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बहुजन विमर्श के कारण निशाने पर है जेएनयू

आश्चर्यजनक विधि से नवंबर, 2015 में पांचजन्य की रिपोर्ट में लगाये गये आरोप चार महीने बाद फरवरी, 2016 में पुलिस के गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में बदल गये। पांचजन्य की रिपोर्ट और गुप्तचर विभाग की रिपोर्टका भाव एक है, मूल कथ्य समान है, लगाए गये आरोप समान हैं, बहुजन विचार धारा वाले छात्र संगठनों को वामपंथ के अतिवादी समूहों से जोड़ डालने की साजिशें समान हैं

यह जानना जरूरी है कि 1966 में भारत सरकार के एक विशेष एक्ट के तहत बना यह उच्च अध्ययन संस्थान वामपंथ का गढ़ क्यों बन सका। इसका उत्तर इसकी विशेष आरक्षण प्रणाली में है। इस विश्वविद्यालय में आरंभ से ही पिछड़े जिलों से आने वाले उम्मीदवारों, महिलाओं तथा अन्य कमजोर तबकों को नामांकन में प्राथमिकता दी जाती रही है। कश्मीरी विस्थापितों और युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के बच्चों और विधवाओं को भी वरीयता मिलती है। (देखें: बॉक्स) यहां की प्रवेश परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न भी इस प्रकार के होते हैं कि उम्मीदवार के लिए सिर्फ विषय का वस्तुनिष्ठ ज्ञान पर्याप्त नहीं होता। जिसमें पर्याप्त विषयनिष्ठ ज्ञान, विश्लेषण क्षमता और तर्कशीलता हो, वही इस संस्थान में प्रवेश पा सकता है। विभिन्न विदेशी भाषाओं के स्नातक स्तरीय कोर्स इसके अपवाद जरूर हैं, लेकिन इन कोर्सों में आने वाले वे ही छात्र आगे चल कर एम. ए., एमफिल आदि में प्रवेश ले पाते हैं, जिनमें उपरोक्त क्षमता हो। इस प्रकार, वर्षों से जेएनयू आर्थिक व सामाजिक रूप से वंचित तबकों के सबसे जहीन, उर्वर मस्तिष्क के विद्यार्थियों का गढ़ रहा है। यहां के छात्रों की कमतर आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि और इसे लेकर उनकी प्रश्नाकुलता, उन्हें वामपंथ के करीब ले आती है।

DSCN6675-2-e1456581372929अरावली की श्रृंखला के हरे भरे झुरमुटों में लगभग 1000 एकड़ में बसे इसे पूर्ण अवासीय विश्वविद्यालय ने कभी भी अभिजात तबके को ज्यादा आकर्षित नहीं किया। हॉस्टलों का खान-पान साधारण है और मेस में पानी पीने के लिए ग्लास की जगह जग का इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के अनुसार जेएनयू में आनेवाले कम से कम 70 फीसदी विद्यार्थी या तो गरीब तबके के होते हैं या फिर निम्न मध्यवर्ग के। विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की मुख्यधारा वामपंथी होने के बावजूद 2006 के पहले तक यहां आर्थिक रूप से कमजोर लेकिन सामाजिक रूप से उच्च तबकों का दबदबा था क्योंकि यहां अधिक संख्या इसी तबके से आने वाले विद्यार्थियों की थी। दलितों और आदिवासियों की संख्या उनके लिए आरक्षित अनुपात 22.5 फीसदी तक ही सीमित रह जाती थी। हालांकि यहां वर्ष 1995 से ही ओबीसी विद्यार्थियों को भी नामांकन में वरीयता दी जा रही है, जिसका श्रेय ख्यात छात्र नेता चंद्रशेखर (1964-1997) द्वारा किये गये आंदोलनों को जाता है। (देखें, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार, आशोक कुमार सिन्हा, शब्दा प्रकाशन पटना, 2012) लेकिन इसके बावजूद 2006 तक इस विश्वविद्यालय में सामाजिक रूप से वंचित तबकों की कुल संख्या 28-29 फीसदी से ज्यादा नहीं हो पाती थी। 2006 में उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षित हुई सीटों ने इस तबके को उच्च शिक्षा के प्रति उत्साहित किया। जेएनयू में सभी विद्यार्थियों को मिलने वाले वजीफे का भी आकर्षण इसके पीछे था। जैसा कि फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित लेख ‘दलित बहुजन विमर्श का बढ़ता दबदबा’ में अभय कुमार ने बताया था कि ”विश्वविद्यालय की वार्षिक रपट (2013-14) के अनुसार, यहां के 7,677 विद्यार्थियों में से 3,648 दलितबहुजन (1,058 अनुसूचित जाति, 632 अनुसूचित जनजाति, 1,948 ओबीसी) हैं। अगर हम सीधी भाषा में कहें तो आज विश्वविद्यालय के 50 प्रतिशत विद्यार्थी, गैर-उच्च जातियों के हैं। अगर इसमें ‘सामान्य’ कैटेगरी के तहत चुने जाने वाले एससी, एसटी व ओबीसी उम्म्मीदवारों तथा अन्य वंचित सामाजिक समूहों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को भी शामिल कर लिया जाए तो ऊँची जातियों व उच्च वर्ग से संबंधित विद्यार्थियों का प्रतिशत नगण्य रह जाएगा। नतीजा यह है कि पिछले तीन सालों (2013-14 से) में जवाहरलाल नेहरू विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के विद्यार्थी चुने जाते रहे हैं- वी. लेनिन कुमार (2012), एसएफआई-जेएनयू या डीएसएफ, जो कि तमिलनाडु के ओबीसी थे, अकबर चौधरी (2013), एआईएसए, जो कि उत्तर प्रदेश निवासी एक मुस्लिम थे और आशुतोष कुमार (2014) एआईएसए, जो बिहार के यादव हैं।’ 2012 में तो जेएनयू छात्र संघ के चारों पद ओबीसी तबके से आने वाले उम्मीदवारों ने ही जीते थे। (देखें, ‘जय जोति, जय भीम, जय जेएनयू’, फारवर्ड प्रेस, अक्टूबर, 2012) वर्ष 2015 में छात्र संघ के चुनाव में विजयी रहे उम्मीदवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी यही बात परिलक्षित होती है। अध्यक्ष – कन्हैया कुमार, एआईएसफ (उच्च हिंदू जाति भूमिहार), उपाध्यक्ष- शलेहा रासिद, आइसा (मुसलमान), जनरल सेक्ररेट्री – रामा नागा, आइसा (दलित), ज्वाईंट सेकेरेट्री – सौरभ कुमार शर्मा, एबीवीपी (ओबासी) हैं। गौरतलब है कि जेएनयू छात्र संघ केइस चुनाव में 14 साल बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) का कोई उम्मीदवार जीता है, इस जीत के पीछे स्पष्ट रूप से उसके उम्मीदवार की ओबीसी सामाजिक पृष्ठभूमि भी काम कर रही थी। इसी तरह, उपरोक्त कांड में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार वर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार (उच्च जाति हिंदू) के भाषणों के विडियो आपने देखे होंगे। वे न सिर्फ एक प्रखर वक्ता हैं, बल्कि उनके भाषण फूले-आम्बेडकरवाद और माक्र्सवाद का खूबसूरत संगम होते हैं। जेएनयू के विद्यार्थी बताते हैं कि उनकी जीत का श्रेय उनके इन्हीं भाषणों को है।

