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फॉरवर्ड थिंकिंग, सितम्बर 2014

आज हमें यदि यह पता लगाना हो कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा कहां होगी तो हमें केवल यह देखना होगा कि चुनाव कहां होने वाले हैं। 'फालो द पोल्स' की नीति अपनाने से हम यह जान सकेंगे कि देश के किस हिस्से में बहुसंख्यकों के वोटों की खातिर दंगे करवाए जाएंगे

अपने पिछले संपादकीय में मैंने लिखा था कि ‘इतिहास के ब्राह्मणवादी लेखन व पुनर्लेखन का काम लगातार जारी है।’मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि यह संपादकीय, पिछले की अगली कड़ी होगा। इतिहास व शिक्षा का भगवाकरण, एनडीए-1 का सर्वोच्च एजेंडा था। हमें कोई आश्चर्य नहीं होता यदि एनडीए-2, संघ केइसी एजेंडे को आगे बढ़ाता। हमें आश्चर्य है भी नहीं। परंतु जिस हड़बड़ाहट में आरएसएस के अनुषांगिक संगठन और मोदी सरकार इस काम में जुट गए हैं, वह सचमुच विस्मयकारी है।

आरएसएस-भाजपा शासन में भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन एक घरेलू उद्योग बन गया है। जब मैं यह संपादकीय लिख रहा था, तभी यह खबर आई कि सन् 2025 में अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने के समारोह की तैयारी के भाग के रूप में, आरएसएस ने पुराणों के आधार पर इतिहास को फिर से लिखने की दस-वर्षीय परियोजना शुरू की है। ‘इतिहास केवल इतिहास है और भारत के इतिहास का मुख्य स्रोत पुराण है’, संघ से जुड़ी ‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ के संगठन सचिव ने फरमाया। अगर संघ के इतिहासविद्, पुराणों को परम सत्य मानते हैं तो केवल ईश्वर ही हमारी मदद कर सकता है!

इस बार की हमारी आवरण कथा के लेखक राम पुनियानी हैं। पिछले कई वर्षों से वे हमारे गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बचाने के लिए और संघ परिवार की बहुसंख्यकवादी नीतियों के विरुद्ध अथक संघर्ष कर रहे हैं। आवरण कथा की सीमाओं के अंदर रहते हुए वे संघ परिवार के नए, उभरते एजेंडे की रूपरेखा बताते हैं, जिसका अंतिम लक्ष्य, भारत का सामाजिक और सांस्कृतिक रूपांतरण है।

इस बीच, भाजपा, भारत के राजनीतिक नक्शे को बदलने में जुटी है। एक अमेरिकन कहावत है ‘फालो द मनी’ अर्थात, कोई काम किसने किया है, यह जानने का सबसे अच्छा तरीका यह पता लगाना है कि उससे किसे आर्थिक लाभ हुआ है। आज हमें यदि यह पता लगाना हो कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा कहां होगी तो हमें केवल यह देखना होगा कि चुनाव कहां होने वाले हैं। ‘फालो द पोल्स’ की नीति अपनाने से हम यह जान सकेंगे कि देश के किस हिस्से में बहुसंख्यकों के वोटों की खातिर दंगे करवाए जाएंगे। मोदी की प्रयोगशाला में तैयार, उत्तरप्रदेश में शाह द्वारा परिष्कृत इस फार्मूले का क्रियान्वयन देखने के लिए आप किसी भी ऐसे इलाके में जा सकते हैं जहां चुनाव होने वाले हों। अनिल अल्पाह के लेख में लोकसभा चुनाव के बाद उत्तरप्रदेश में हुई साम्प्रदायिक घटनाओं पर रोशनी डाली गई है। क्या हम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के चुनावों में इस्तेमाल की एक नई राजनीति का उदय देख रहे हैं? बहुजन सावधान रहें: आप संघ-भाजपा की बांटो और जीतो, इस्तेमाल करो और फेंको की राजनीति के मुख्य शिकार होंगे।

मोदी सुनामी की शिकार बहुजन क्षेत्रीय पार्टियां एक बार फिर अपनी जमीन तलाश करने की कोशिश कर रही हैं। एचएल दुसाध, बिहार में होने वाले उपचुनाव के परिप्रेक्ष्य में नीतीश कुमार और लालू यादव की बढ़ती नजदीकियों पर नजर डाल रहे हैं। यद्यपि वे लालू की इस बात से सहमत हैं कि भाजपा की कमंडल की राजनीति का एकमात्र काट मंडल है परंतु मुझे इसमें संदेह है। मुझे ऐसा लगता है कि बहुजन पार्टियों ने मोदी के बाद के भारत में सामाजिक न्याय की राजनीति को नई दिशा देने के लिए आवश्यक बौद्धिक प्रयास नहीं किए हैं। कहां हैं बहुजन चिंतक और क्या बहुजन नेता उनकी सुनेंगे?

बहुजन बुद्धिजीवियों और चिंतकों में से कितनों ने महात्मा फुले को पढ़ा है? आंबेडकर के विपरीत, महात्मा फुले के लेखन पर न तो पर्याप्त शोध हुआ है और ना ही उसका हिन्दी व अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनुवाद। इस माह हम सत्यशोधक समाज का स्थापना दिवस मना रहे हैं। हम यह निश्चय करें कि इस कार्य को हम सत्य की अपनी खोज का हिस्सा बनाएंगे और महात्मा के पदचिन्हों पर चलेंगे, जिन्होंने पुराणों को ब्राह्मणवादी झूठों का ऐसा पुलिंदा बताया था, जिसका उद्देश्य बहुजनों को गुलाम बनाए रखना था।

 

(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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