश्य जातियों का समर्थन हासिल है।
वही महागठबंधन में राजद की बात करें तो उसके मुख्य वोटर परंपरागत रूप से यादव और मुस्लिम को माना जाता है। लेकिन इस चुनाव में यह भी छिटकता हुआ नजर आया। जहां यादव समाज ने अनेक जगहों पर एनडीए के यादव उम्मीदवारों को वोट दिया तो दूसरी ओर मुस्लिम समाज में बिखराव को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने सुनिश्चित कर दिया। मुकेश साहनी और आईपी गुप्ता के समाज का वोट बहुत ज्यादा नहीं हैं। कांग्रेस का परंपरागत वोटर भी मुख्यतः मुस्लिम, अगड़ा और दलित रहा है, जिसमें बिखराव दिखा या यूं कहें कि कांग्रेस से बहुत दूर चल गया। लेफ्ट पार्टियों का अपना जनाधार भी इस चुनाव में दम तोड़ता नजर आया तथा उन्हें भी बुरे परिणाम का सामना करना पड़ा।
इन सब के बाद नीतीश कुमार का ईबीसी जातियां और महिलाओं पर बेहतरीन पकड़ है। वहीं महागठबंधन के साथ ईबीसी जातियां सुविधाजनक महसूस नहीं करती हैं। हालांकि महागठबंधन ने ईबीसी को साधने का बड़ा प्रयास किया। लेकिन विश्वास जीतने में नाकामयाब ही रहा।
पिछले कुछ चुनावों से राजद के कोर वोटर कहे जाने वाले यादव वोट बैंक में भी अच्छी खासी बिखराव देखने को मिलने लगी है। पिछले कुछ चुनावों से यादव समाज भी पार्टी को न देखकर कैंडिडेट के अनुसार भी वोट करने लगा है। इस कारण हर पार्टी से यादव समाज के सांसद, विधायक जीतते हुए नजर आते हैं और बाद में मंत्रीपद और प्रमुख सांगठनिक जिम्मेदारी भी पाते हैं। इस बात को बखूबी जानते हुए भी तेजस्वी यादव ने पिछले चुनाव यानी 2020 में राजद ने यादव समाज से सबसे अधिक 58 टिकट दिए और इस बार भी सबसे अधिक 53 टिकट। इतनी संख्या में टिकट देने का मुख्य कारण अपने कोर वोटर को बचाने की एक कोशिश प्रतीत होती है, जिस कारण से राजद को अन्य जातियों को जोड़ने में भी दिक्कतें आती हैं।
महागठबंधन में फूट
चुनाव परिणाम को प्रभावित करने में नॅरेटिव का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है तथा जनता अधिकतर एकजुट दिखने वाली पार्टी को ही चुनना पसंद करती है। इस मामले में भी महागठबंधन पिछड़ता ही दिखा। जहां एनडीए गठबंधन आपसी नाराजगी तथा हल्की-फुल्की नोंक-झोंक के बाद चुनाव में एकजुटता से लड़ा तो वही महागठबंधन में शुरू से लेकर अंत तक सिर्फ झगड़ा दिखा। इस झगड़े ने अपनी चरम अवस्था तब दिखाई जब राजद ने कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम के खिलाफ ही उम्मीदवार खड़ा किया तथा दावेदारी पेश की। सीटों का बंटवारा आखिरी दिनों तक भी नहीं हो पाया तथा अंत में 11 सीटों पर फ्रेंडली फाइट देखने को मिला, जिसके परिणामस्वरूप ये सभी सीटें एनडीए के पक्ष में चली गईं। इन्हीं सब कारणों से महागठबंधन के अलग-अलग पार्टियों के मतदाताओं में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास उपजा तथा वोटों का आपस में स्थानांतरण भी नहीं हो पाया। गठबंधन और कमजोर हुआ। वही दूसरी तरफ एनडीए गठबंधन द्वारा समय रहते सीटों के ऐलान से अलग-अलग पार्टियों के कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा हुआ और उन्होंने एक-दूसरे के दलों के उम्मीदवारों को जमकर वोट किया। इन सभी का परिणाम सबके सामने है।
लेकिन सवाल बहुतेरे हैं
हालांकि एनडीए ने यह चुनाव पूर्ण बहुमत से और आसानी से अवश्य जीत लिया है लेकिन इसके पीछे अनेक सवाल खड़े हो गए हैं, जिससे विपक्ष में रहने वाली पार्टियों का दोबारा सत्ता में आना काफी मुश्किल लगने लगा है। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए काफी घातक हैं। हर चुनाव से पहले अगर सरकारें किसी-न-किसी योजना के तहत पैसे बांटने लगेंगी तो जनता विपक्ष को वोट नहीं ही देगी।
एक तरफ तो लोकतंत्र की मजबूती के ढोल पीटे जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ चुनाव लड़ने के रास्तों को आर्थिक समस्याओं और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से भी रू-ब-रू होना पड़ रहा है। जहां भाजपा के पास अथाह धन और सरकारी मशीनरी का बहुत बड़ा समर्थन है तो वहीं दूसरी तरफ महागठबंधन और खास कर राजद कई सालों से सत्ता से वंचित है तथा आर्थिक समस्याओं से जूझ रही है। समय-समय पर सत्ता पक्ष द्वारा ईडी और सीबीआई के जरिए परेशान भी किया जाता है।
सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हुए एनडीए सरकार ने चुनाव के दौरान भी 10 हजार रुपए कैश का वितरण जारी रखा, जिस कारण से चुनाव का परिणाम आवश्यक रूप से प्रभावित हुआ। इसी प्रकार चुनाव से ठीक पहले एसआईआर करवाना भी मतदाताओं को डरावना लगा और इसने विपक्ष को भी उलझा कर रखा, जो कि कहीं से भी नैतिक नहीं लगता और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग प्रतीत होता है। दुलारचंद यादव की हत्या हो या एनडीए के नेताओं के पैसे बांटते हुए वीडियो का वायरल होना, इन घटनाओं में सत्ता पक्ष विशेषकर केंद्र का शह मिलता हुआ दिखा और लोकतंत्र मजबूर।
(संपादन : नवल/अनिल)