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सिद्धरामैया : सच्चे लोहियावादी

सिद्धरामैया राज्य की एक पिछड़ी जाति कुरबा से ताल्लुक रखते हैं और जनता के बीच काफी लोकप्रिय हैं। वे जिस तरह विकट परिस्थितियों में संघर्ष कर ऊपर उठे है, वह निस्संदेह प्रेरणास्पद है

2014  के लोकसभा चुनावों में सिद्धरामैया ने राज्य के चामराजनगर जिले से अपना चुनाव प्रचार शुरु किया। चामराजनगर के बारे में यह धारणा है कि जो भी मुख्यमंत्री वहाँ का दौरा करता है उसकी सत्ता छह महीने में चली जाती है।

कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जो आमतौर पर अपने शांत वातावरण और विशिष्ट संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। वहीं इस दक्षिणी प्रदेश से आज भी महिलाओं के देवदासी बनने और ब्राह्मण पुजारियों के जूठे पत्तलों में भोजन करने की खबरें आती रहती हैं। जनमानस में अंधविश्वास इस कदर व्याप्त है कि एक प्रसिद्ध तर्कवादी कलबुर्गी की हत्या कर दी जाती है और कई अन्य नामचीन लेखक पुलिस की सुरक्षा में जीने को विवश हैं। धर्म और राजनीति का घालमेल इतना है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी, धर्मगुरुओं की शरण में जाए बिना अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाती। पूर्ववर्ती सरकार ने तो वर्षा के लिए यज्ञ आयोजित करने के लिए करोड़ो रुपए पुजारियों पर सरकारी खजाने से दिए थे। नेता, जनता के दरबार में कम और स्वामियों के यहाँ हाजिरी लगाते ज्यादा देखे  जाते हैं। गांधी ने भी दक्षिण में धर्म के प्रति इस आग्रह को लेकर टिप्पणी की थी कि उत्तर की तुलना में दक्षिण के लोगों में धर्म भाव ज्यादा दिखता है। छोटे-बड़े मंदिरों में भारी भीड़ दिखती है  लेकिन धर्म का सच्चा रूप उनके मन से गायब है और वे निचली जातियों के प्रति घोर असहिष्णु हैं।

सिद्धरामैया

ऐसे प्रांत मे एक ऐसे व्यक्ति का मुख्यमंत्री होना सुखद लगता है जो अपने को नास्तिक कहता है और जनता को अंधविश्वासों के अनुकरण के लिए फटकारता है। विचारधारा से खाँटी समाजवादी, सिद्धरामैया का राजनीतिक प्रशिक्षण समाजवादी राजनेताओं और विचारकों की संगति में हुआ। वे राममनोहर लोहिया के राजनीतिक सिद्धांतों से प्रभावित हैं।

रामकृष्ण हेगड़े, देवराज उर्स और देवेगौडा के साथ काम कर चुके सिद्धरामैया, देवगौडा के पुत्रमोह के चलते जनता दल छोड़कर सन 2007 में कांग्रेस मे शामिल हो गए थे। वे राज्य की एक पिछड़ी जाति कुरबा से ताल्लुक रखते हैं और जनता के बीच काफी लोकप्रिय हैं। वे जिस तरह विकट परिस्थितियों में संघर्षकर ऊपर उठे है, वह निस्संदेह प्रेरणास्पद है। कहते हैं कि सिद्धरामैया के घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति के चलते, सातवीं कक्षा के बाद उनके पिता अपने बेटे को आगे नहीं पढ़ाकर भेड़ चराने के पुश्तैनी काम मे लगाना चाहते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया और आगे पढऩे की जिद की। ज्योतिष में विश्वास रखने वाले पिता, बेटे को पास के किसी ज्योतिषी के पास ले गए। लेकिन जहां राजयोग और शिक्षा प्राप्त करना सिर्फ  क्षत्रियों और ब्राह्मणों की कुंडली की चीज हो, वहाँ किसी गड़रिये के बच्चे की किस्मत में शिक्षा दिखाना वर्णवादी व्यवस्था की जड़ खोदना है। भला ज्योतिषी यह पतित कार्य क्यों करते? पंडित ने शूद्रों के लिए जो काम शास्त्रों में निर्धारित है, वही बता दिया कि लड़के के भाग्य में भेड़ चराना ही लिखा है। लेकिन लड़के ने इसे नहीं स्वीकारते हुए अपनी आगे पढऩे की इच्छा को नहीं त्यागा। विवश हो, पिता ने पुत्र की बात स्वीकार करते हुए उसे आगे पढ़ाने का निश्चय किया। मगर इस घटना ने उन्हें नास्तिक बना दिया ।

