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जनसंघ के किसी नेता ने नहीं किया था ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े जाने का विरोध : सिद्दीकी

1976 में जब 42वां संविधान संशोधन हुआ तब चाहे वे अटलबिहारी वाजपेयी रहे या फिर आडवाणी या अन्य बड़े नेता, किसी के मुंह से हमने नहीं सुना कि संविधान के इन दो पायों – ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ को गिरा दो। पढ़ें, राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी से यह साक्षात्कार

सन् 1977 में सबसे युवा विधायकों में से एक अब्दुल बारी सिद्दीकी की पहचान बिहार में समाजवादी आंदोलन के साक्षी के रूप में रही है। 1980 में चुनाव हारने के बाद उन्होंने भूतपूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के सहायक के रूप में काम किया। बाद में वे बिहार सरकार में कई बार मंत्री बनाए गए। वर्तमान में वे बिहार विधान परिषद में मुख्य विपक्षी दल राजद के मुख्य सचेतक हैं। प्रस्तुत है उनसे साक्षात्कार का संपादित अंश

आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा है कि संविधान की प्रस्तावन में बयालिसवें संशोधन के दौरान जोड़े गए दो शब्द – धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी – को हटा दिया जाना चाहिए। इस पर आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?

ऐसा है कि एक तरह से संविधान चार बुनियादी मूल्यों पर आधारित है। इन्हें आधार स्तंभ मानिए। एक तो यह कि हमारा मुल्क सार्वभौम मुल्क होगा। सोवरनिटी यानी संप्रभुता बनी रहेगी। दूसरा है कि हमारा मुल्क डेमोक्रेटिक होगा। मतलब हमारा देश लोकतांत्रिक बना रहेगा। तीसरा, हमारा मुल्क सेकुलर होगा। और चौथा, सोशलिस्ट होगा। ये चार मुख्य स्तंभ हैं हमारे संविधान के। इन्हें चाहे आज जोड़ा जाए या कल जोड़ा जाए। मगर मूल बात यह है कि इन चारों के बिना संविधान बेकार है। इस देश की जो स्थिति है, परिस्थिति है और जो बनावट है, उसके लिहाज से हमारा संविधान सबसे अच्छा संविधान है। इस देश की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। विभिन्न धर्म के लोगों में मिलना-जुलना होता है। हमारे त्यौहार एक दूसरे में मिला-जुला है। और जो विभिन्न धर्म के लोग हैं, बेशक उनकी अपनी-अपनी संस्कृति है, लेकिन सत्य तो यही है कि सभी धर्मों के लोगों ने एकताबद्ध होकर, एकजुट होकर इस मुल्क को आजाद कराया। जो लोग मुल्क की आजादी की लड़ाई में थे ही नहीं, अंग्रेजों के साथ थे, उनके साथ मिलकर गद्दारी करते थे, वे आज संविधान के पायों (स्तंभों) को गिराना चाहते हैं।

जब बयालिसवां संशोधन किया गया तब 1976 का इमरजेंसी का दौर था और आरएसएस का तर्क है कि चूंकि यह इमरजेंसी में किया गया था, इसलिए इसको हटा देना चाहिए।

देखिए, इमरजेंसी हटे कितने साल हो गए। 1977 के बाद अभी 2025 चल रहा है। करीब पचास साल तो बीत ही गए। इस दौरान भाजपा वाले सरकार में भी आए। वे तो राजनीति उस वक्त से ही कर रहे थे। अब जगे हैं? इतने दिन सोए थे क्या? इसके पहले जब वे सरकार में थे तब उस वक्त क्यों नहीं चर्चा की कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटा दिया जाए?

