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कुछ शर्म कर लो!

स्वच्छ भारत अभियान के एक टीवी विज्ञापन को देख कर ऐसा लगता है कि सरकार गंदगी की समस्या के मूल में जो सामाजिक अन्याय और गरीबी है, उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहती

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान आजकल जोरों पर है। टीवी चैनल, अखबार और सोशल मीडिया सभी में इसकी चर्चा है। अपने-अपने हितों व सोच के आधार पर समाज के विभिन्न वर्ग इस विषय पर अपनी राय भी व्यक्त कर रहे हैं। यहाँ इस मुहीम पर आधारित एक टीवी विज्ञापन पर चर्चा जरूरी है क्योंकि इस माध्यम की पहुँच बहुत व्यापक है। इस विज्ञापन में तीन चरित्र हैं, दो महिला व एक पुरुष। अलग-अलग दृश्यों में दोनों महिलाओं को कचरा फैलाते और पुरुष को खुले में लघुशंका करते दिखलाया गया है। विज्ञापन में फिल्म कलाकार अनुपम खेर देशवासियों से सफाई की अपील करते हुए कहते हैं – कुछ शर्म कर लो, सोच स्वच्छ कर लो। अगर लघुशंका करते हुए दिखाया जाना नहीं होता तो तीसरा किरदार भी शायद महिला ही होती, क्योंकि तथाकथित भद्र द्विज तबके की ऐसी मान्यता है कि कचरा फैलाने या गंदगी करने का काम गरीब दलित वर्ग, विशेषकर उनकी महिलाएं ही करती हैं, ‘ये छोटी जात के लोग नहीं सुधर सकते। कहीं भी बैठ जाते हैं’, यह ऐसा वाक्य है, जिसे हर गरीब दलित ने अक्सर सुना है।

क्या है वास्तविक समस्या?
इस विज्ञापन में जो बात गौर करने लायक है वह यह है कि जो लोग इस गंदगी फैलाने वाले दल में शामिल हैं, वे हैं शहर में मन्नु आंटी और गांव में लक्ष्मी भाभी और सुखिया भइया। ये सब निम्न या निम्न मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं।

मन्नु आंटी कचरा अपनी पहली मंजिल के घर से नीचे फेंक देती है, जो कचरे के डिब्बे में न गिर कर उसके बगल में गिर जाता है। इस पर वहाँ खेल रहे बच्चे ताली बजाते हैं और वे शर्मिन्दा होती हैं। लेकिन वास्तविक समस्या यह है कि कचरा सड़ जाता है, लेकिन नगरपालिकाओं द्वारा उठाया नहीं जाता। कचरा प्रबन्धन की कोई व्यवस्था गरीब, अनधिकृत रिहायशी इलाकों के लिए अस्तित्व में ही नहीं है। लोगों की शिकायत पर नगरीय संस्थाएं कभी-कभार उस पर ध्यान दे देती हैं, वह भी तब जब कोई नेता उस बस्ती में आता है या कोई बड़ी दुर्घटना हो जाती है।
लक्ष्मी भाभी तालाब में बर्तन धोने जाती हैं और घर का कचरा उसमें डाल देती हैं। दूसरे किनारे पर बैठी औरतें ताली बजाती हैं और लक्ष्मी भाभी शर्मिन्दा होती हैं। लक्ष्मी भाभी यह तर्क दे सकती हैं कि रसोईघर का कचरा तो मछलियाँ खा लेगीं, लेकिन इससे यह तो साफ पता चलता है कि भाभी के घर में पानी की आपूर्ति की व्यवस्था नहीं है। भारत के अधिकांश गांवों में आज भी पानी के नल नहीं हैं। दलित तो गांव के बाहर ही रहते हैं। उनकी बस्तियों में तो कहीं भी नल दिखाई नहीं देते।

सुखिया भइया बस स्टाप के पास बैठे शौच कर रहे हैं। इतने में बस आ जाती है। भइया जब बस में सवार होते हैं तो बस में बैठे लोग और कन्डक्टर ताली बजाते हैं। उन्हें हार भी पहनाया जाता है। भारत के गाँवों में तो क्या महानगरों में भी पर्याप्त सार्वजनिक शौचालय नहीं हैं। जो गिने-चुने है, वे इतने गंदे हैं कि कोई उनके पास भी फटकता नहीं। इसलिए पुरूष, चाहे वह गाँव शहर का गरीब हो या मर्सडीज का मालिक, सभी खुले में जहाँ-तहाँ शौच करते हैं। फिर पूरा देश सुखिया भइया पर ही क्यों हंसे?