ध्यातव्य यह भी है कि पिछले साल हुए नामांकनों के बाद जेएनयू में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी की संख्या लगभग 55 फीसदी हो गयी है। जेएनयू में अरबी, परसियन समेत विभिन्न भाषाई कोर्सों में बड़ी संख्या में मुसलमान विद्यार्थी हैं। उनसे संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अगर उनके साथ अशराफ मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों की संख्या भी जोड़ दी जाए तो निश्चित ही आज जेएनयू में अद्विजों संख्या कम से कम 70 फीसदी हो चुकी है।

यह भी गौर करें कि 2006 से 2015 के बीच जेएनयू में सिर्फ ओबीसी विद्यार्थियों की संख्या 288 से बढ़कर 2434 हो गयी है। यानी पिछले 9 सालों में विवि में ओबीसी छात्रों की संख्या लगभग 10 गुणा बढ़ी है। महिलाओं की संख्या भी काफी बढ़ी है (देखें चार्ट)

 

विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि

 

2005 – 2006 2006 – 2007 2013 – 2014 2014 – 2015
कुल विद्यार्थी

5264

लिंगानुपात

महिलाएं 1862

पुरूष 3402

सामाजिक पृष्ठभूमि

अनुसूचित जाति: 669

अनुसूचित जनजाति: 370

ओबीसी : आंकड़े एकत्रित नहीं

विकलांग: 104

विदेशी नागरिक: 241

अन्य: 3880

 

कुल विद्यार्थी

5506

लिंगानुपात

महिलाएं 1878

पुरूष 3628

सामाजिक पृष्ठभूमि

अनुसूचित जाति: 703

अनुसूचित जनजाति: 425

ओबीसी 288

विकलांग: 116

विदेशी नागरिक: 248

अन्य: 3726

 

कुल विद्यार्थी

7677

लिंगानुपात

महिलाएं 3623

पुरूष 4054

सामाजिक पृष्ठभूमि

अनुसूचित जाति: 1058

अनुसूचित जनजाति: 632

ओबीसी 1948

विकलांग: 179

विदेशी नागरिक: 297

अन्य: 3563

 

 

कुल विद्यार्थी

8308

लिंगानुपात

महिलाएं 4111

पुरूष 4197

सामाजिक पृष्ठभूमि

अनुसूचित जाति: 1201

अनुसूचित जनजाति: 643

ओबीसी: 2434

विकलांग: 219

विदेशी नागरिक: 331

अन्य: 3480

 

 

 

2005-06 में 1426 छात्रों का भर्ती के लिए चयन किया गया। जहां तक छात्रों की शहरी-ग्रामीण पृष्ठभूमि प्रश्न है, यह अनुपात 524: 902 था। साथ ही केवल 417 छात्र पब्लिक स्कूलों में पढ़े हुए थे, जबकि 1009 छात्रों की स्कूली शिक्षा नगरपालिका अथवा अन्य गैर पब्लिक स्कूलों में हुई थी। सन् 2006-07 में ओबीसी के कुल नामांकित 1484 में से  288 ओबीसी से थे। (अर्थात 19.44 प्रतिशत ओबीसी छात्रों का विभिन्न पाठ्यक्रमों में भर्ती हेतु चयन हुआ) ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण के विरूद्ध 24.90 प्रतिशत ओबीसी छात्रों ने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। इनके अतिरिक्त, आरक्षित श्रेणियों के कुछ छात्रों ने मेरिट के आधार पर सामान्य उम्मीदवार की तरह प्रवेश लिया उनकी संख्या निम्नानुसार है: अनुसूचित जाति: 37, अनुसूचित जनजाति: 35 विकलांग: 07

ओबीसी: 177

ओबीसी वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण के विरूद्ध 26.33 प्रतिशत ओबीसी छात्रों ने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। इनके अतिरिक्त, आरक्षित श्रेणियों के कुछ छात्रों ने मेरिट के आधार पर सामान्य उम्मीदवार की तरह प्रवेश लिया उनकी संख्या निम्नानुसार है:

अनुसूचित जाति: 44

अनुसूचित जनजाति: 26

विकालंग: 07

ओबीसी: 186

श्रोत: जेएनयू प्रशासन द्वारा प्रस्तुत 36 वां, 37 वां, 44 वां और 45 वां वार्षिक प्रतिवेदन

नए नारे, नयी इबारत, नए विमर्श

जेएनयू के विद्यार्थियों की सामाजिक संरचना में आए इस बदलाव ने सिर्फ छात्र संघ को ही नहीं बदला बल्कि यहां होने वाले विमर्श भी बदल गये। प्रमुख छात्र संगठनों पर वामदलों का आवरण तो चढ़ा रहा, लेकिन उनके नारे बदलने लगे। दीवारों पर लगे चित्र और इबारतें बदलने लगीं। माक्र्स, लेनिन और माओ की जगह छात्र संगठनों के नारे बिरसा, फूले और आम्बेडकर के नाम पर बनने लगे। दीवारों पर मनुवाद और जातिवाद का विरोध करने वाले बहुजन नायकों की तस्वीरें लगायीं जाने लगीं। नये सामाजिक समीकरण को देखते हुए इन प्रतीकों के बिना कोई भी संगठन जेएनयू परिसर में अपना अस्तित्व नहीं बनाए रख सकता था। सिर्फ नारे और चित्र ही नहीं बदले, शोध के लिए चुने जाने वाले विषयों में भी भारी बदलाव आया। वंचित तबकों से आने वाले विद्यार्थी अब तक अकादमिक क्षेत्र के लिए अछूते रहे जीवनाभुवों तथा विचार प्रणाली के साथ आए थे। उन्होंने मानविकी विषयों के ठस पड़े अकादमिक क्षेत्र को अपनी एक नयी उर्जा से आलोकित करना शुरू कर दिया। यही ‘वाम’ की वह नई दिशा थी, जो उसे उसके अब तक के उच्चवर्णीय रूचि के विमर्शों से अलग करती थी। अन्यथा, जेएनयू में तो रेडिकल वाम की भी उपस्थिति हमेशा रही है। नक्सलवाद, माओवाद अथवा कश्मीर की आजादी से जुड़े विमर्श वहां के लिए कोई नयी बात नहीं है। इन मुद़दों पर वहां हुए अब तक हुए छोटे-बड़े कार्यक्रमों की संख्या निश्चित ही हजारों में रही हैं।

