“बहुजन साहित्य की अवधारणा अपने आप में एकदम सीधी है – अभिजन के विपरीत; बहुजनों का साहित्य। जैसा कि ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने कहा था – बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। बहुजन साहित्य बहुसंख्यकों का साहित्य जरूर है, लेकिन यह बहुसंख्यकवाद का साहित्य नहीं है। इसका आधार संख्या बल नहीं है, बल्कि इसके विपरीत सामाजिक और सांस्कृतिक वंचना के पक्ष में जिस सामूहिक-सामुदायिक-सांप्रदायिक चेतना का निर्माण मनुवाद करता है, बहुजन साहित्य उसके विरुद्ध विभिन्न सामाजिक तबकों की प्रतिनिधि आवाज है- उस अंतिम आदमी का साहित्य, जो किसी भी प्रकार की वंचना झेल रहा है।” बहुजन साहित्य की प्रस्तावना पुस्तक के प्रारंभिक लेख में प्रमोद रंजन की ये पंक्तियां बहुजन साहित्य की सही पहचान को सामने लाती हैं। हिंदी एवं अन्य भाषाओं में उत्पीड़ित-वंचित तबकों को केंद्र में रख कर साहित्य लेखन की एक लंबी परंपरा है। महाराष्ट्र में दलित लेखन ऐसा ही लेखन है, जिसमें वंचित-उत्पीड़ित तबके का जीवन पूरी प्रामाणिकता के साथ सामने आया। इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह भी है कि लिखने वाले भी स्वयं उसी तबके से आए थे और जो जीवन उन्होंने भोगा था, उसे सामने रखा था। इसलिए इस साहित्य ने देश ही नहीं, पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। यदि साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को देखा जाए तो जितने भी महत्वपूर्ण कवि रहे, वे वंचित जातियों से ही आए। कबीर और रैदास के अलावा कई प्रमुख कवि दलित-बहुजन जातियों से आए। इनके साहित्य को बहुजन का साहित्य कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें सामंती शोषण और दमन से मुक्ति के लिए व्यापक चेतना मिलती है। भक्तिकाल के दलित-उत्पीड़ित जातियों से आने वाले कवियों का सामंतवाद विरोधी लेखन ही एक तरह से बहुजन साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार करता है। उसके बाद आजादी की लड़ाई के दौरान दलित जातियों का जो संघर्ष सामने आता है, वह इसकी सामाजिक पूर्व-पीठिका के रूप में है।
बहुजन साहित्य क्या है, इस पर विचार करते हुए प्रमोद रंजन कहते हैं, “बहुजन साहित्य को उस बड़ी छतरी की तरह देखा जाना चाहिए, जिसके अंतर्गत दलित साहित्य (सुविधा के लिए इसे हम अति शूद्रों का साहित्य भी कह सकते हैं) के अतिरिक्त शूद्र साहित्य, आदिवासी साहित्य तथा स्त्री साहित्य आच्छादित है। आंबेडकरवादी साहित्य, ओबीसी साहित्य आदि जैसी अनेक शब्दावलियां, विचार, दृष्टिकोण इसके आंतरिक विमर्श में समाहित हैं।” प्रमोद रंजन आगे लिखते हैं, “हिंदी में पिछले दो दशकों के दौरान दलित साहित्य की अवधारणा को स्वीकृति मिली है, लेकिन इसके दो बड़े विरोधाभास भी हैं। पहला, इसे स्वीकृति ‘हाशिए के साहित्य’ के रूप में मिली है, यानी मुख्य धारा ‘कोई और’ साहित्य है। कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े लेखक इस ‘कोई और’ साहित्य को प्रगतिशील-जनवादी साहित्य कहते हैं, जबकि राजेंद्र यादव समेत प्राय: सभी दलित लेखकों का मत है कि ‘जो दलित साहित्य नहीं है, वह द्विज साहित्य है।‘ यानी, उनके अनुसार, हिंदी की मुख्य धारा का साहित्य ‘द्विज साहित्य’ है। दूसरी ओर, प्रगतिशील साहित्य के नाम पर अनेक ऐसे द्विजों के साहित्य की भी गणना की जाती है, जिनके लेखन की अंतर्वस्तु के बड़े भाग पर उनकी द्विज चेतना हावी रही है।” प्रमोद रंजन के दो उद्धरण यहां इसलिए दिए गए हैं, क्योंकि बहुजन साहित्य को समझने के लिए ये जरूरी हैं।