यह वर्ग तो गलती किये बगैर भी शर्मिंदा किया जाता रहा है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आज तक अपनी जान और सम्मान को दांव पर लगाता आया है। गन्दगी में ही जन्म लेता है, गन्दगी में ही जीता है और गन्दगी में ही मर जाता है। यह सदियों पुराना दर्द है जो ब्राह्मणवादी सोच और हिन्दू धार्मिक मान्यताओं से जन्मा है, जो दलितों और स्त्रियों को आज भी सभी मानवाधिकारों से वंचित रख चुपचाप अन्याय सहते रहने को मजबूर कर रही हैं।

यह स्वीकार करना जरूरी है कि गंदगी एक सामाजिक समस्या है, जो गरीबी और अन्याय से जुड़ी हुई है। भारत में 53 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं। गाँव-शहरों में, सरकारी स्कूलों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों और रेल की पटरियों के आस-पास गरीब रिहायशी इलाकों में बसी आबादी के लिए कहीं भी पर्याप्त साफ शौचालय नहीं हैं। गंदे पानी से भरे गड्ढे, खुले नाले, कचरे के ढेर, जिन पर मक्खी, मच्छर पलते हैं, इन सभी जगहों की सच्चाई है। यही कारण है कि इन इलाकों में लोग बड़ी संख्या में बीमार रहते हैं, साधारण बीमारियों से भी बच्चों की मौत हो जाती है। इन इलाकों की मृत्युदर औसत से कहीं ज्यादा है। हैजा, मलेरिया व टाइफाइड जैसी मच्छरों व पानी से फैलने वाली बीमारियों के अलावा टीबी जैसी संक्रामक बीमारी भी यहाँ हर वक्त मौजूद रहती है, जिनसे बच पाना और लडऩा आसान नहीं है।

इस बात को अब सभी देशवासियों को ईमानदारी से स्वीकार करनी चाहिए कि हमारे देश में गंदगी साफ करने के लिए भी कुछ विशेष जातियों का निर्माण किया गया है, जिनका दर्जा समाज में सबसे निचला है, जिनके पास ना तो शिक्षा है और ना ही बुनियादी सुविधाएं। आज भी हाथों से सिर पर मैला ढोने की प्रथा कई शहरों में बदस्तूर जारी है। दो लाख से भी ज्यादा सफाई कर्मचारी यह घृणित, गैरक़ानूनी कार्य करते हैं। कोई विकल्प ना होने और जागरूकता की कमी के कारण यह वर्ग मजबूर है। हम सभी की आँखों के सामने रोज सुबह सभी गली मोहल्लों और शहरी कालोनियों में महिलाएं सड़क झाडने और घरों से कूडा उठाने का काम करती हैं। उस भंयकर बदबू मारते कूडे को वे न चाहते हुए भी अपने हाथों से उठाती हैं। न तो उनके पास दस्ताने होते हैं और ना ही जूते। इस काम के उन्हें इतने कम पैसे मिलते हैं, जिससे परिवार का गुजारा भी नहीं होता, इसलिए उनके घर के पुरूष और बच्चे भी पढ़ाई छोड़कर कचरा बीनते हैं। समूचा परिवार ही गंदगी में जीता है। गंदगी से देश के करोड़ों गरीबों का दर्द जुड़ा है, जिसे समझने के लिए दृष्टि की जरूरत है। गरीब की गंदगी और अमीरों के गंदगी में जमीन आसमान का फर्क है। जब हम ‘स्वच्छ भारत’ की बात करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कचरा प्रबन्धन अपने आप में एक बड़ा व्यवसाय है, जिससे बडी पूंजी और धनकुबेर जुड़े हुए हैं।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी 2015 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सुजाता पारमिता

सुजाता पारमिता (20 मार्च, 1955 – 6 जून, 2021) चर्चित दलित और स्त्रीवादी चिंतक व भारतीय फिल्म संस्थान, पुणे से स्नातक रहीं। वे अंबेडकरवादी आलोचना के लिए जानी जाती हैं

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