दूसरी बात यह है कि उनका जो एजेंडा है, वह तो भेदभाव वाला एजेंडा है। अभी धार्मिक भेदभाव, सामाजिक भेदभाव और भी कई तरह के भेदभाव ही उनकी राजनीति के वैचारिक आधार हैं। आप यह भी देखिए कि इस बार केंद्र में भाजपा की सरकार है, मगर पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं है। अगर इन्हें पूर्ण बहुमत मिल जाए तो जो इनकी कल्पना है हिंदू राष्ट्र की, उसे अमल में ले आएंगे और भारत को हिंदू राष्ट्र बना देंगे।

अब्दुल बारी सिद्दीकी, मुख्य सचेतक, बिहार विधान परिषद, राजद

1976 में जब 42वां संविधान संशोधन हुआ तब उस समय आप राजनीति में सक्रिय थे। उस समय के नेताओं की प्रतिक्रिया क्या थी?

उस वक्त किसी ने इसका विरोध नहीं किया। जितना मुझे याद है, भारतीय जनता पार्टी के जितने भी बड़े लीडर रहे, चाहे वे अटलबिहारी वाजपेयी रहे या फिर आडवाणी या अन्य बड़े नेता, किसी के मुंह से हमने नहीं सुना कि संविधान के इन दो पायों को गिरा दो।

मतलब आप ये कह रहे हैं कि जब यह संशोधन किया गया तब जनसंघ (1980 में भाजपा बनी) के बड़े नेता इस संशोधन के पक्ष में थे?

उस समय संसदीय राजनीति की मुझे बहुत ज्यादा समझ नहीं थी। हमलोग आंदोलन में थे। 1974 में जेल में था। ज्यादातर अंडरग्राउंड रहा करता था। आंदोलन के लिए काम किया करते था। उस वक्त इतना हम नहीं समझते थे। मगर आंदोलन में जयप्रकाश नारायण हमलोगों के नेता थे। जननायक कर्पूरी ठाकुर हमलोगों के नेता थे। इन लोगों के मुंह से कभी यह नहीं सुना कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में न रहे।

मतलब यह कि समाजवादी नेताओं ने भी तब 42वें संशोधन का विरोध नहीं किया?

हां, अच्छा यह बताइए कि इनमें बुरा क्या है। मतलब दो शब्द जो जोड़े गए कि मुल्क धर्मनिरपेक्ष रहेगा तो इसका मतलब यही हुआ कि किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। ये [आरएसएस-भाजपा] के लोग भेदभाव करना चाहते हैं। आज मुसलमानों के साथ करेंगे। कल ईसाइयों के साथ करेंगे। परसों सिक्खों के साथ करेंगे। फिर बौद्ध और जैनों के साथ करेंगे। बौद्ध और जैन धर्म पर तो उन्होंने कब्जा ही कर लिया है। उनके मठ-मंदिरों को हिंदू मंदिर बताकर कब्जा कर चुके हैं। तो आरएसएस की तो यही फिलॉसोफी पहले से रही है।

इसके पहले आरएसएस ने संविधान प्रदत्त आरक्षण पर सवाल उठाया था तब भाजपा को काफी नुकसान हुआ। बाद में मोहन भागवत ने अपने बयान को वापस भी लिया। एक बार फिर देखा जा रहा है कि वे संविधान पर हमला बोल रहे हैं। क्या इसके केंद्र में सिर्फ बिहार की राजनीति है या फिर राष्ट्रीय स्तर पर कुछ बड़ा करना चाहते हैं?

