क्या लोकसभा में अनुसूचित/अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग से चुनकर आए सांसदों और मंत्रियों की उपस्थिति के बल पर भारतीय समाज के दलित और दमित वर्ग की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बदली जा सकती है? क्या दलितों के मंत्री बना देने से दलितों की समस्या ख़त्म हो जाएँगीं? हैदराबाद में आत्महत्या कर चुके रोहित वेमुला से लेकर दलितों के तमाम मुद्दे उठते रहे तब पिछले 5 जुलाई को हुए मंत्रीमंडल के विस्तार में मंत्री बने दलित सांसद- अजय टमटा, कृष्णा राज, अर्जुन राम मेघवाल या राम दास अठावले कहाँ थे? जब-जब आरक्षण समाप्त करने का मसला उठता है तो इनमें से कोई भी दलित चेहरा क्यों सामने नहीं आया? किसी भी दलित सांसद अथवा मंत्री का कोई बयान सामने नहीं आया। तो कैसे मान लिया जाए कि संसद में दलितों का प्रतिनिधित्व है। लेकिन संख्या के आधार पर तो यह सही है कि संसद में दलितों का समुचित प्रतिनिधित्व है। सवाल यह भी है कि सत्तारूढ़ बीजेपी के पास सबसे अधिक दलित सांसद हैं। फिर बीजेपी के अब तक के शासन में दलितों पर इतनी संख्या में उत्पीड़न नहीं होना चाहिए था, किंतु हुआ। कुल मिलाकर ये दलित सांसद कैबिनेट मंत्री बनें या राज्य मंत्री दलितों की सामाजिक अवस्था पर कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं पड़ता, केवल और केवल दलित सांसदों के निजी हित जरूर सध जाते हैं।
मेघवाल श्रेष्ठ सांसद चुने गए हैं, कोई इनसे पूछे कि घर से संसद भवन तक केवल साईकिल से आना-जाना ही इनके श्रेष्ठ सांसद होने का आधार है? समाज के हक में क्या किया? खेद की बात है कि निजी हितों को साधने की चिंता में उनके जैसे तमाम दलित सांसद दलित मुद्दों के समय चुप रहते हैं। केंद्र ही नहीं राज्यों में भी ऐसा ही होता है।
बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने अंतिम दिनों में दुखी होकर कहा था कि मुझे दलित वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों ने ही धोखा दिया है। इस वक्तव्य के आलोक में देखा जाए तो दलित समाज की आज जो भी दयनीय स्थिति बनी हुई है, वह दलित समाज के पढ़े-लिखे या यूँ कहे कि समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों की स्वार्थ- निष्ठा की ही देन है। बाबा साहेब ने इस बारे में आगाह भी किया था, “प्रत्येक देश में बुद्धिजीवी वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग रहा है, वह भले ही शासक वर्ग न रहा हो। बुद्धिजीवी वर्ग वह है, जो दूरदर्शी होता है, सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर सकता है। किसी भी देश की अधिकांश जनता विचारशील एवं क्रियाशील जीवन व्यतीत नहीं करती। ऐसे लोग प्राय: बुद्धिजीवी वर्ग का अनुकरण और अनुगमन करते हैं। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी देश का सम्पूर्ण भविष्य उसके बुद्धिजीवी वर्ग पर निर्भर होता है। यदि बुद्धिजीवी वर्ग ईमानदार, स्वतंत्र और निष्पक्ष है तो उसपर भरोसा किया जा सकता है कि संकट की घड़ी में वह पहल करेगा और उचित नेतृत्व प्रदान करेगा। बुद्धिजीवी धोखेबाजों का एक गिरोह या संकीर्ण गुट के वकीलों का निकाय हो सकता है, जहां से उसे सहायता मिलती है। आपको यह सोचकर खेद होगा कि भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का ही दूसरा नाम है। आप इस बात पर खेद व्यक्त करेंगे कि ये दोनों एक हैं।”समसामयिक संदर्भों पर गौर किया जाये तो डा. आंबेडकर के व्यावहारिक संघर्षों में भी केवल कुछ ही जातियाँ शामिल हो पायी थीं।
दलित जातियों के बाहर के भी अनेक लोग हैं, जो बाबा साहेब के सामाजिक आर्थिक-चिंतन से खासे प्रभावित हैं किंतु समाज की यथास्थिति को बनाए रखने के पक्षधर हैं। आज मूल चिंता का विषय यही है कि राजनीति में जगह बनाए रखने के लिए तो अधिकतर दलित राजनेता किसी न किसी राजनीतिक दल की छत्रछाया तलाश कर अपने निजी हितों की पूर्ति में रत रहते हैं और ऊपरी तौर पर बाबा साहेब को सिर पर बिठाए हुए हैं, किंतु उनकी चिंताओं के निराकरण की दिशा में कोई भी काम करने को तैयार नहीं। कहना वाजिब ही होगा कि वर्चस्वशाली राजनीतिक दल दलित राजनेताओं की नब्ज को जरूर जान गए हैं और उनको लालीपाप थमाकर खुद तो सत्ता सुख भोगते हैं और दलित राजनेता अँगूठा चूसता रहता है, और दलित समाज की छाती पर मूँग दलने का काम करता है। बेचारा दलित वोटर “अपने” के चक्कर में पड़कर ठगा रह जाता है।
इसमे बीजेपी या अन्य गैरदलित राजनीतिक दलों का कोई दोष नहीं हैं। सारे राजनीतिक दल सत्ता हथियाने की कोशिश करते ही हैं। राजनीतिक दलों का काम ही यह होता है लेकिन आज दलितों का दुखद पहलू यह है कि हमारे लोग अब भी गफलत में हैं। मुझे तो लगता है कि बाबा साहेब के ऐसे तथाकथित दलित राजनेताओं के होते राजनीतिक सत्ता वह मास्टर चाबी है, जो कभी हाथ नहीं लगने वाली।
सारांशत: वर्तमान मंत्रीमंडल के विस्तार से एक बात तो स्पष्ट है कि दलित तबके से पाँच नए मंत्री बनाए जाने के पीछे बीजेपी की मंशा दलित वोटों को हथियाने का ही है उत्तर प्रेदश में मायावती के दलित वोटर को टार्गेट किए जाने की कोशिश की गई है। क्योंकि अन्य प्रेदेशों से पहले उत्तर प्रदेश में ही चुनाव होने हैं। मंत्रीमंडल में शामिल दलित चेहरे बीजेपी की दलित विरोधी छवि से उबरने की कोशिश के हिस्से हैं ।