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मनुस्मृति पढ़ाना ही है तो ‘गुलामगिरी’ और ‘जाति का विनाश’ भी पढ़ाइए : लक्ष्मण यादव

अभी यह स्थिति हो गई है कि भाजपा आज भले चुनाव हार जाए, लेकिन आरएसएस ने जिस तरह से विश्वविद्यालयों को अपने कैडर से भर दिया है, अगले तीस सालों तक वह तीस बैचों को छात्रों को पढ़ाता रहेगा। विश्वविद्यालयों में पिछले दस साल में सब कुछ बदल गया। पढ़ें, प्रो. लक्ष्मण यादव से यह साक्षात्कार

‘प्रोफेसर की डायरी’ के लेखक प्रो. लक्ष्मण यादव का 14 वर्षों का संबंध दिल्ली विश्वविद्यालय से रहा। उन्हें एक बहुजन चिंतक के रूप में ख्याति प्राप्त है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति योगेश सिंह ने यह घोषणा की कि विश्वविद्यालय के किसी भी पाठ्यक्रम में ‘मनुस्मृति’ को शामिल नहीं किया जाएगा। उन्होंने इसकी घोषणा तब की जब विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग द्वारा ‘मनुस्मृति’ में शामिल किए जाने का प्रयास किया गया। इस संदर्भ में फारवर्ड प्रेस ने प्रो. यादव से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित स्वरूप।

दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के कुलपति ने किसी भी पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल नहीं करने की घोषणा की है। बताया जा रहा है कि ऐसा उन्होंने भारी विरोध को देखते हुए किया। आपको क्या लगता है कि मनुस्मृति पढ़ाए जाने का विरोध किया जाना चाहिए या नहीं?

पहली बात तो यह कि मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जिसे बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने जलाया था। इस बात को लगभग सौ साल होने जा रहे हैं। आप देखिए कि बाबा साहब ने किसी और ग्रंथ के साथ ऐसा नहीं किया। हिंदू धर्म के बाकी सारे ग्रंथों का जवाब उन्होंने लिखकर दिया। लेकिन मनुस्मृति को जला दिया, क्योंकि यह ग्रंथ जवाब देने लायक नहीं था। बात यह है कि मनुस्मृति में खास तौर से दलितों, शूद्रों, महिलाओं को कई तरह के अधिकारों से वंचित रखने की बात कही गई है। उन्हें शिक्षा से दूर रखने और न्याय-व्यवस्था में भेदभाव को जायज ठहराया गया है। इसलिए इसको खारिज किया जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में फिर कोशिश यह की गई कि इसे पढ़ाया जाए। इस पर मेरा जवाब यह है कि पहले तो अगर आप पढ़ाते हैं तो इन चीजों को वैधता मिलेगी। इसका एक पक्ष है कि इसको खारिज करना है, पढ़ना नहीं है। इसमें पढ़ने को कुछ है ही नहीं। इस तर्क से कहें तो बिल्कुल दिल्ली विश्वविद्यालय को इसे सिलेबस में नहीं शामिल करना चाहिए। अन्यथा इसका दुरुपयोग संभव है। और दूसरा पहलू यह है कि इसे विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाएंगे तो कहां पढ़ाएंगे। तो मेरा मानना यह है कि जब भी आप यह सोचें कि आपको विश्वविद्यालयों में मनुस्मृति पढ़ाना चाहिए, तो मैं चाहूंगा कि जिस पेपर में इसे रखा जाए उसमें अगला चैप्टर ‘गुलामगिरी’ पर हो। तो तीसरा चैप्टर ‘जाति का विनाश’ हो। इस तरह आप पढ़ाना चाहते हैं तो पढ़ा सकते हैं।

मनुस्मृति को पहले इतिहास, फिर विधि विज्ञान में शामिल करने की कोशिश की गई। कुलपति का कहना है कि उन्होंने एक साल पहले ही निर्देश जारी किया था कि मनुस्मृति को किसी भी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जाएगा। अब संस्कृत विभाग के पाठ्यक्रम में शामिल करने की कोशिश का मतलब क्या है? क्या डीयू के विभाग कुलपति की बात नहीं मानते?