P1010155महिषासुर आंदोलन और ‘खाने की आजादी’ (फूड फ्रीडम) से संबंधित आंदोलन उपरोक्त नये विमर्शों की सुगबुगाहट का सार्वजनिक प्रस्फुटन थे, जिसने सारे देश का ध्यान खींचा। वाम संगठनों ने इन आंदोलनों को थोड़ी ना-नुकूर के बाद या तो स्वीकार कर लिया या कम से कम इतना तो घोषित ही कर दिया कि वे अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े रहेंगे तथा वंचित तबकों से आने वाली इन आवाजों का विरोध नहीं करेंगे। यह प्रकारांतर से यह वाम और बहुजन विचाधाराओं का साथ आना था या कम से कम एक कॉमन मिनीमम प्रोग्राम तक पहुंचना तो था ही।

बचाव की मुद्रा में संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयं को एक सांस्कृतिक संगठन कहता भी है और ब्राह्मणवादी संस्कृति के संरक्षण के लिए निरंतर सक्रिय भी रहता है। बहुजन बौद्धिक इस ब्राह्मणवादी संस्कृति पर निरंतर प्रहार करते रहे हैं, जिसे जेएनयू में वाम का भी समर्थन हासिल होने लगा। फूले, आम्बेडकर, पेरियार और नारायण गुरू की विचार प्रणाली का माक्र्स, लेनिन और माओ के विचारों के साथ संगम की प्रक्रिया में जो तर्क, तथ्य और जनभावना जेएनयू पैदा कर रहा था, उसका कोई उत्तर संघ के पास नहीं था। जिस ब्राह्मणवादी संस्कृति को वे हिंदू धर्म की आड़ में छिपाए रखना चाहते थे, उसे हिंदू धर्म के ही वंचित तबकों से कम से कम आजाद भारत में इतनी बड़ी चुनौती पहली बार मिल रही थी, और इसके पीछे था जेएनयू में पढ़ रहे बहुजन शोधार्थियों का बौद्धिक बल। वे अब उच्च अकादमिक मानदंडों के अनुरूप भी अपनी बात रखने में सक्षम थे। संघ की अब तक की कार्रवाइयां ईश निंदा, गौ हत्या आदि के विरोध पर चलती रही हैं। वे मध्यकालीन यूरोप या कहें आज के कुछ अरब देशों की तर्ज पर ईश निंदा आदि को पाप ठहराते और कथित नास्तिकों/धर्म विरोधियों के विरूद्ध मोर्चा खोल देते थे। इसमें उन्हें व्यापक समाज का समर्थन भी हासिल हो जाता था। लेकिन इस बार यह बाजी नहीं चल सकी। जिस हिंदू धर्म के नाम पर वे ब्राह्मणवाद चलाये रखना चाहते थे, उसी के भीतर से यह आवाजें आने लगीं थीं कि हम आदिवासियों, पिछड़ों, दलितों की संहारक देवी की अराधना से इंकार करते हैं। जेएनयू में महिषासुर आंदोलन के प्रस्तावक कह रहे थे कि ”तुमने हमारे नायकों को अपने ग्रंथों में भले ही खलनायक के रूप में पेश किया है, हम ब्राह्मेणत्तर स्रोतों से अपने नायकों को ढूंढेंगे तथा उन्हें पुनसर्थापित करेंगे। संथाल, भील, गोंड आदि जनजातियों के अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा आदिम जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त झारखंड असुर जनजाति हजारों वर्षों से खुद को महिषासुर का वंशज मानती रही हैं तथा उनकी पूजा करती रहीं हैं। अन्य दलित बहुजन जातियों में भी असुर परंपरा से जुड़े अनेक टोटेम रहे हैं। ऐसे में महिषासुर की हत्या का उत्सव मनाया जाना कतई उचित नहीं है। उन्होंने यह तथ्य भी सामने रखा कि स्त्री शक्ति की मान्यता इस देश में हजारों वर्षों से रही है, जो मूलत: आदिवासी-बहुजन परंपरा का ही हिस्सा थी। लेकिन ब्राह्मणवादी प्रभाव ने उस स्त्री शक्ति के रूप को विकृत कर, उसे हिंसक और स्त्री-विरोधी रूप दे दिया। आज जिस तासीर की दुर्गापूजा मनायी जाती है, उसकी शुरूआत महज 260 साल पहले 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद लार्ड क्लाइव के सम्मान में कोलकाता के नबाव कृष्णदेव ने की थी। इस प्रकार यह त्योहार न सिर्फ बहुत नया है बल्कि इसके उत्स में मुसलमानों का विरोध और साम्राज्यवाद परस्ती भी छुपी हुई है।’’

यानी जिस दुर्गापूजा के आधार पर संघ के लोग इस देश के मूलनिवासियों व वंचित तबकों को दुष्कर्मी और राक्षस आदि बताते हैं, उसका अर्थ ही इन युवा बौद्धिकों ने बदल दिया। इसी तरह वे जिस बीफ और पोर्क के नाम पर देश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे का खेल खेलते रहे थे, जेएनयू के हिंदू-मुसलमान विद्यार्थियों ने उसे ‘खाने की आजादी’ का मसला बना डाला। बीफ और पोर्क फेस्टिवल के संबंध में उनके अकाट्य तर्क मीडिया के सहारे दूर तक पहुंचने लगे। उन्होंने जमीनी हकीकत से दूर रहने वाले भारतीय मध्यवर्गीय हिंदुओं और मुसलमानों को बताना शुरू किया कि ”बीफ और पोर्क हिंदू दलितों के भोजन का न सिर्फ अविभाज्य अंग रहा है बल्कि गरीब लोगों के लिए सस्ते प्रोटीन का यह सबसे बड़ा माध्यम है। लगभग पूरा पूर्वोत्तर भारत इन दोनों खाद्यों का उपभोग करता रहा है। जेएनयू में चूंकि देश भर के विद्यार्थी पढ़ते हैं, इसलिए उन पर भोजन की आदतों को छिपाये रखने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाये रखना गलत है।’’ बहरहाल, संघ ने इस बार ‘ईश निंदा’ के स्थान पर कथित ‘राष्ट्र निंदा’’ के आधार पर हमला किया। उन्होंने ईश्वर के स्थान पर राष्ट्र को स्थापित किया, जिसके बारे में कोई भी सवाल करना, तर्क करना पाप है और पापी को प्रताडित करना पूण्य। शिक्षण संस्थानों में सरस्वती मंदिर की स्थापना की मांग करने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों सत्ता में हैं। भाजपा सरकार ने जेएनयू में कथित देशद्रोह की घटना का संदर्भ देते हुए गत 18 फरवरी को आदेश दिया है कि हर विश्वविद्यालय में 207 फीट उंचा राष्ट्र ध्वज तिरंगा लगाया जाए, जिसकी शुरूआत जेएनयू से हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर उनकी यह योजना निर्विरोध सफल हुई तो राष्ट्र ध्वज स्थल पर बाद में ‘भारत माता’ की शेर सवार मूर्ति बनाने का भी ज्यादा विरोध नहीं हो पाएगा। आजादी के बाद शक्ति के जो ब्राह्मणवादी मिथ गढ़े गये हैं, उनमें ‘माता शेरावाली दुर्गा’ और ‘भारत माता’ एक ही हैं। सांस्कृतिक वर्चस्व के लिहाज से इन प्रतीकों के बड़े गहरे अर्थ हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सांस्कृतिक वर्चस्व ही आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व के मूल में रहता है। राष्ट्र ध्वज लगाना सभी भारतवासियों के लिए गौरव की बात है, लेकिन जिस परिस्थितियों और जिस मंशा से भाजपा सरकार इसे कर रही है, उसकी निंदा की जानी चाहिए।

