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छात्रवृत्तियों पर मनुवाद का हमला

वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ और छात्रवृत्तियों को समाप्त करने से कल्याणकारी राज्य की स्थापना तो दूर की बात है, यह एससी, एसटी, पिछड़ों व अल्पसंख्यक समुदायों में सरकार के प्रति रोष पैदा करेगा। जिस प्रकार उँची-नीची जमीन से अच्छी फसल पैदा नहीं हो सकती उसी प्रकार असमान विकास और संसाधनों के असमान वितरण से सामाजिक समानता व न्याय स्थापना नहीं हो सकती

ugc protest2” सहायता के रूप में छात्रावृत्ति किसी भी प्रकार की सहायता न होने से बेहतर है।” (बाबासाहेब डा. अम्बेडकर, सम्पूर्ण वांग्मय, खंड-3, पृ. 63)

समय के साथ-साथ प्राकृतिक व मानवीय संबंधो में परिवर्तन अपरिहार्य है। उसी तरह ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था से उपजी जाति व्यवस्था का शोषणकारी तंत्र भी परिवर्तनशील है। जातीय शोषण के निरंतर रूप बदलते रहते हैं। भारत में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं के शोषण के तरीकों में भी परिवर्तन आया है। स्वतंत्रता उपरांत जातीय शोषण की बेड़ियां उम्मीद से कहीं कम ढीली पड़ी है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक शोषण के तरीके भी बदल चुके हैं। विशेषतौर पर ‘शैक्षणिक सांस्थानिक शोषण व उत्पीड़न’ सोच-समझकर सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। भाजपा सरकार के काल में यह और भी बढ़ रहा है। पहले शोषण प्रत्यक्ष था, अब शोषण की दीवार महीन हो गई है, जो आसानी से दिखाई नहीं देती।

भाजपा सरकार में शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न आयामों पर हमले होना आम बात हो गई है। 26 मई 2014 को केंद्र में भाजपा के सत्ता संभालते ही गत दो वर्षों में दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों व महिलाओं के शोषण, उत्पीड़न एवं अधिकार हनन के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। आईआईटी मद्रास के आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध का मामला, हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या और जेएनयू में तथाकथित देशद्रोह प्रकरण में सरकार की भूमिका संदिग्ध रही है। विभिन्न राजनीतिक संगठनों, विशेषकर बसपा व मार्क्सवादियों ने सरकार की कटु आलोचना और प्रदर्शन किये। परिणामस्वरूप मानव संसाधन विकास मंत्रालय से श्रीमती स्मृति ईरानी की छुट्टी कर दी गई। हालांकि कोई भी नीतिगत निर्णय किसी एक व्यक्ति या मंत्रालय का न होकर पार्टी की विचारधारा के अनुरूप होता है। शिक्षा की नीतियाँ भी पार्टी में गहन चर्चा के बाद ही लागू की जाती है।

भाजपा सरकार में निरंतर शिक्षा बजट में कटौती हो रही है। उच्च शिक्षा में दलित, आदिवासी समुदायों की बड़ी संख्या पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों की है। इनके लिए विशेष शैक्षणिक सुविधाएं प्रदान करने, छात्रावास, छात्रवृति व अन्य अनुदानों में वृद्धि किये जाने की बजाये कटौती की जा रही है। वित्त वर्ष 2016-17 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट में 55% की कटौती की गई, फलस्वरूप विभिन्न तरह की छात्रवृत्तियों व अनुदानों में भी कटौती की गई, जिसका असर सीधे-सीधे वंचित वर्गों व समुदायों पर पड़ रहा है। यूजीसी की तरफ से कई प्रकार की छात्रवृतियां छात्रों व शोधर्थियों को दी जाती है। लेकिन मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप फॉर माइनारिटी स्टूडेंटस और राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप फॉर एससी/एसटी को आबंटित किये जाने में देरी की शिकायतें शोधार्थियों की तरफ से की जाती रही हैं। भूपेन मिली, जो आई.आई.टी. गुवाहाटी से है, ने छात्रावृतियों के आबंटन में देरी को लेकर एक वर्ष पूर्व याचिका भी दायर की थी। 2005 से शुरू की गई ये छात्रवृत्ति प्रत्येक वर्ष 667 छात्रों को दी जाती थी। 2015-16 में 750 शोधार्थियों को दिए जाने की घोषणा हुई। लेकिन इसी वर्ष से अनुसूचित जनजाति के शोधार्थियों की छात्रवृत्ति समाप्त कर दी गई है। जो छात्रवृत्तियाँ दी जा रही हैं, वह भी समय पर नहीं मिल पाती। एक-डेढ़ वर्ष बाद शोधार्थियों को छात्रावृतियां मिल रही हैं। एक तरफ भाजपा पदाधिकारी सबका साथ-सबका विकास और अच्छे दिन के नारे लगाते नहीं थकते। वहीं दूसरी तरफ शोधार्थियों की छात्रवृत्तियां समाप्त की जा रही है।