नियमतः तो यह होना चाहिए कि जितने भी विश्वविद्यालय हैं, वे अपने कुलपतियों के निर्देशों को मानें और अगर एक बार निर्देशित किया जा चुका है कि मनुस्मृति को किसी भी पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जाएगा तो नहीं किया जाना चाहिए। दोनों बातें हैं। लेकिन आपके सवाल में ही यह जवाब छिपा हुआ है कि ऐसा हुआ नहीं। एक बार निर्देश देने के बाद भी विश्वविद्यालय के दूसरे विभाग ने उसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की कोशिश की। तो इसका मतलब तो यही है कि नियम को तोड़कर विश्वविद्यालय में यह काम हो रहा है। यह आपके सवाल में निहित है। मेरा जवाब इस सवाल का यह है कि आरएसएस की मानसिकता वाला आदमी संविधान को दिल से स्वीकार नहीं करता। वह संविधान को खारिज करता है। वह चाहता है कि उसकी मनुस्मृति का भारत बने। यह वही मानसिकता है, जिसका परिचय आरएसएस ने 26 नवंबर, 1949 को संविधान अंगीकृत होने के ठीक तीन दिन बाद से ही विरोध शुरू करके दिया था। उसका कहना था कि इस संविधान में तो मनुस्मृति से कुछ लिया ही नहीं गया। आरएसएस के लोग आज भी इसे बाहरी मानते हैं, अपना संविधान नहीं मानते। कभी बदलने के लिए चुनाव लड़ते हैं तो कभी महापुरुषों से यह कहलवाते हैं कि नया संविधान लागू होना चाहिए। ऐसी ही मानसिकता रहती है वीसी की कि अब जरा देखें कि मनुस्मृति को शामिल कराने की स्थिति बनती है क्या, या विरोध होगा। या गुप्त तरीके से लागू कर दें।

जिस तरह जाति, वर्ण और लिंग आधारित भेदभाव वेद, उपनिषद, पुराणों व अन्य ग्रंथों रामायण, महाभारत आदि में सहज रूप से सामने आता है, लेकिन उनके ऊपर कोई रोक नहीं है। यहां तक कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर भी कोई एतराज नहीं है। मनुस्मृति को हटाना दूसरे ग्रंथों को स्वीकार्यता प्रदान करने का प्रयास तो नहीं?

ठीक बात है। लेकिन आप देखिए कि कुछ चीजें होती हैं जिनमें जवाब देने लायक कुछ होता ही नहीं। ऐसे ही मनुस्मृति है। यह तमाम तरह के अन्यायों और अमानवीय मानसिकता का संचयन है। उन्हें वैधता प्रदान करनेवाला ग्रंथ है। यह सामान्य ग्रंथ नहीं है। रामायण, महाभारत या कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यह कहीं नहीं है कि समाज को ऐसा होना चाहिए। अगर एक शूद्र ब्राह्मण के बराबर बैठ जाए तो उसके बैठने वाले हिस्से को कटवा देना चाहिए। शायद ऐसा रामायण, महाभारत या किसी भी ग्रंथ में नहीं है। मनुस्मृति प्रेरित करता है कि महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं देना चाहिए, और महिलाओं को पिता, पति और पुत्र के अधीन ही रहना चाहिए। जिस एक अपराध के लिए शूद्र की हत्या तक की जा सकती है, लेकिन ब्राह्मण को माफ किया जाना चाहिए। ऐसा अन्य ग्रंथों में नहीं है। इसलिए मनुस्मृति को हर हाल में खारिज करना चाहिए।

प्रो. लक्ष्मण यादव

यहां एक सवाल यह भी उठता है कि यदि हमारे लोग मनुस्मृति नहीं पढ़ेंगे तो उसमें जो लिखा गया है, उसके बारे में कैसे जानेंगे और जब तक जानेंगे नहीं, तब तक उसका विरोध कैसे कर पाएंगे?

