यह संयोग ही था कि फॉरवर्ड प्रेस में अशोक कुमार भगवान भाई परमार की तस्वीर गुजरात 2002 के दंगाई के तौर पर छपने के कुछ दिनों बाद केरल के तिरुची में सीपीएम के मंच से एक किताब के लोकार्पण के दौरान अशोक से मेरी मुलाकात हो गई। वहां भी उनका परिचय दंगाई के रूप में दिया गया। वैसे फॉरवर्ड प्रेस के मार्च 2014 अंक में अशोक कुमार की तस्वीर जॉन दयाल के लेख ‘हाशिए से घोषणापत्र’ के साथ इस्तेमाल हुई थी लेकिन उनकी तस्वीर दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में भी छपती रही है। शायद इसे एक समुदाय का जिसका मीडिया पर आधिपत्य है पूर्वाग्रह समझा जा सकता है लेकिन इस जाल में जब फॉरवर्ड प्रेस भी आ गई तो चिन्तित होना लाजिमी है।
वास्तव में अशोक का कसूर सिर्फ इतना था कि वह एक बड़े फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा को पोज देने को तैयार हो गया था और उसे इसका खामियाजा बार-बार लगातार भुगतना पड़ा। अभी हाल में कुतबुद्दीन पर आई किताब के लोकार्पण के बाद अखबारों में छपी प्रेस रिलीज से तैयार खबरों में भी। इन ख़बरों में उन्हें अशोक मोची बताया गया। किस मानसिकता के चलते तमाम अखबार और पत्रिकाएं अशोक भाई को अशोक मोची लिखती रहीं यह बताने की जरूरत नहीं है।
किताब के लोकार्पण की खबर कुछ इस तरह से लिखी गई मानो यह अशोक और कुतुबुद्दीन, कुतुबुद्दीन दंगा पीडि़त है और गोधरा के बाद मीडिया में हाथ जोड़े और आंखों में आंसू लिए जिंदगी की भीख मांगते हुए व्यक्ति की जो तस्वीर जारी की गई थी वह कुतुबद्दीन की ही थी। यह भ्रम फैलाने की कोशिश भी की गई कि अशोक ने गुजरात 2002 में कोई बड़ा अपराध किया था जिसके लिए उन्हें पछतावा है। सबसे पहले अखबारवालों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अशोक ने यह स्वीकार किया है कि वह गुजरात 2002 का अपराधी है और वह आगजनी और हत्या में शामिल था। यदि वह इन बातों को स्वीकार नहीं कर रहा है तो फि र वह माँफी किसलिए मांग रहा है। क्या वह गुजरात के साम्प्रदायिक हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करता है, क्या वह गुजरात सरकार में किसी महत्वपूर्ण पद पर है।
जहां तक बात पहली बार मिलने की है तो उनकी पहली मुलाकात तिरुची में नहीं हुई थी। पहली बार दोनों की मुलाकात राकेश शर्मा की फिल्म ‘फाइनल सॉल्यूशन’ के सेट पर हुई थी। उसके बाद एक-दो बार कुतुबुद्दीन अशोक की दुकान पर आए भी हैं। लेकिन किताब के लोकार्पण पर कुछ इस तरह से उन्हें पेश किया गया मानो वे पहली बार मिल रहे हों। अखबारों ने धड़ल्ले से अशोक को बजरंग दल का सदस्य बताया। जबकि सच्चाई यह है कि अशोक बाबासाहेब भीमराव आबेडकर का अनुयायी है और उनके स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों पर उसका गहरा यकीन है। पिछले दिनों जब मैं अहमदाबाद गया तो मेरी मुलाकात अशोक से हुई। अशोक पिछले 20 सालों से शाहपुर रोड पर जूते सिलने और पॉलिश करने का काम कर रहे हैं। वे चाल में रहते हैं, मोबाइल नहीं रखते। भाई से रिश्ता बिगड़ा तो पुश्तैनी मकान छोड़कर सड़क पर आ गए। चाहते तो भाई से जायदाद के लिए लड़ सकते थे लेकिन उन्हें यह ठीक नहीं लगा।
दंगों के साल 2002 में अशोक सड़क पर अपनी दुकान से कुछ दूर एक चादर बिछाकर सोते थे और होटल में खाना खाते थे। जीवन में एक बार प्रेम हुआ था। प्रेम सफ ल नहीं रहा तो उसके बाद शादी का विचार त्याग दिया। शादी नहीं करने की एक वजह आर्थिक स्थिति भी है। यदि किसी लड़की को घर में लाएंगे तो उसके सपने भी साथ-साथ घर में दाखिल होंगे। यदि सपने पूरे करने की हैसियत नहीं हो तो शादी करके किसी की जिंदगी क्यों नरक बनाना। शाहपुर रोड के आसपास स्थित मुस्लिम मोहल्लों के लोग अशोक को जानते थे। वे आज भी अशोक के ग्राहक हैं। लेकिन मीडिया के लिए अशोक मानो बजरंग दल के एक बड़े नेता थे। तस्वीर की वजह से वे लोग भी अशोक से नफरत करने लगे, जो उन्हें जानते तक नहीं थे। दंगों के दो-तीन महीने बाद ही उन पर अज्ञात हमलावरों ने जानलेवा हमला किया। उन पर गोली चली। अशोक ने हमलावरों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं किया। बकौल अशोक, हमलावर मुझे गुजरात दंगों में मुसलमानों का कातिल समझ रहे हैं। मैं जानता हूं कि जब उन्हें सच्चाई पता चलेगी तब उन्हें अपने किए पर पछतावा होगा।