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2015 मे नॉन-नेट छात्रावृत्ति को भी समाप्त किया जा रहा था। स्मृति इरानी का तर्क था कि छात्रवृत्ति का प्रयोग अध्ययन के लिए नहीं किया जा रहा है। जरूरतमंद छात्रों का चयन करके, मेरिट के आधार पर या एक परीक्षा लेकर चुने गए शोधार्थियों को ही छात्रवृत्ति दी जाएगी। सरकार की मंशा सभी वर्गों को दी जा रही छात्रावृत्ति को चुने गए कुछेक शोधार्थियों को देकर बड़ी संख्या में शोधार्थियों को छात्रावृति से वंचित रखने की थी। इस कृत्य से एससी/एसटी शोधार्थी सबसे ज्यादा प्रभावित होते। नॉन-नेट छात्रवृत्ति में एमपिफल और पीएचडी शोधार्थियों को क्रमशः 5000 व 8000 रूपये प्रतिमाह मिलते है। यह छात्रवृत्ति डीम्ड विश्वविद्यालयों व संस्थानों में समाप्त कर दी गईं, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जारी रखा गया। देश के विभिन्न छात्र संगठनों विशेष तौर पर जेएनयू के छात्रों ने यूजीसी कार्यालय के साथ-साथ एमएचआरडी पर प्रदर्शन किये। अन्य छात्रा संगठनों शिक्षकों के अलावा गैरदलीय छात्रों ने भी खूब बढ़ चढ़ कर प्रदर्शन में भाग लिया। सरकार ने छात्रों की मांगों को मानते हुए इसे जारी रखा, हालांकि नॉन-नेट छात्रवृत्ति की राशि में वृद्धि नहीं की गई, जिसमें वृद्धि अवश्य की जानी चाहिए थी। क्योंकि इतनी अल्प राशि में शोधकार्यों को समय पर और बेहतर ढंग से पूर्ण कर पाना गरीब व वंचित वर्गों के शोधार्थियों के लिए बेहद मुश्किल है।

विभिन्न तरह की छात्रवृत्तियों में आवेदन और योग्यता संबंधी प्रक्रिया में बदलाव कर कठिनता के स्तर को बढ़ाया जा रहा है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद भी प्रत्येक वर्ष इतिहास विषय में अध्ययरत लगभग 80 शोधार्थियों को छात्रावृत्ति प्रदान करती है। इसके लिए एमए, एमफिल के छात्र भी आवेदन प्रपत्र भर सकते थे। इस वर्ष आवेदन संबंधित योग्यता में फेरबदल करते हुए घोषणा की कि केवल पीएचडी में पहले से नामांकित शोधार्थी ही आवदेन प्रपत्र भर सकते हैं। हालांकि ये छात्रवृत्ति पीएचडी शोधार्थियों को ही मिलती है, लेकिन एमए, एमफिलल, छात्र यदि चयनित होते थे तो उन्हें एक वर्ष के अंतराल से पहले ही पीएचडी में नामांकन कराना होता था।