शिक्षा जगत के एक ऐसे प्रोफेसर होने के लिहाज से जिसने चौदह साल पढ़ाया हो, मेरा पहला जवाब वही है जो आपके पहले सवाल के जवाब में कहा। अगर विश्वविद्यालय मनुस्मृति पढ़ाना चाहता है या उसे लगता है कि पढ़ाना चाहिए तो उसको काउंटर करनेवाली किताबें भी पढ़ाइए। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप केवल मनुस्मृति पढ़ाना चाहते हैं। अच्छा, यह देखिए कि आपने सभी विश्वविद्यालयों में आरएसएस के कुलपतियों की नियुक्ति कर दी है, प्रोफेसरों में भी अधिकांश वे ही हैं। आज विश्वविद्यालयों में आप शाखाएं लगवा रहे हैं। तो यह बताता है कि आप उच्च शिक्षा को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। एक उदाहरण के रूप में कहता हूं और इसे मेरी चुनौती भी मानी जाए कि विश्वविद्यालय इस विषय पर व्याख्यान आयोजित करे कि भारत मनुस्मृति से नहीं, संविधान से चलेगा। इस विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सेमिनार कराने के लिए एक भी प्रोफेसर तैयार हो जाए तो मैं मान जाऊंगा। जब विश्वविद्यालयों पर आरएसएस का पूरी तरह से कब्जा हो चुका है और ऐसे वक्त में जब वह मनुस्मृति विश्वविद्यालय में पढ़ाना चाह रहे हैं तो उनकी मंशा यह नहीं है कि वह दलितों-पिछड़ों को जागरूक करना चाहते हैं।

पाठ्यक्रमों का निर्धारण करनेवाली डीयू की संगठनात्मक संरचना के बारे में बताएं। क्या इस संरचना में हाल के वर्षों में किसी तरह का अंतर आया है?

ऐसा नहीं है कि अंतर अचानक से आया है। मैंने एक पूरी किताब लिखी है– ‘एक प्रोफेसर की डायरी’। इसलिए यहां इस सवाल के जवाब में विस्तार से नहीं जाऊंगा। लेकिन विश्वविद्यालयों की अहमियत के बारे में जरूर कहूंगा कि विश्वविद्यालयों के मतलब क्या हैं। वहां क्या होना चाहिए और कैसे होना चाहिए। ये सारी बातें मैंने विस्तार से अपनी किताब में बताई है। मैं उसका निचोड़ यह बताऊं कि विश्वविद्यालयों के दलित-बहुजनों के लिहाज से उच्च शिक्षा में कभी स्वर्ण युग नहीं रहा। आगे बढ़े हुए हमेशा वर्चस्व वाले लोगों का कब्जा रहा है। संविधान लागू हुआ और आरक्षण लागू हुआ तो धीरे-धीरे डेमोग्राफी बदलनी शुरू हुई। विश्वविद्यालयों में रोस्टर लागू हुआ तो दलित-पिछड़ों की पहली पीढ़ी की पहुंच शुरू हुई। धीरे-धीरे डेमोक्रेटिक प्रोसेस शुरू हुआ, लेकिन जो वर्चस्व वाले मुट्ठीभर लोग हैं, उन्हें यह बखूबी पता है कि अगर विश्वविद्यालयों में और ज्ञान के सत्ता प्रतिष्ठानों में दलित-पिछड़े पहुंचेंगे तो उन सत्ता प्रतिष्ठानों से प्रतिउत्तर मिलना शुरू होगा, काउंटर नॅरेटिव बनना शुरू होगा। तब से अनवरत विश्वविद्यालयों में दलितों-पिछड़ों को आने से रोकने की साजिशें जारी हैं। मौजूदा वक्त में भी यह हो रहा है। पहले भी ऐसा होता था। कभी लेटरल इंट्री, कभी नॉट फाऊंड सूटेबुल के नाम पर, परमानेंट के बजाय ठेके पर प्रोफेसर रखना। अब तो बहुत सारे गेस्ट प्रोफेसर अप्वाइंट हो रहे हैं। दूसरी बात यह है कि संस्थानों के स्तर पर शोषण बढ़ा है। हमें रोहित वेमुला को याद करना चाहिए कि एक शोषण वह होता है जो हमें दिखता नहीं, लेकिन एक दलित-पिछड़ा प्रोफेसर और छात्र शोषण व वंचनाओं को रोज झेलता है। और यह पिछले दस साल में बढ़ गया है क्योंकि आरएसएस को यह पता चल गया है कि ज्ञान के प्रतिष्ठानों पर कब्जा करने से ही लंबे समय तक सत्ता अपने हाथ में रखी जा सकती है। अभी क्या स्थिति हो गई है कि भाजपा आज भले चुनाव हार जाए, आरएसएस ने जिस तरह से विश्वविद्यालयों को अपने कैडर से भर दिया है, अगले तीस सालों तक वह तीस बैचों के छात्रों को पढ़ाता रहेगा। विश्वविद्यालयों में पिछले दस साल में सब कुछ बदल गया। मैं दावे से कह रहा हूं एक भी कुलपति की नियुक्ति में आप ऐसा नहीं बता पाएंगे जिसका संबंध आरएसएस से न हो। हां, प्रोफेसर में हो सकता है कि कहीं-कहीं लोग घुस गए हों। लेकिन जितने भी किस्म के भ्रष्टाचार हो सकते हैं, विश्वविद्यालयों में हो रहा है। ऐसा नहीं कि पहले संघी नहीं थे, लेकिन कांग्रेसी समाजवादी भी थे, कम्युनिस्ट भी थे। उनके बीच वाद-विवाद और संवाद होते थे। लेकिन बीते दस साल में उन्होंने ऐसा किया है कि केवल संघी ही रहेंगे। अगर आप विरोधी विचार रखते हैं तो वे आप से संवाद भी नहीं करेंगे। नई शिक्षा नीति के तहत सभी विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया गया है। ये बदलाव विश्वविद्यालयों ने पिछले दस सालों में देखें हैं, जो बहुत घातक हैं।