जेएनयू में बहुजन आन्दोलन

अगर हम जेएनयू में पिछले महीने घटे घटनाक्रम को उसकी पृष्ठभूमि समेत कड़ी दर कड़ी देखें तो पाएंगे कि ‘बहुजन और वाम’ के बीच बनती उपरोक्त एकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खतरे की घंटी की रूप में लिया। इसकी पृष्ठभूमि को संपूर्णता में समझने के लिए हमें अक्टूबर, 2011 में जेएनयू में ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम’ द्वारा पहली बार आयोजित हुए ‘महिषासुर शहादत दिवस’ तथा ‘द न्यू मटरियलिस्ट’ की ओर से सितंबर, 2012 में प्रस्तावित ‘फूड फ्रीडम’ आंदोलन की ओर लौटना होगा। इन दोनों आयोजनों को करने वाले अलग-अलग संगठनों के नामों पर ध्यान दें। महिषासुर दिवस मनाने वाला संगठन ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम’ घोषित रूप से ओबीसी विद्यार्थियों का संगठन था। ‘फूड फ्रीडम’ को मुद्दा बनाने वाले संगठन ‘द न्यू मटेरियलिस्ट’ का नाम भी बहुजनों की विस्मृत दार्शनिक परंपरा ‘लोकायत’ से संबद्ध है। ‘द न्यू मैटरियलिस्ट’ के अगुआ वैज्ञानिक भौतिकवाद में रूचि रखने वाले ओबीसी और दलित छात्र ही थे।

‘खाने की आजादी’ वाले आंदोलन, जिसे कुछ लोगों ने ‘बीफ -पोर्क फेस्टिवल’ का नाम दिया था और जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। इसके खिलाफ न्यायालय में ‘राष्ट्रीय गौरक्षिणी सेना’ ने याचिका दायर की थी तथा ‘विश्व हिंदू परिषद व संघ परिवार के अन्य प्रतिनिधियों’ ने जेएनयू के तत्कालीन कुलपति से मुलाकात कर आयोजकों पर कड़ी कार्रवाई की मांग थी। इस प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के बाद कुलपति ने ‘द न्यू मटेरियलिस्ट’ के ओबीसी समुदाय से आने वाले छात्र नेता को निलम्बित कर दिया था तथा तीन अन्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। (देखें, ‘हिन्दुत्ववादियों से भयभीत हुआ जेएनयू’, फारवर्ड प्रेस, अक्टूबर, 2012)

इस आयोजन के तहत विवि परिसर के एक मैदान में विभिन्न प्रदेशों के खाद्य पदार्थों के साथ इच्छुक छात्रों को बीफ और पोर्क परोसा जाना था। इससे पहले इस तरह का आयोजन हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में हो चुका था, तथा दोनों ही जगहों पर इसे बहुजन विद्यार्थियों के प्रिय प्रोफेसर कांचा आयलैया का वैचारिक वरदहस्त प्राप्त था।

महिषासुर और फूड फ्रीडम आंदोलन के बाद वर्ष 2011 और 2012 में विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विभिन्न अनुषांगिक संगठनों के जो बयान और प्रतिक्रियाएं आईं, उन्हें पढऩे पर यह महसूस होता है कि वे आरंभ में समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह हो क्या रहा है।

‘खाने की आजादी’ की मांग करने वाले प्रस्तावित आयोजन ने तो दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद वहीं दम तोड़ दिया लेकिन महिषासुर दिवस का आयोजन 2011 के बाद से हर साल न सिर्फ जेएनयू में होता रहा, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी यह बहुत तेजी से फैला। वर्ष 2013 में इसका आयोजन विभिन्न विश्वविद्यालयों समेत लगभग 100 शहरों-कस्बों में हुआ। इनकी संख्या 2015 में बढ़कर 350 से भी अधिक हो गयी। इसी बीच मई, 2014 में केंद्र में संघ परिवार के राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी की सरकार आ गयी थी। संघ ने महिषासुर आंदोलन के उत्स के तौर पर फारवर्ड प्रेस पत्रिका को चिन्हित किया तथा इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अक्टूबर, 2014 में कुछ हिंदूवादी संगठनों से जुड़े लोगों ने फारवर्ड प्रेस पर इस प्रकरण को लेकर पुलिस में मुकदमा दर्ज करवाया। विभिन्न समाचार पत्रों ने इस संबंध में अपनी रिपोर्ट में पुलिस सूत्रों के हवाले से बताया था कि इस मामले को लेकर पत्रिका के कार्यालय पर छापा केद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर मारा गया था। इस दौरान जहां ‘द हिंदू’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘डेक्कन हेराल्ड’, ‘जनसत्ता’ आदि ने फारवर्ड प्रेस के इस पक्ष को भी सामने रखा कि जेएनयू में हुए आयोजन से पत्रिका का कोई सीधा संबंध नहीं है वहीं ‘पांचजन्य’, ‘आर्गेनाइजर’ के अतिरिक्त ‘पायनियर’, ‘दैनिक जागरण’ आदि दक्षिणपंथी पत्र फारवर्ड प्रेस के संबंध में निरंतर दुष्प्रचार में संलग्न रहे।