परमार कहते हैं, ‘मुझे न तो बजरंग दल से मतलब है और ना भाजपा से और ना ही कभी था। मेरा एक भी दोस्त या रिश्तेदार बजरंग दल या भाजपा में नहीं है। दंगों के दौरान जब मुझे लगा कि मेरे मुसलमान पड़ोसी खतरे में हैं तो मैंने उनकी मदद की। मैंने पांच परिवारों को उनके रिश्तेदारों के घर पहुंचाने में मदद की जहां वे ज्यादा सुरक्षित थे।’
अशोक से मैंने जानना चाहा कि उनकी आक्रामक तस्वीर आई कैसे। गोधरा कांड के अगले दिन गुजरात में आक्रोश चरम पर था। अहमदाबाद में भी उसका असर दिख रहा था। लेकिन किसी को अंदाजा नहीं था कि तोड़-फोड़ इतने भयानक साम्प्रदायिक दंगों में बदल जाएगी। जिस दिन अशोक की तस्वीर ली गई थी उसके एक दिन पहले गोधरा कांड हुआ था। अगले दिन विश्व हिन्दू परिषद् ने बंद का आह्वान किया था। अशोक
ने अखबार में पढ़ा था सो उसने अपनी दुकान बंद कर दी थी। वे अपने पड़ोस में नजीर भाई के गैराज में बैठे थे। दस-साढ़े दस बजे हो-हल्ला शुरू हो गया। दुकानें तोड़ी जाने लगीं। अशोक चूंकि नजीर भाई की दुकान में बैठे थे सो वे घेर लिए गए।
उन्होंने बड़ी मिन्नतें की और मुश्किल से समझा पाए कि वे एक हिन्दू हैं। अशोक को पूरे दिन सड़क पर रहना था। अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी की वजह से वे मुसलमान लग रहे थे। उस वक्त गर्दन बचाने के लिए उन्हें सिर पर भगवा कपड़ा बांधना बेहतर विकल्प लगा। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक अहमदाबाद की सड़कों पर भीड़ उग्र हो गई। तब उन्होंने चाल की तरफ भागना बेहतर समझा।
भीड़ से निकलते हुए एएफ पी के प्रसिद्ध फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा की नजर अशोक पर गई। सब्सटीन बाद में ‘मुंबई मिरर’ में काम करने लगे और उन्होंने अजमल कसाब की चर्चित फोटो ली थी। डिसूजा ने अशोक से पूछा-‘गोधरा में जो हुआ उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया है।’ अशोक ने उन्हें जवाब दिया-‘गोधरा में जो हुआ वह गलत है लेकिन अब जो पब्लिक कर रही है वह भी सही नहीं है।’ अशोक ने यह भी कहा कि गोधरा में जो मुसलमानों ने किया वह इस्लाम की सीख नहीं है और अहमदाबाद में जो हिन्दू कर रहे हैं वह हिन्दू धर्म नहीं सिखलाता।
डिसूजा शायद गोधरा के प्रति हिन्दुओं के गुस्से को प्रदर्शित करना चाहते थे। परमार बताते हैं, ‘वे दूर से मेरी तस्वीर लेना चाहते थे। मैंने उनसे कहा की वे नजदीक से मेरी फोटो लें। मैं अपना गुस्सा अपने चेहरे पर प्रदर्शित करूंगा।’ और इस तरह उनकी वह फोटो ले ली गई, जिसमें वे माथे पर भगवा कपड़ा बांधे हुए हैं और उनके हाथों में एक डंडा है जिसे उन्होंने सड़क से उठाया था। भगवा साफा आत्मरक्षा के लिए था और लाठी उन हिन्दुओं को भगाने के लिए जो उनके मुसलमान पड़ोसियों को मारने के लिए आए थे। परंतु दुनिया के लिए वे बदला लेने को आतुर खून के ह्रश्वयासे व्यक्ति के प्रतीक बन
गए।
अशोक कहते हैं, ‘मैं इंसान हूं। किसी की जान जाते हुए देखकर मेरा दिल भी रोता है। आज मुझे पूरी दुनिया में एक खलनायक बना दिया गया है। मेरे सिर वह गुनाह लिख दिया गया जो मैंने किया ही नहीं।’ वे कहते हैं, ‘मुझ पर यकीन करने की जरूरत नहीं है। आप आसपास के मुस्लिम मोहल्ले में जाकर बात कीजिए। आपको इस बात की जानकारी हो जाएगी।’ अशोक ने कहा कि यदि उन्हें पता होता कि दंगे इतने फैल जाएंगे तो वे अपनी तस्वीर नहीं देते। 22 फ रवरी की सुबह तक हालात इतने नहीं बिगड़े थे और ना तस्वीर देते समय उन्हें अंदाजा था कि इतना खून-खराबा होगा।
बहरहाल, अशोक तो पिछले 12 सालों से उस गुनाह की सजा भुगत रहे हैं जिसके लिए उन्हें किसी न्यायालय ने दोषी नहीं ठहराया। अब समय आ गया है कि गुजरात 2002 के दंगों के हिन्दुत्ववादी चेहरे का सच दुनिया जाने।
(फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)
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