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सिर्फ सौंदर्यशास्त्री नहीं थे कुमार विमल

“सौंदर्यशास्त्री” का लेबल लगाकर साहित्य में उनके व्यापक योगदान को नजरअंदाज किया गया है। सौंदर्यशास्त्र पर उनका काम साठ के दशक में ही साहित्य में स्थापित हो चुका था। वस्तुत: हिंदी की प्रगतिशील धारा की आलोचना की जब भी चर्चा होती है उन्हें नोटिस नहीं किया जाता।

डॉ. कुमार विमल का 26 नवंबर, 2011 की सुबह 6.30 बजे पटना में निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। फिर भी पठन-पाठन को लेकर उनका सरोकर इतना गहरा था कि चरम व्याधियों से घिरे रहकर भी नियमित लिखते रहे। डॉ. कुमार विमल के निधन के बाद भी कुछ सरकारी औपचारिकताएँ हुईं और फिर सब कुछ सामान्य-सा हो गया। अखबारों और पत्रिकाओं ने उनके योगदान पर ‘रस्मी’ लेख भी बहुत कम छपे। मामले का रोचक पहलू यह है कि तीनों लेखकीय संगठनों, जसम, प्रलेस और जलेस, ने अब तक न तो कोई गोष्ठी की और न ही प्रेस रिलीज दिया। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि डॉ. कुमार विमल इनमें से न तो किसी संगठन के सदस्य थे और न ही उनकी जाति-बिरादरी से आते थे। यह बात अलग है कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन इस जातिवाद से ऊपर उठकर हिंदी की चोटी के ब्राह्मण लेखकों के ही महिमागान में जाया किया। फिर भी उन्हें सौंदर्यशास्त्री कह साहित्य में उनके विपुल अवदान की अनदेखी का हर एक तुरूप आजमाया जाता रहा। सौंदर्यशास्त्र पर उनका काम साठ के दशक में ही साहित्य में स्थापित हो चुका था। वस्तुत: हिंदी की प्रगतिशील धारा की आलोचना की जब भी चर्चा होती है उन्हें नोटिस नहीं किया जाता। हिंदी में छायावाद से लेकर प्रगतिवाद और नयी कविता तक के जितने महत्वपूर्ण कवि हुए, विमल ने लगभग सबके ऊपर लिखा। पूरी तैयारी और मनोयोगपूर्वक। मुख्यधारा के वाम लेखकों ने हाल-फिलहाल कुमार पर लिखा भी तो इस सहानुभूति के साथ कि पिछड़ा होने के नाते मानो वे उन पर दया कर रहे हों। यह छायावाद से लेकर अज्ञेय, दिनकर जैसे अपने समय के दिग्गज लेखकों के बीच स्टार रहे हिंदी के आलोचक का हश्र था। इस हश्र के कारणों की व्याख्या का शायद यह उचित वक्त नहीं है।

विमल जी अपनी इस उपेक्षा से आहत थे और कभी-कभार इसे प्रकट भी करते थे।

विमल जी की आलोचना का सबसे ताकतवर रूप है पक्षधर दृष्टि से साहित्य का मूल्याँकन। उन्होंने हिंदी आलोचना को आस्था और परम्परा के पृष्ठपोषण से अलग उसे आधुनिकतावाद और सौंदर्यवाद से लैस किया। यह सही है कि उनका आलोचनात्मक गद्य कभी-कभी जटिल वाक्य बिंबों में उलझता है लेकिन जहाँ वे अपनी इस सीमा का अतिक्रमण करते हैं वहाँ उनका वह आलोचनात्मक गद्य विवेचनात्मकता से आगे बढ़कर सृजनात्मक आलोचना की जमीन तैयार करता है।

उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि टेलिफोन से नए-से-नए लेखकों और पत्रकारों के सघन संपर्क में रहते थे। फोन पर शहर के राजनीतिक तापमान और साहित्यिक हलकों का समाचार वे अकसर लिया करते। दलित साहित्य की चर्चा भी गाहे-बगाहे किया करते थे। एक बार साहित्य अकादेमी से जुड़ा एक संस्मरण सुनाया कि गंगाधर गाडगिल ने मराठी के पुरस्कार लिए एक साल लक्ष्मण गायकवाड़ का चयन किया। तो साहित्य अकादेमी में पुरस्कृत लेखक के वक्तव्य का जो कार्यक्रम चलता है उसमें लक्ष्मण गायकवाड़ ने कमाल का भाषण दिया। यहाँ तक कह डाला कि उन्हें पुरस्कृत करने के पीछे भी सवर्णों की कोई चाल रही हो। यह संस्मरण उन्होंने बड़े चाव से सुनाया और हिंदी में दलित लेखकों की एकजुटता की सराहना की। इसी संदर्भ में मैंने भी कह दिया कि “सर आप ही बताएँ किसी भी पिछड़े या दलित लेखक पर आज तक आपने कोई किताब लिखी?” उन्होंने उस समय तो कुछ नहीं कहा। दो-तीन दिन बाद उनका फोन आया। कहने लगे, “अरुण जी आपने बात तो बहुत गंभीर कही है किसी ने मुझसे आज तक इस तरह का सवाल नहीं किया। मैं कई दिन इस पर सोचता रहा।” फिर उन्होंने कहा, “आप बताएँ पिछड़े—दलित समुदाय में कौन-कौन ऐसे लेखक हैं जिन पर लिखा जाए।” उनके इस प्रश्न से क्षण भर के लिए मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया लेकिन अगले ही पल मैं कह रहा था “रेणु जी पर आपके द्वारा किसी किताब की दरकार नहीं है? अनूपलाल मंडल पर कभी आपने एकाध पंक्ति भी लिखी?” उन्होंने और लेखकों के बारे में पूछा तो हमने कहा कि समकालीन लेखन में दर्जनों नाम ऐसे नाम हैं जिनमें भगवानदास मोरवाल आदि मुख्य हैं। उस समय बात खत्म हो गई लेकिन बाद में उन्होंने कई बार कहा कि अपने अधूरे पड़े काम के बाद वे रेणु पर किताब लिखेंगे। इधर के दिनों में अपने किए गए कामों को वे तेजी से पुस्तक रूप देने में लगे थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि अभी वे 10 साल और जीऐंगे और अपने अब तक के कामों को समेटने के बाद समाज के बहुसंख्यक समाज को एडरेस करने वाले मुद्दे पर एकाग्र होंगे। विमल जी के हिंदी के कुछ लेखकों पर लिखे संस्मरण पढऩे लायक हैं खासकर नलिन विलोचन शर्मा, अज्ञेय, रेणु, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और शिवपूजन सहाय पर लिखे उनके संस्मरण। इनमें आप इन शख्सियतों के जीवन एवं लेखन के कई अनछुए पक्ष पहली बार पाएँगे। इसी तरह उनके निबंधों और शोधपूर्ण लेखों में भी वे हिंदी में अपनी एक खास पहचान के साथ सामने आते हैं। हिंदी की पॉपुलर कृतियों ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘अंधायुग’ आदि कृतियों पर लिखी उनकी आलोचनाएँ भी महत्वपूर्ण हैं।

लंबे समय तक विभिन्न सरकारी पदों पर रहने वाले विमल जी जिस व्यक्ति से मिलते, उसी की सोच के अनुकूल अभिनय करते थे। अगर कोई वामपंथी उनके पास है तो वे वामपंथी हो जाते और दक्षिणपंथी है तो दक्षिणमार्गी और कोई अगर उनका स्वजातीय है उसके जातीय दायरे में ही बातचीत करते। एक लेखक के रूप में यह उनका दुर्गुण था लेकिन अपने पूरे लेखन में उनका स्टैंड एक लेफ्ट ओरिएंटिड लेखक का ही रहा।

व्यक्तिवाद विमल जी पर कुछ ज्यादा ही हावी था। दुनिया-भर की बात करेंगे लेकिन बहुत कम ऐसा होगा जब अपने घर-परिवार के बारे में बात करेंगे। उनके घर जाने वाले को कभी लगता ही नहीं था कि वे अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। घर परिवार के बारे में उनकी यह चुप्पी पता नहीं क्यों रहती थी। उनके पूरे व्यक्तित्व के बारे में संक्षेप में कहना हो तो वे बहुत ही कैलकुलेटिव और निहायत ही वैयक्तिक किस्म के इनसान थे लेकिन लिखने-पढऩे को लेकर बहुत ही सजग और संवेदनशील थे। कभी गुस्से से भी होते तो उसको प्रकट करने का उनका टोन बहुत माइल्ड होता था।

विमल जी की रचनात्मक उपलब्धियों कर दायरा साहित्य, संस्कृति, राजनीति एवं समाज के कई जरूरी मुद्दों तक फैला हुआ था। उन्होंने जीवन और व्यवहार, अकादमिक और सबॉल्टर्न हर तरह से अपनी रचनात्मक धार को पिंजाया था। बिहार, हिंदुस्तान समेत तीसरी दुनिया का देश, समाज वर्तमान में जिन आंदोलनों और उहापोह में है इस पर उनकी बारीक नजर थी। अंबेडकर, सामाजिक न्याय, सबाल्टर्न इतिहास आदि के विषयों की ओर विमल जी का ध्यान बहुत बाद में गया। अपने अंतिम समय में उन्हें इसका इलहाम था कि उन्हें ऐसे विषयों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। इन विषयों पर इधर के दिनों में उन्होंने लिखना शुरू भी किया था। उनके जाने से दलितबहुजन साहित्य और वैचारिक जगत को इस कारण और भी अधिक नुकसान हुआ है।

पुनश्च, गत 18 दिसंबर को हिंदी के मुर्धन्य कवि आदम गोंडवी का निधन हो गया। पिछड़े समाज से आने वाले गोंडवी कबीर की पंरपरा के कवि थे। उन्हें भी विनम्र श्रद्धांजलि।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी 2012 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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