2015 में पांचजन्य

बहुजन विमर्शों के इस उभार पर संघ की ओर से वास्तविक हमले की शुरूआत उसके बाद शुरू हुई। संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने 8 नवंबर, 2015 के अंक में आवरण कथा के रूप में एक सनसनीखेज व उत्तेजक रिपोर्ट छापी, जिसका शीर्षक था ‘जेएनयू : दरार का गढ़’। उन्होंने सिर्फ यह रिपोर्ट छापी ही नहीं बल्कि समाचार माध्यमों को इसके बारे में विशेष तौर पर सुचित भी किया कि वे इसका संज्ञान लें। नवंबर, 2015 के पहले सप्ताह में विभिन्न समाचार चैनलों पर ‘पांचजन्य’ की यह रिपोर्ट सुर्खियां बनी रहीं। इसी रिपोर्ट से पहली बार यह स्पष्ट हुआ कि जेएनयू में बढ़ रही वाम-बहुजन एकता ही संघ के असली निशाने पर है। आगे हम पांचजन्य की उपरोक्त रिपोर्ट के कथ्यों को देखेंगे तथा उनसे पुलिस केगुप्तचर विभाग की उस रिपोर्ट का मिलान करेंगे, जो फरवरी, 2016 में जेएनयू में कथित देश विरोधी नारे लगाये जाने के बाद गृहमंत्रालय को भेजी गयी है। इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि किस प्रकार संघ और पुलिस एक ही भाषा बोल रहे थे तथा किस प्रकार संघ के एजेंडे पर जेएनयू का कथित ‘देशद्रोह’ इसलिए आया ताकि इस बहाने ‘बहुजन विमर्शों’ को कुचल डाला जाए।

पांचजन्य और सरकारी गुप्तचर

जैसा कि हमने उपर संकेत किया कि जेएनयू की हालिया घटना सिर्फ कथित ‘देशद्रोही’ नारों के कारण नहीं घटित हुई है। उनका असली उद्देश्य मुसलमानों पर हमले के साथ-साथ ब्राह्मणवादी संस्कृति का प्रतिकार करने वाले हिंदू बहुजनों को बदनाम करना है।

आइए, पहले देखें कि पांचजन्य ने अपने 8 नवंबर, 2015 के अंक की आवरण कथा ‘जेएनयू : दरार का गढ़’ में क्या कहा था।

पांचजन्य लिखता है कि ”जेएनयू एकमात्र ऐसा संस्थान है, जहां राष्ट्रवाद की बात करना गुनाह करने जैसा है। इसे वामपंथियों का गढ़ कहा जाता है, भारतीय संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर गलत तथ्यों के साथ प्रस्तुत करना यहां आम बात है। उदाहरण के तौर पर जब पूरे देश में मां दुर्गा की पूजा होती है तो यहां कथित नव वामपंथी छात्र और प्रोफेसर महिषासुर दिवस मनाते हैं। आतंकवाद प्रभावित कश्मीर से सेना को हटाने की मांग करते हैं। महिषासुर दिवस मनाने वाले अपने आप को पिछड़े, वंचित एवं वनवासियों का प्रतिनिधि बताते हैं तथा महिषासुर को पिछड़े, वंचित एवं वनवासियों के नायक-भगवान के रूप में प्रदर्शित करते हैं।’’

जेएनयू के बदलते स्वरूप को चिन्हित करते हुए पांचजन्य लिखता है कि ”कुछ समय पूर्व वामपंथियों की देश व समाज तोडऩे की नीति कुछ और होती थी लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव आया है। आज इन्होंने अपने चेहरे व अपनी वैचारिक लड़ाई के क्षेत्र बदल लिए हैं। अब वे लेनिन की प्रस्थापनाएं नहीं दोहराते बल्कि उनके स्थान पर वे सेकुलरवाद, अल्पसंख्यक अधिकार, मानवाधिकार, महिला अधिकार व समाज के वंचित तबके के अधिकारों का सहारा लेकर अपने कार्यों को बड़ी ही आसानी के साथ अंजाम देते हैं। इस जहर की लहलहाती फसल को विश्वविद्यालय के प्रत्येक स्थान पर देखा जा सकता है। जेएनयू परिसर दीवारों पर लिखे नारों, पंफलेट और पोस्टरों से पटा रहता है। इनमें से अधिकतर नारे व पोस्टर भारतीय संस्कृति, सभ्यता व समाज व देश को विखंडित करने वाले होते हैं।’’ पांचजन्य इस रिपोर्ट में नारों, पोस्टरों में आए इन बदलावों का दोष ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा चलाये गये विमर्शों पर मढ़ता है तथा एक उपशीर्षक ‘फारवर्ड प्रेस का विवि कनेक्शन’ के तहत इसकी भत्र्सना करता है। पांचजन्य को ‘बहुजन’ अवधारणा से चिढ़ है। वह लिखता है कि वे panchjanya1”वंचित व वनवासी लोगों को मिलाकर एक नयी संज्ञा दे रहे हैं-बहुजन।…कुछ वर्ष पहले जेएनयू में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें वक्ता के रूप में उस्मानिया विश्वविद्यालय में सहायक प्रो. रहे कांचा आयलैया व जेएनयू के प्रोफेसर ए.के.रामकृष्णन, एस.एन.मालाकार ने अपने भाषणों में उच्च वर्ग के हिन्दुओं के खिलाफ जमकर जहर उगला।’ दरअसल, संघ के मुख्यपत्र पांचजन्य, आर्गेनाइजर के अतिरिक्त पायनियर, दैनिक जागरण जैसे पत्रों तथा नीति सेंट्रल, सेंट्रल राइट इंडिया, इंडिया फैक्टस जैसी दक्षिणपंथी रूझान वाली वेबवसाइटों को भी ‘बहुजन’ अवधारणा से खासी परेशानी रही है। इनमें प्रकाशित लेखों में इस अवधारणा का इस आधार पर विरोध किया जाता रहा है कि ‘संविधान सम्मत अवधारणा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग’ है। उनके अनुसार इन सभी तबकों तथा जाति प्रथा का विरोध करने वाले द्विजों को साथ लेकर चलने वाली ‘बहुजन’ की अवधारणा हिंदुओं के खिलाफ एक विदेशी षडयंत्र है। जेएनयू में वामपंथ की धारा जिस ओर जा रही थी, उसका झुकाव दूसरे शब्दों में कहें तो इसी ‘बहुजन’ अवधारणा की ओर था।

पांचजन्य अपनी कवर स्टोरी में जेएनयू को इसी कारण ‘देश को तोडऩे वाला’, ‘हिन्दू समाज के अभिन्न अंग वर्णव्यवस्था के बारे में भ्रामक बातें बोलकर भोले-भाले हिंदू नवयुवकों को बरगलाने’ वाला तथा ‘सवर्णों के खिलाफ जहर उगलने वाला’ बताता है तथा प्रकारांतर से सवर्ण समाज और अपनी सरकार को इसके खिलाफ मुहिम चलाने के लिए कहता है। यह अकारण नहीं है कि इस आवरण कथा का एक हिस्सा जेएनयू के पूर्वछात्र रवींद्र कुमार बसेड़ा के नाम से छापा गया है। बसेड़ा उन लोगों में से हैं, जिन्होंने 2014 में महिषासुर दिवस के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया था तथा पुलिस को दी गयी शिकायत में इस आयोजन को ‘ब्राह्मण और ओबीसी के बीच सामाजिक तनाव’ बढ़ाने वाला बताया था।