आप ऐसे समझिए कि 1977 में वे लोग सरकार में शामिल थे। जननायक कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे। और उस वक्त उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था की थी, मुझे लगता है कि उससे ज्यादा व्यावहारिक और साइंटिफिक नहीं हो सकता। उन्होंने 12 प्रतिशत आरक्षण अनेक्सर-1 के लिए प्रावधान किया था, जिसमें सभी अति पिछड़े शामिल थे। आठ प्रतिशत आरक्षण उन्होंने अनेक्सर-2 के लिए किया था, जिसमें ओबीसी की अपेक्षाकृत समृद्ध जातियां शामिल थीं। तीन प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को दिया गया था। और तीन प्रतिशत आरक्षण गरीब सवर्णों के लिए था। तब उस वक्त भी इनलोगों [आरएसएस-भाजपा] ने कर्पूरी जी की सरकार को गिराया। और वे कर्पूरी ठाकुर जी को उस वक्त गाली दिया करते थे कि– “आरक्षण की नीति कहां से आई, डॉट डॉट”। इसके आगे की पंक्ति हम नहीं बोलना चाहते हैं। तो आरएसएस-भाजपा की राजनीति दोहरे मापदंड वाली है। जब जरूरत पड़ेगी तो पांव पकड़ लेंगे, दाढ़ी पकड़ लेंगे और जब काम निकल गया तो लात मार देंगे।

तो आज आरएसएस को आपका जवाब क्या होगा?

मैं तो उनसे यही कहना चाहता हूं कि– “हिंदी हैं हम वतन है, हिंदुस्तां है हमारा”। हम भी इसी हिंदुस्तान में पैदा हुए हैं। इसी हिंदुस्तान के लिए जिएंगे, मरेंगे और इसी के लिए सब कुछ करेंगे। अगर किसी को भ्रम है तो अपना भ्रम दूर कर ले। हमारे दादा, परदादा, छरदादा सात पुश्त या इससे भी पहले से हम लोग रहे हैं इस मुल्क में। इसकी मिट्टी में हमारे पुरखों का खून और अस्थियां हैं। इसको हम कभी नहीं छोड़ेंगे। और उन्हें याद रखना चाहिए कि जब भी हमारे इस मुल्क में किसी तरह की आफत आती है तो उनसे आगे हम खड़े हैं।

एक सवाल बिहार की राजनीति को लेकर है। देखा जा रहा है कि पसमांदा मुसलमान राजनीति के केंद्र में आते जा रहे हैं। क्या राजद अपने संगठन में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए अपने दरवाजे खोलेगी?

ऐसा है कि आज भाजपा ने सभी मुसलमानों की स्थिति एक जैसी बना दी है। उसके निशाने पर केवल अशराफ ही नहीं, पसमांदा मुसलमान भी हैं। फिर भी पसमांदा मुसलमानों के लिए जो कुछ भी विशेष रूप से किया जाना चाहिए, उसके लिए हमारी पार्टी और हमारे नेताओं ने व्यवस्था की है। हम इसकी मुखालफत कभी नहीं करते। मैं तो कहता हूं कि जो लोग पीछे छूट गए हैं, उन्हें विशेष अवसर मिलना ही चाहिए। जब जननायक कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी तब अनेक्सर-1 में पसमांदा मुसलमानों को शामिल किया गया, उन्हें आरक्षण दिया गया। हम तो इसमें विश्वास रखने वाले लोग हैं। हमलोगों ने कभी विरोध नहीं किया। और अगर कोई विरोध करता है तो उसमें समझदारी की कमी है। और वर्तमान में देखिए कि यदि भाजपा हुकूमत में रही तो जो तथाकथित ऊंची जाति के मुसलमान हैं, उनकी स्थिति भी पसमांदा मुसलमानों जैसी हो जाएगी।

आखिरी सवाल है कि बिहार में चुनाव होने हैं और अभी तक ‘इंडिया’ गठबंधन के शीर्ष नेता एक मंच पर नजर नहीं आ पा रहे हैं। क्या कारण है?

हो जाएगा। देर आएंगे दुरुस्त आएंगे। गठबंधन तो बन ही गया है। गठबंधन के घटक दलों के बीच बैठकें हो रही हैं। यहां उसकी मीटिंग चल रही है। गठबंधन की कई कमेटियां हैं, उनकी बैठक चल रही है। सीटों के बंटवारे को लेकर भी जल्द ही सभी की सहमति बन जाएगी।

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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