मेरा एक सवाल यह भी है कि जिस तरह से वर्चस्वशाली तबका मनुस्मृति ग्रंथ को पाठ्यक्रमों में शामिल कराने की कोशिश कर रहा है, दलित-बहुजनों की ओर से ऐसी कोई कोशिश या फिर आंदोलन क्यों नहीं चलाया जा रहा है कि फुले, पेरियार और आंबेडकर के विचारों को शामिल किया जाए?

देखिए, उत्तर प्रदेश में स्कूलों को मर्ज करके बंद करने का फरमान आया है। इन स्कूलों में ज्यादातर दलित-बहुजन ही पढ़ते हैं। 99 प्रतिशत दलित-बहुजन होंगे, एक प्रतिशत बाकी लोग। दलित-बहुजन जब अपने स्कूलों को बंद होने से बचा नहीं पा रहा है, अपने स्कूलों में फीस की बढ़ोत्तरी को रोक नहीं पा रहा है, सिलेबस को बदलकर जब उसका सांप्रदायिककरण किया जा रहा है उसको नहीं रोक पा रहा है, तब आप कैसे सोच सकते हैं कि वह कोई आंदोलन करेगा। दलित-बहुजन का गरीब तबका तो यह करेगा नहीं। यह तो पढ़ा-लिखा वर्ग करेगा। आप यह भी देखिए कि आज की तारीख में विश्वविद्यालयों में जो दलित-बहुजन प्रोफेसर हैं, वह अपने विचारों को लेकर एक सेमिनार नहीं करवा पा रहे हैं, क्योंकि वह अपनी नौकरी बचा रहा है। उसे डर है कि अगर वह बोलेगा तो प्रमोशन नहीं हो पाएगा। जो समाज बुनियादी सवालों पर ही नहीं बोल पा रहा है, उससे हम कैसे उम्मीद करें कि वह एक गहरे विमर्श के सवाल तक जाएगा और यह आंदोलन करे कि यह होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए।

इसलिए मेरा जवाब यह है कि मैं अपने समाज से निराश हूं। मैं निराशा में यह बयान दे रहा हूं कि जो मोटी-मोटी लड़ाइयां बड़े तौर पर लड़ी जानी चाहिए, हमारा समाज जब वही नहीं लड़ पा रहा है तो इतने गहरे विमर्श की लड़ाई लड़ने के लिए शायद अभी मेरा समाज तैयार नहीं है। लेकिन मैं चाहता हूं कि दोनों स्तर की लड़ाई हो। वह शिक्षा बेचने, संघ के विचारधारा के लोगों को प्रोफेसर बनाए जाने, आरएसएस के कब्जे के खिलाफ लड़े और गहरे विमर्श की लड़ाई भी लड़े। विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम से लेकर हर जरूरी सवाल पर हस्तक्षेप करे।

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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