पांचजन्य ने अपनी उपरोक्त रिपोर्ट में आक्रमक ले-आउट के साथ ‘जेएनयू लीला’ शीर्षक से एक बॉक्स भी प्रकाशित किया, जिसमें जेएनयू की दुष्टताएं गिनायीं थीं :

जेएनयू लीला:

* वर्ष 2000 में कारगिल में युद्ध लडऩे वाले वीर सैनिकों को अपमानित कर विवि में चल रहे मुशायरे में भारत-निंदा का समर्थन किया।

* वर्ष 2010 में बस्तर में नक्सलियों द्वारा 72 जवानों की हत्या पर जश्न मनाया गया।

* मोहाली में विश्वकप क्रिकेट के समय भारत-पाक मैच के दौरान भारत के विरुद्ध नारे लगाए गए।

* जेएनयू में भोजन के अधिकार की आड़ लेकर यहां गोमांस परोसने के लिए हुड़दंग किया जाता है।

* जम्मू-कश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों की स्वतंत्रता के लिए खुलेआम नारे लगाए जाते हैं।

* आतंकी अफजल की फांसी पर यहां विरोध में जुलूस व मातम मनाया जाता है।

* फारवर्ड प्रेस की आड़ में यहां कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें हिन्दुओं के देवी-देवताओं का अपमान एवं समाज को तोडऩे का षड्यंत्र मिशनरियों द्वारा रचा जाता है।’’ (पांचजन्य, 8 नवंबर, 2015)

आगे हम देखेंगे कि किस आश्चर्यजनक विधि से नवंबर, 2015 में पांचजन्य की रिपोर्ट में लगाये गये उपरोक्त आरोप चार महीने बाद फरवरी, 2016 में पुलिस के गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में बदल गये। पांचजन्य की रिपोर्ट और गुप्तचर विभाग की निम्नांकित रिपोर्ट का भाव एक है, मूल कथ्य समान है, लगाए गये आरोप समान हैं, बहुजनवादी विचार धारा वाले छात्र संगठनों को कुछ अतिवादी समूहों से जोड़ डालने की साजिशें समान हैं। सिर्फ फर्क है तो भाषा का। पांचजन्य की भाषा में जहां साहित्यिक झालरें हैं, वहीं गुप्तचर विभाग की भाषा स्वाभाविक रूप से शुष्क सरकारी भाषा है।

दिल्ली पुलिस की रपट

9 फरवरी, 2016 को जेएनयू में लगाये गये कथित देशद्रोही नारे के बाद 15 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने अपने गुप्तचर विभाग के अधिकारियों से प्राप्त सूचना के आधार पर भारत सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी, जिसे ‘गृह मंत्रालय के सूत्रों’ ने प्रेस को जारी कर दिया, जिसके आधार पर 17 और 18 फरवरी को फस्र्टपोस्ट, द हिदू, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, द टेलीग्राफ आदि समेत विभिन्न अखबारों तथा टीवी चैनलों ने जेएनयू में ‘नवरात्र के समय महिषासुर दिवस के आयोजन’ तथा ‘जेएनयू मेस में बीफ की मांग’ से संबंधित खबरें प्रसारित कीं। हालांकि भाजपा समर्थक जी न्यूज व कुछ अन्य चैनलों/पत्रों को छोड़ कर अधिकांश समाचार माध्यमों ने इन आयोजनों को ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में रखने को लेकर सरकार पर तंज ही कसा लेकिन तथ्यों की जानकारी न होने के कारण वे भी इसे पूरी तरह समझ नहीं सके।

आइए, देखें कि इस रिपोर्ट में क्या है। चार पेज की यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस के गुप्तचर विभाग ने बनायी है, जिसका शीर्षक है ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 09.02.16 की घटना पर रपट’। रिपोर्ट के पहले दो पेज 9 फरवरी की घटना पर केंद्रित हैं। उसके बाद के दो पेज जेएनयू में ‘इससे पूर्व हुई घटनाओं’ के बारे में हैं, जिनमें सितंबर, 2014 में ‘नवरात्र फेस्टिवल के दौरान देवी दुर्गा की जगह महिषासुर दिवस’ मनाये जाने तथा ‘हॉस्टल मेस में बीफ मांगने’, का उल्लेख है। पहला सवाल तो यही उठता है कि आखिर पुलिस ने अपनी रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा पूर्व की ऐसी घटनाओं पर क्यों खर्च किया, जिससे कथित ‘देशद्रोही’ नारों का कोई संबंध नहीं है? और यह रिपोर्ट किन कारणों से तुरंत प्रेस को उपलब्ध करवा दी गयी? इस रिपोर्ट के मीडिया में प्रकाशित होने से दो दिन पूर्व, 15 फरवरी को ही भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का एक बयान विभिन्न अखबारों में छपा, जिसमें उन्होंने ‘बीफ पार्टी का आयोजन करने तथा महिषासुर जयंती’ को देशद्रोही कृत्य बताते हुए इसे मनाने वाले जेएनयू को तत्काल बंद किये जाने का सुझाव दिया।

पहले रिपोर्ट के आरंभिक दो पन्नों को देखें, जिसमें देशद्रोही नारों वाली घटना का जिक्र है:

गृह मंत्रालय को भेजी गयी उपरोक्त रिपोर्ट के इन दो पन्नो में कहा गया है कि ”यहां यह बताना महत्वपूर्ण होगा कि विशेष शाखा की युवा व छात्र इकाई द्वारा लगातार जेएनयू के विद्यार्थियों, विद्यार्थी संगठनों व जेएनयू से जुड़े युवाओं व अन्य व्यक्तियों की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है।’’

रिपोर्ट में कहा गया है कि ”लगभग 5 बजे शाम को डीएसयू के छात्र, उनके नेता उमर खालिद, संयोजक, डीएसयू के नेतृत्व, में साबरमती ढाबे के पास एकत्रित हुए। कार्यक्रम स्थल पर लगभग 80-100 डीएसयू व वामपंथी छात्र थे।’’

साथ ही दावा किया गया है कि वाम समर्थित छात्र समूह नारे लगा रहे थे कि ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी’, ‘कश्मीर की आज़ादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी’, ‘इंडिया गो बैक’, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’, कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफज़ल निकलेगा।’

‘इस बीच एबीवीपी के लगभग 30-40 कार्यकर्ता, जेएनयूएसयू के संयुक्त सचिव श्री सौरव कुमार शर्मा के नेतृत्व में वहां पहुंचे और डीएसयू के खिलाफ ‘भारत माता की जय के नारे लगाने लगे।’

