कोई भी विमर्श हवा में नहीं उठ खड़ा होता है, उसके जन्म लेने के पीछे कारण होते हैं। जैसे कि, हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति आन्दोलन या फिर प्रगतिशील आन्दोलन का उदय। उनके लिए परिस्थितियां पहले से ही जन्म ले रही होती हैं। आज हिन्दी साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं तो इसके पीछे सदियों के शोषण का इतिहास है और प्रतिरोध की इस आवाज ने उत्पीडऩ की दास्तान को केन्द्र में ला खड़ा किया है, जिसे अब तक मुख्यधारा के साहित्य ने अनदेखा किया था।
दलित स्त्री विमर्श भी इसी का एक अहम् हिस्सा है, जिसकी सवर्ण साहित्य का स्त्री विमर्श और दलित पुरुषों का दलित विमर्श भी एक तरह से अनदेखी कर रहा था। हिन्दी साहित्य के इतिहास में दलितों, स्त्रियों एवं आदिवासियों के अमूल्य योगदान-सब पर एक चुह्रश्वपी छाई हुई थी। इस अनुपस्थिति और अपने अस्तित्व, अस्मिता और श्रम का अवमूल्यन होते देख आज सचेत दलितों, स्त्रियों तथा आदिवासियों ने साहित्य में अपनी उपस्थिति और स्थान के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि दलितों में दलित यानी दलित स्त्री भी समाज और साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करने के लिए आंदोलन कर रही है। दलित महिलाएं अपनी लेखनी के माध्यम से अपने मुद्दों को साहित्य के केन्द्र में ला रही हैं।
दलित स्त्री आन्दोलन और उसके मुद्दों को लेकर जो सशक्त और क्रांतिकारी लेखन किया जा रहा है उसमें अनिता भारती का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। अभी हाल में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध’ सवर्ण स्त्री और पुरुष लेखन के साथ-साथ सामान्य दलित लेखन का एक जोरदार और क्रांतिकारी प्रतिकार है, यह उस साहित्य और लेखन की तरफ भी हमारा ध्यान आकर्षित करती है, जिसमें अभी तक दलित स्त्री के प्रश्न, मुद्दे और उसकी अस्मिता तथा अस्तित्व एक सिरे से नदारद था। यह पुस्तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती है, भले ही वह सवर्ण पुरुष की हो या फिर दलित पुरुष की। दलित साहित्य में जिस तरह की राजनीति और गुटबाजी मनुवादी दलित पनपा रहे हैं उनके खिलाफ भी यह पुस्तक समस्त दलित स्त्री समाज को लामबद्ध करती है और कहती है हमें अब ऐसे मनुवादियों से सजग रहने के साथ-साथ उन्हें जवाब भी देना होगा।
अगर हम मान भी लें कि स्त्रियां आजाद हैं तो वो कौन सी स्त्रियां हैं? क्या समूचा स्त्री वर्ग स्वतंत्र और बेखौफ है? उत्तर साफ है, नहीं। दलितों में दलित माने जाने वाला तबका है दलित स्त्री समाज, जिसे अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता नहीं है। अगर वो निडर होकर अपनी बात जनता के समक्ष रखती हैं तो परिणाम क्या होता है-उन्हें सरेआम बेइज्जत किया जाता है, उनसे बलात्कार किया जाता है, उन्हें प्रताडऩाएं सहनी पड़ती हैं और उन्हें धमकियां सुननी पड़ती हैं। जब अनिता भारती जैसी ईमानदार और साहसी दलित लेखिका की पुस्तक आती है तब उन्हें भी धमकियां दी जाती हैं। सबसे हैरानी कि बात तो यह है कि यह न सिर्फ गैर-दलित लेखकों की धमकियां होती हैं बल्कि इनमें धर्मवीर जैसे तथाकथित दलित चिंतक भी शामिल होते हैं। हकीकत तो यह है कि सवर्ण पुरुष लेखन हो या स्त्री लेखन या फिर सामान्य दलित लेखन, सबने उसे छला है। वोट की राजनीति कर रहे ये लेखक केवल सहानुभूति जता के आम दलित जनता के हाथों में झुनझुना पकड़ा देना चाहते हैं कि तुम झुनझुना बजाते रहो बाकी पूरे साहित्य और देश की कमान हम संभाल लेंगे। हम लिखेंगे तुम्हारा साहित्य। तुम्हारे दुख, पीड़ा, अपमान सबको साहित्य में हम जगह देंगे। अनिता भारती की यह पुस्तक यहीं महत्वपूर्ण हो जाती है और हमें आगाह करती है कि दलित स्त्री समाज को इस साजिश को समझना होगा। ऐसे सवर्ण मनुवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को धराशायी करना होगा जो बाबासाहेब अंबेडकर के सपनों और उनके उद्देश्यों पर पानी फेरना चाहते हैं। दलित स्त्री विमर्श सबको समग्रता में लेकर चलता है। अनिता भारती का लेखन समस्त दलित लेखन और दलित स्त्री लेखन के लिए एक बीजमंत्र है जो समाज में चाहे पिछड़े हों, शोषित-दलित हों सबको साथ लेकर चलने के लिए प्रतिबद्ध है।
पुस्तक : समकालीन नारीवाद और दलित
स्त्री का प्रतिरोध
लेखक : अनिता भारती
प्रकाशक : स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली
पेज : ३२५
(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)
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प्रियंका जी आपका लेख पढकर अच्छा लगा . अच्छा लिखा है आपने . बस मेरे कुछ प्रश्न हैं आपसे . आपने दो -तीन जगह ये बात कही है कि स्त्री दलित साहित्य मुख्यधारा से अलग था , उन्हें साहित्य जगत से भी अलग रखा गया था या उनके साथ भेदभाव किया जा रहा था. ये जो था है क्या अब नहीं है ये परिस्थितियाँ ? क्या दलित स्त्री लेखिकाओं के साथ भेदभाव अब नहीं किया जा रहा? या उनका शोषण नहीं किया जा रहा है ? हो रहा है और अभी बहुत समय लगेगा दलित स्त्री रचनाकारों को अपने संघर्ष को पूरे मुकाम तक पहुँचाने में . दूसरा सवाल ये जो अम्बेडकर को सिर्फ दलितों से जोड़कर देखने की राजनीति लोग करते हैं मुझे लगता है सही मायनोंं में लोगों ने उनको ठीक से पढा ही नहीं . अम्बेडकर सिर्फ दलितों के मसीहा नहीं थे उन्होंने सवर्ण जाति में जो कमज़ोर तबका था उनके हक के लिये भी लड़ाई लड़ी. उन्हें भी उचित अधिकार मिलने चाहिये इसका प्रस्ताव रखा , सवर्ण स्त्रियों की चिंताजनक स्थिति को देखा था. कह सकते हैं कि ‘हिंदू कोड बिल’ इसका एक अच्छा उदाहरण है . आपके लेख से दलित स्त्री लेखिकाओं का इतिहास गायब है . उनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या रहा , आरंभ कहाँ से, किस सदी से हुई ये थोडा विस्तार की माँग करता है, पाठक वर्ग के लिये. बाकी आपकी भाषा अच्छी है . बधाई .