आज दलित-बहुजन मीडिया की पहुंच मध्यम वर्ग तक होने लगी है और इसकी मेनस्ट्रीमिंग भी हो रही है। यही वह सही समय है जब फारवर्ड प्रेस जैसी एक वैचारिक पक्ष रखने वाली पत्रिका का होना काफी महत्वपूर्ण बन जाता है। अभी भले ही फारवर्ड प्रेस लघु पत्रिका के रूप में दिख रही हो। लेकिन आने वाले समय में मुख्यधारा को भी बदलने को मजबूर करेगी और मुख्यधारा में दिखेगी भी।
यह कैसे किया जाए, एक बड़ा सवाल है। इंटरनेट के माध्यम से और ऐसे माध्यम जो इसको बड़े पाठक वर्ग तक ले जा सकते हैं इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। अब जब यह पत्रिका अपने अगले पड़ाव में जाने के लिए शायद तैयार है तो इसका विश्वविद्यालयों से जुडऩा जरूरी है, क्योंकि ज्ञान के सबसे बड़े केंद्र वहीं है। वहां तक ऐसे विचारों को पहुंचना चाहिए इस पत्रिका के जरिए। वहां के छात्र इसको पढ़े, वहां की फैकल्टी जाने और वहां सेमिनार हों। वहां के स्टॉल पर रखी जाए। पुस्तकालय के सेल्फ में रखने की जहां तक लड़ाई है इसके बाद वो लड़ाई है। एकेडमिक के हिस्से के रूप में यह तब आता है जब ये भाव जागृत हो जाते हैं। जब विचार खड़ा हो जाता है तब वह एकेडमिक्स का हिस्सा भी बन जाता है, तो इसका विश्वविद्यालयों के साथ संबंध होना चाहिए।
इंटरनेट पर इस पत्रिका को ज्यादा होना चाहिए। गूगल सर्च में यदि कोई फुले के बारे में कुछ सर्च कर रहा है तो फारवर्ड प्रेस के कम से कम दो-तीन लेख आ जाने चाहिए। अब लोग सूचना और ज्ञान दूसरे तरीके से लेने लगे हैं तो ये कोशिश भी होनी चाहिए कि किस तरह से इसको इंटरनेट फ्रेंडली बनाया जाए। कहीं भी यदि कुछ सर्च हो रहा है तो इसके अंदर ये दिखना चाहिए। जैसे अमेरिका में कोई किसी विश्वविद्यालय में इस पर कुछ रिसर्च करना चाहता है तो उसके अंदर ये दिखना चाहिए। ये बड़ा काम है, पिछले सारे पीडीएफ डालना, लेकिन सारे काम किए जाने चाहिए। इसमें हम सब लोग कैसे मदद कर सकते हैं यह एक साझी चुनौती है। यह पत्रिका ऐतिहासिक चीजों को सहेज रही है। दरअसल समाज में जो चीजें हो रही हैं वह इस पत्रिका में दिख रहा है। इंटरनेट एक सस्ता माध्यम है और यदि फारवर्ड प्रेस पर इसके 5 से 10 लाख शब्द नेट पर हैं तो उसका मतलब होता है कि और वो होने चाहिए।
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)