यहां यह भी ध्यान दें कि इस ‘सरकारी’ रिपार्ट में जहां वाम संगठनों से जुड़े सभी छात्रों के सिर्फ नाम लिखे गये हैं, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र-संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष सौरभ कुमार शर्मा के नाम के आगे सम्मानसूचक ‘श्री’ लगाया गया है।

इसके अतिरिक्त रिपोर्ट यह भी बताती है कि ‘लगभग 7.30 बजे डीएसयू व एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने साबरमती ढाबे से गंगा ढाबे की ओर कूच किया। वे एक दूसरे के खिलाफ नारे लगा रहे थे। 8.30 बजे डीएसयू व एबीवीपी के कार्यकर्ता शांतिपूर्वक तितर-बितर हो गए।’’

प्रश्न यह उठता है कि जब जेएनयू में कश्मीर को आत्मनिर्णय का अधिकार दिये जाने संबंधी ऐसे आयोजन, प्रदर्शन और नारेबाजी आम बात हैं तथा इस बार भी हमेशा की तरह दोनों गुटों के लोग नारा लगाने के बाद ‘शांतिपूर्ण’ तरीके से अलग हो गये थे, तो इस बार ऐसा क्या खास था, जिस कारण इतना बड़ा हंगामा खड़ा किया गया? रिपोर्ट कहती है कि ”एबीवीपी यह आरोप लगा रही है कि डीएसयू व अन्य वाम-समर्थित छात्र समूह राष्ट्र-विरोधी गतिविधियाँ कर रहे हैं। वह चाहती है कि राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलग्न छात्रों के विरुद्ध कार्यवाही होनी चाहिए।’’

उपरोक्त बातें रिपोर्ट के पहले दो पन्नों पर हैं।

पुलिस रपट पर संघ की छाप

अब इसके आगे के दो पन्नों को देखें, जिसे बिना किसी परिस्थितिजन्य संदर्भ के इस रिपोर्ट में जोड़ा गया है। इन दो पन्नों में रिपार्ट कहती है कि ‘16.10.2015 को एसीपीए युवा व छात्र इकाई, विशेष शाखा ने विश्वविद्यालय परिसर में तत्कालीन कुलपति सुधीर कुमार सोपोरी से मुलाकात की। इस बैठक में विभिन्न विषयों पर चर्चा की गयी, जिनमें परिसर में निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाने का प्रस्ताव शामिल था ताकि अवांछित गतिविधियाँ रोकी जा सकें। यह चर्चा भी हुई कि कुछ छात्र समूह जेएनयू परिसर में नारेबाजी और विरोध प्रदर्शन करते हैं। कई बार ऐसे प्रदर्शनों-नारों की प्रकृति राष्ट्र-विरोधी होती है। कई बार कंप्यूटर से तैयार किये गए आपत्तिजनक पोस्टर होस्टल परिसर में लगाये जाते हैं। कई मौकों पर ये पोस्टर समाज के देशप्रेम/धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने वाले होते हैं। यह भी तय पाया गया कि जेएनयू प्रशासन को पुलिस की मदद से डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन की आपत्तिजनक/राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों पर नियंत्रण किया जायेगा।’

jnuयहां ध्यान देने योग्य यह है कि स्पेशल ब्रांच के एसीपी स्तर के अधिकारी ने जेएनयू के कुलपति से 6 अक्टूबर, 2015 को मुलाकात की। महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन शरद पूर्णिमा को किया जाता है, जो पिछले साल 26 अक्टूबर को थी। स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय कैंपस में सीसीटीवी कैमरा लगाने की कवायद इसी आयोजन के मद्देनजर की जा रही थी। रिपोर्ट की शब्दावली पर भी ध्यान दें। यहां कितनी सफाई से ‘देशप्रेम/धार्मिक भावनाओं’ और ‘आपत्तिजनक/राष्ट्र-विरोध’ को एक दूसरे का पूरक बना दिया गया है। हम यह सवाल यहां फिलहाल छोड़ भी दें कि क्या भावनाएं सिर्फ ब्राह्मण संस्कृति के रक्षकों की ही आहत होती हैं या सिर्फ उन्हें पसंद नहीं आने से कोई चीज ‘आपत्तिजनक’ हो जाती है, तब भी यह सवाल तो बचा ही रह जाता है कि क्या वंचित तबकों द्वारा ‘महिषासुर दिवस’ का आयोजन ‘राष्ट्रद्रोह’ है? गौरतलब है कि बाद में क्रमश: 24 और 2६ फरवरी को लोकसभा और राज्यसभा में इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर सरकार ने भी महिषासुर आन्दोलन पर हमला बोला और इसे देशद्रोही कृत्यों से जोड़ दिया। रिपोर्ट में यह भी ध्यातव्य है कि इस आयोजन को बड़ी चतुराई से डीएसयू से जोड़ दिया गया है, जबकि यह सर्वविदित है कि यह आयोजन फूले-आम्बेडकरवाद पर आधारित बहुजन विद्यार्थियों का संगठन ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम’ करता था।

उपरोक्त रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘जेएनयू में अनेक वाम-समर्थित छात्र संगठन सक्रिय हैं। इनमें से अधिकांश अप्रतिक्रियाशील व नरम प्रकृति के हैं। वे अक्सर विभिन्न राष्ट्रीय व स्थानीय मुद्दों पर नारेबाजी, विरोध प्रदर्शन करते हैं परन्तु उनके आयोजनों में उपस्थिति बहुत कम रहती है। परन्तु दो छुपे हुए छात्र समूह 1.) डीएसयू व 2.) डीएसफ प्रतिक्रियाशील हैं। इनकी संख्या दस से कम है। कब-जब वे   कम्प्यूटर पर देवी-देवताओं की नग्न व आपत्तिजनक पोस्टर तैयार कर उन्हें दीवारों पर चिपकाते हैं, जिससे समाज की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाई जा सके। उनकी पूर्वकी गतिविधियों में शामिल है:

1) उन्होंने अफज़ल गुरु की मौत पर शोक मनाया।

2) उन्होंने 2010 में दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़ में सीआरपीफ़ जवानों की हत्या का जश्न मनाया।

3) उन्होंने देवी दुर्गा के स्थान पर पिछले वर्ष नवरात्रि के दौरान 14 सितम्बर को महिषासुर की पूजा की।

4) उन्होंने कश्मीरी अलगाववादी नेता गिलानी को सभा में आमंत्रित किया परन्तु जेएनयू प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी।

5) उन्होंने हॉस्टल की मेस में बीफ की मांग की। (गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट)