उनके मंत्रिमंडल के एक सदस्य ने विधानसभा भवन के अपने कार्यालय की एक दीवार इसलिए गिरवा दी थी क्योंकि वास्तुशास्त्र के हिसाब से वह अमंगल थी। सिद्धरामैया ने अपने सहयोगी के इस कृत्य की आलोचना करते हुए अपने मंत्रियों को अंधविश्वासों से दूर रहने की सीख दी। और उनकी कथनी व करनी में कोई अंतर नहीं है। कर्नाटक के अब तक के सभी मुख्यमंत्री अपने कार्यालय में हमेशा पश्चिमी दरवाजे से प्रवेश करते थे और दक्षिणी दरवाजा हमेशा बंद रखा जाता था क्योंकि दक्षिणी दरवाजे से प्रवेश करना, अशुभ समझा जाता है। सिद्धरामैया ने तय किया कि वे केवल दक्षिणी दरवाजे से ही कार्यालय में प्रवेश करेंगे। यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनावों में सिद्धरामैया ने राज्य के चामराजनगर जिले से अपना चुनाव प्रचार शुरु किया। चामराजनगर के बारे में यह धारणा है कि जो भी मुख्यमंत्री वहाँ का दौरा करता है उसकी सत्ता छह महीने मे चली जाती है। इस लिहाज से निश्चित तौर पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री अन्य राजनेताओं से काफी अलग खड़े नजर आते हैं। सिद्धरामैया ने जैन समुदाय से आने वाले एक विधायक को मत्स्य और पशुपालन मंत्री बनाया। राज्य के जैन समुदाय ने उस मंत्री का यह कह कर विरोध किया कि यह हिंसा से जुड़ा हुआ विभाग है और मंत्री को या तो अपना विभाग बदलना चाहिए या इस्तीफ़ा देना चाहिए। मंत्री ने अपने समुदाय की भावनाओं का हवाला देते हुए सिद्धरामैया से अनुरोध किया कि वे उन्हें कोई दूसरा विभाग प्रदान करें और इसके साथ ही अपना इस्तीफ़ा भी भेज दिया। लेकिन सिद्धरामैया ने इस्तीफे को अस्वीकार करते हुए कहा की ऐसा कोई भी विभाग बुरा नही हो सकता जो जनता की भलाई से सीधे जुड़ा होता है। अभी कुछ समय पहले, मुख्यमंत्री ने तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया और समाचारपत्रों में राशिफल दिखाने और प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसका काफी विरोध हुआ। लेकिन प्रतिबंध कायम है।

कर्नाटक की राजनीति में हमेशा से वोक्कलिंगा और लिंगायत समुदायों का वर्चस्व रहा है। प्रदेश की राजनीति इन्हीं दोनों समुदायों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। मंत्रिमंडल में भी इन्हीं दो जातियों के लोग प्रभावशाली रहते हैं। पिछली भाजपा सरकार में तो एक भी दलित या मुस्लिम मंत्री नहीं था। पार्टी से निकाले जाने के बाद, भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा था कि उन्हें संघ की तरफ  से यह स्पष्ट आदेश था कि किसी भी दलित और मुस्लिम को मंत्री नहीं बनाया जाए। इससे भाजपा और संघ के दलित और मुस्लिम विरोधी रुख का पता चलता है। विधानसभा चुनाव में सिद्धरामैया ने ओबीसी, अनुसूचित जति और जनजाति की ऐसी जातियों के सदस्यों को टिकट दिये थे, जिनसे आज तक कोई विधायक नहीं बन पाया था और कुछ ने तो कभी चुनाव तक नही लड़ा था। निश्चित रूप से यह एक प्रगतिशील कदम था। आज भी कर्नाटक में  दलितों और पिछड़ों में कुछ ही जातियाँ राजनीतिक रूप से वर्चस्वशाली है। बाकी जातियाँ उनके पीछे चलने को  विवश हैं। यही नहीं, उन्होने 70 वर्ष की आयु के बाद चुनाव नही लडऩे की घोषणा भी कर रखी है। इसके बाद वे राजनीति में तो सक्रिय रहेंगे लेकिन लाभ का कोई पद नहीं स्वीकारेंगे।

भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में जहां सिद्धांतों की राजनीति का सर्वथा अभाव दिखता है और छल, छद्म का वातावरण व्याप्त है, वहाँ एक मुख्यमंत्री की सिद्धांतवादी राजनीति और प्रगतिशील विचारों की सराहना और प्रशंसा की जानी चाहिए। राममनोहर लोहिया से राजनीति का पाठ पढऩे वाले नेताओं ने सत्ता पाते ही क्या किया यह सर्वविदित है। वहीं सिद्धरामैया, लोहिया के सच्चे अनुयायी साबित होते हैं। भले ही वे कांग्रेस से मुख्यमंत्री बने हों लेकिन आज भी वे दिल से वही पुराने समाजवादी हैं। इसे कांग्रेस के लोग भी स्वीकार करते हैं और उन्हें पार्टी में एक अलग तरह का नेता माना जाता है। कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की बातें तो खूब करती है लेकिन अंदरखाने, नरम हिंदुत्व की तरफ  उसका झुकाव हमेशा से रहा है।

दक्षिणपंथी संगठनों के जबर्दस्त विरोध और हिंसा और अपनी पार्टी के एक धड़े के विरोध के बावजूद उन्होने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लोहा लेने वाले महान सम्राट टीपू सुल्तान की राज्य स्तर पर जयंती मनाकर यह सिद्ध कर दिया कि वे अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं करेंगे।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

भंवर सिंह

भंवर सिंह जैन यूनिवर्सिटी, बेंगलुरू के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं

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