छात्रवृति न दिए जाने का एक मामला मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में सामने आया है। इस संस्थान में एससी/एसटी छात्रों की 100 प्रतिशत फीस माफ की गई थी। संस्थान ने उत्तीर्ण छात्रों को डिग्री और अंक विवरणिका देने से इंकार कर दिया। संस्थान के अनुसार एमएचआरडी ने छात्रों की फीस माफ नहीं की है। छात्रों द्वारा छात्रवृति वापस जमा करवाने के बाद ही उन्हें डिग्री और अंक विवरणिका दी जाएगी। जबकि पूर्व वर्षों में उत्तीर्ण छात्रों से छात्रवृति वापस नहीं ली गई थी। छात्रवृति वापस ही लेनी थी तो दी क्यों गई? यह साफ तौर पर छात्रावृति दिए जाने के आधारभूत कल्याणकारी उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के साथ-साथ सरकार की संवैधानिक नैतिकता से विमुखता को जाहिर करता है। कल्याणकारी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए छात्रावृत्तियां दी जाती हैं, जिससे गरीब व शोषित वर्गों को आगे बढ़ने मे सहायता मिल सके।

ugc protest1सरकार द्वारा वंचित वर्गों के उत्थान के लिए शुरू की गई छात्रवृतियों का पर्याप्त प्रचार भी नहीं किया जाता। वंचित वर्ग पर्याप्त जानकारी के अभाव में कल्याणकारी योजनाओं से अनभिज्ञ रह जाते है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय प्रत्येक वर्ष 60 छात्रों को विदेश में उच्चतर शिक्षा हेतू राष्ट्रीय ओवरसीज छात्रवृति प्रदान करता है। वर्ष 2016-17 में 12वीं पंचवर्षीय योजना में संशोधन कर छात्रों की संख्या 100 कर दी गई है जिसमें 30% स्थान छात्राओं के लिए रखा गया है। प्रत्येक 2 वर्ष बाद आवश्यकतानुसार तय नामांकन संख्या को संशोधित कर बढ़ाये जाने की भी संस्तुति है। सरकार व संबंधित मंत्रालय द्वारा इस छात्रावृत्ति के पर्याप्त प्रचार के अभाव में इस वर्ष मात्र 30 छात्र ही विदेशों में अध्ययन के लिए जा सके।

अब आधार कार्ड आवेदन करने के लिए आवश्यक कर दिए गए है। भारत में सभी छात्रों के पास आधार कार्ड नहीं है। इन्हें बनवाने में भी एक-दो महीने तक का समय अवश्य लगता है। यदि आवेदकों के पास ये दस्तावेज हैं तो भी कम दस्तावेज आवेदन के लिए निर्धारित करने चाहिए। अनावश्यक यांत्रिक प्रक्रिया व कागजी कार्यवाही में बढ़ोत्तरी से क्या फायदा?

वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ और छात्रवृत्तियों को समाप्त करने से कल्याणकारी राज्य की स्थापना तो दूर की बात है, यह एससी, एसटी, पिछड़ों व अल्पसंख्यक समुदायों में सरकार के प्रति रोष पैदा करेगा। जिस प्रकार उँची-नीची जमीन से अच्छी फसल पैदा नहीं हो सकती उसी प्रकार असमान विकास और संसाधनों के असमान वितरण से सामाजिक समानता व न्याय स्थापना नहीं हो सकती। शिक्षा बजट में कटौती, एससी, एसटी, पिछड़ों व अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों व शोधार्थियों को मिलने वाली छात्रावृत्तियों को देरी से आवंटित करना व समाप्त कर देने से सबका-साथ सबका-विकास एवं अच्छे दिन के नारे व सरकार के वादे महज जुमले प्रतीत होते हैं। निस्संदेह सरकार को शिक्षा बजट बढ़ाना चाहिए, दी जा रही छात्रवृतियों की राशि में बढ़ोतरी एवं नई छात्रवृत्तियों की शुरुआत करनी चाहिए।

लेखक के बारे में

सुमित

सुमित कटरिया दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में एम. फिल. शोधार्थी हैं। डॉ. बी. आर. अंबेडकर के शिक्षा संबंधी कार्यों और विचारों पर शोध कर रहे हैं।

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