क्या पुलिस द्वारा रिपोर्ट में रखी गयी उपरोक्त आरोपों की सूची पांचजन्य की ‘जेएनयू लीला’ का भावानुवाद अनुवाद मात्र नहीं है? रिपोर्ट के इस हिस्से में यह भी कहा गया कि ‘ये समूह देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें दीवारों पर लगाते हैं, जबकि ऐसी कोई घटना जेएनयू में आज तक हुई ही नहीं। 2011 में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम ने जो पोस्टर जेएनयू की दीवारों पर लगाये थे, वह फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित प्रेमकुमार मणि के एक लेख ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?’ की कटिंग थी, जिसमें महिषासुर के बहुजन समुदाय से होने का उल्लेख था। उसमें न किसी देवी-देवता के प्रति कोई आपत्तिजनक बात थी, न ही कभी किसी देवी-देवता की कथित नंगी तस्वीर जेएनयू में लगायी गयी। पुलिस की रिपोर्ट एक सुनियोजित साजिश के तहत यह कहती है कि ‘उन्होंने देवी दुर्गा के स्थान पर पिछले वर्ष नवरात्रि के दौरान 14 सितम्बर को महिषासुर की पूजा की।’ जबकि सच्चाई यह है कि महिषासुर दिवस जेएनयू समेत पूरे देश में शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, दशहरा के दिन से पांच दिन बाद होता है और नवरात्र की तारीखें तो उससे भी पहले होती हैं। 2014 में भी जेएनयू समेत देशभर में महिषासुर दिवस 9 अक्टूबर को मनाया गया था, जबकि नवरात्र 25 सितंबर से लेकर 3 अक्टूबर तक था और दशहरा 4 अक्टूबर को था। जेएनयू में 2014 का महिषासुर दिवस फारवर्ड प्रेस पर मुकदमा होने के कारण काफी चर्चित रहा था। प्राय: सभी समाचार माध्यमों ने इससे संबंधित खबरें प्रसारित की थीं तथा पुलिस रिकार्ड में भी इसकी तारीख 9 अक्टूबर ही दर्ज है। ऐसे में यह समझना कठिन नहीं है कि ‘नवरात्र के दौरान महिषासुर दिवस के आयोजन’ की झूठी रिपोर्ट सिर्फ भावनाओं को भड़काने के लिए दी गयी है।

इसी प्रकार, यह कहना कि किसी छात्र संगठन ने ‘हॉस्टल मेस में बीफ परोसे जाने की मांग की’, भी सरासर झूठ है। ‘द न्यू मटेरियलिस्ट’ द्वारा ‘बीफ पोर्क फेस्टिवल’ का आयोजन सिर्फ कुछ घंटों के लिए एक मैदान में किया जाना था, न कि मेस में। यहां एक बार फिर से बहुत चतुराई से ‘बीफ-पोर्क’ में से ‘पोर्क’ को भी गायब कर दिया गया है, ताकि इसे एक धार्मिक रंग दिया जा सके। संविधान सम्मत सेकुरलवाद के स्थान पर हिंदू-सांप्रदायिकता को उकसाने वाली यह पुलिस रिपोर्ट इन दोनों आयोजनों के आयोजकों को छलपूर्वक डीएसयू तथा डीएसएफ से भी जोड़ देती है। इनमें से डीएसयू भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) से जुड़ा छात्र संगठन माना जाता है। पुलिस और सरकार की कोशिश है कि बहुजन युवाओं को सरकारी सुरक्षा ऐजेंसियों के रडार पर रहने वाले संगठनों से जोड़ दिया जाए, जिनसे वास्तव में उनकी वैचारिक संगति भी नहीं रही है, ताकि वे समाज से मिल रहा समर्थन खो दें तथा बाद में उन्हें पुलिस प्रताडऩा का शिकार बनाया जा सके।

बहरहाल, जेएनयू को पुलिस, सरकार और मीडिया के एक हिस्से के गठजोड़ के तहत ‘देशद्रोही’ साबित कर डालने के अभियान के पीछे की ये सच्चाइयां अंतिम नहीं हैं। इन परतों के नीचे भी कई परतें हैं। लेकिन इतना तय है कि उच्च शिक्षा में बहुजन युवाओं की दस्तक ने वर्चस्वकारी खेमों में जो हलचल मचायी है, उसकी उथल-पुथल और थरथराहटें आने वाले वर्षों मे भी जारी रहेंगी। जीत तो सत्य, समानता और न्याय की ही होनी है, चाहे इसमें कितना भी समय लगे।

विशेष आरक्षण प्रणाली

१. जेएनयू में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थियों को अनुसूचित पिछड़े जिलों के आधार पर विशेष अंक दिये जाते हैं। इसके लिए अलग जेएनयू के प्रोस्पेक्टस में 2011 के जनगणना के अनुरूप दो श्रेणियों में पिछड़े जिले अनुसूचित किये गये हैं । प्रथम श्रेणी के अनुसूचित पिछड़े जिले के विद्यार्थियों को 5 विशेष अंक और द्वितीय श्रेणी के अनुसूचित पिछड़े जिले के विद्यार्थियों को विशेष 3 अंक दिये जाते हैं। इसके लिए उनका उन जिलों का निवासी होना जरूरी है। इसके अलावा जिन्होंने जे एन यू में दाखिले के लिए अहर्ता परीक्षा दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम के जरिये उत्तीर्ण की है, वे भी 3 या 5 विशेष अंकों के पात्र होते हैं।

२. कश्मीरी विस्थापितों को भी दस्तावेजी प्रमाण या सक्षम प्राधिकारी द्वारा उनके कश्मीरी विस्थापित होने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने पर 5 विशेष अंक दिये जाते हैं

३. सैन्यकर्मी श्रेणी के निम्न उम्मीदवारों को 5 विशेष अंक दिये जाते हैं :

अ) युद्ध में मारे गए सैन्यकर्मियों की विधवाएंध् संतान

ब) युद्ध में अपंग हुए सेवारत व पूर्वसैन्यकर्मियों की विधवाएं/ संतान

स) शांतिकाल में सैनिक कार्यवाही में मारे गए सैन्यकर्मियों की विधवाएं/ संतान

द) शांतिकाल में सैनिक कार्यवाही में अपंग हुए सैन्यकर्मियों की विधवाएं/ संतान

इ) सभी महिला उम्मीदवारों को 5 वंचन अंक प्रदान किये जायेगें

(किसी भी उमीदवार को 10 से अधिक वंचन अंक नहीं दिए जायेगें)

नोट: उपरोक्त प्वाईट केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित एससी, एसटी, ओबीसी व विकलांग विद्यार्थियों के लिए निर्धारित आरक्षण के अतिरिक्त दिये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर कोई ओबीसी विद्यार्थी पिछड़े जिले से आता है तो केंद्र सरकार द्वारा निधार्रित 27 फीसदी आरक्षण के अतिरिक्त 5 प्वाईंट भी मिलेंगे, जो कि शहरी ओबीसी विद्यार्थी को नहीं मिलेंगे।

(महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्‍तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)। घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )

लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

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