प्रगतिशील साहित्य के आवरण में हिंदी में शुरू से ही ‘द्विजवादी’ साहित्य का झंडा बुलंद रहा है और कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में शुरू किया गया प्रगतिशील साहित्य आंदोलन भी इससे बुरी तरह प्रभावित रहा है। परिणाम सामने है, साहित्य आम शोषित-उत्पीड़ित जन से कटा रहा और ड्रॉइंग रूमों व विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की शोभा बढ़ाता रहा। साहित्य की दुनिया में एक बड़ा खालीपन इस रूप में सामने आया कि आम जन इससे पूरी तरह दूर होता चला गया। लेकिन सामाजिक-राजनीतिक हलचलों के परिणामस्वरूप दलित-आदिवासी और पिछड़ी जातियों में जो नई राजनीतिक चेतना आई, उससे बहुजनों का साहित्य सामने आना ही था। गौरतलब है कि बहुजन साहित्य तो बहुत पहले से लिखा जा रहा है, पर उसकी अवधारणा की चर्चा अब आ कर शुरू हुई है। बहुजन साहित्य आंदोलन शोषित-उत्पीड़ित व्यापक पिछड़ी व दलित जातियों के लोगों को चेतनशील करने का आंदोलन है। इसकी प्रासंगिकता इस रूप में है कि कम्युनिस्ट नेतृत्व वाला प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आंदोलन अभिजनवादी बन कर रह गया और व्यापक जनता से कटा रहा, इसलिए बहुजन साहित्य इतिहास की जरूरत के रूप में सामने आया है।
‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ पुस्तक में इस साहित्य के ऐतिहासिक, वैचारिक, दार्शनिक, सौंदर्यशास्त्रीय, आंदोलनात्मक एवं अन्य पहलुओं पर विचार किया गया है, जो संक्षिप्त तो है ही सारगर्भित भी है। इसका संपादन फॉरवर्ड प्रेस से जुड़े प्रमोद रंजन और आयवन कोस्का ने किया है। दोनों बहुजन के साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े प्रमुख नाम हैं और बहुजन आंदोलन के प्रति इनकी निष्ठा अटूट रही है। इस किताब में प्रमुख साहित्यकारों, आलोचकों, संपादकों और पत्रकारों के लेख के साथ राजेंद्र यादव और कुछ अन्य प्रुमख लेखकों के साक्षात्कार भी प्रकाशित किए गए हैं। पुस्तक में बहुजन साहित्य की प्रस्तावना पर विचार करने के साथ ही तीन खण्डों में सामग्री प्रकाशित की गई है। पहला खण्ड है ओबीसी साहित्य विमर्श, जिसमें ओबीसी साहित्य की अवधारणा और दलित चेतना के विकास के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। इस खण्ड के प्रमुख लेखकों में हैं अभय कुमार दुबे, राजेंद्र प्रसाद सिंह, राजेंद्र यादव, प्रेमकुमार मणि, वीरेंद्र यादव, हरेराम सिंह, चौथीराम यादव, हरिनारायण ठाकुर, शरण कुमार लिम्बाले, जयप्रकाश कर्दम और सुधीश पचौरी। ये साहित्य की दुनिया के चर्चित नाम हैं, जिनके लेखन और चिंतन से कमोबेश पाठकों की कई पीढ़ियां परिचित हैं। प्रमुख पत्रकार और विचारक अभय कुमार दुबे ने पिछड़े वर्ग के रिनेसां यानी उसके पुनर्जागरण पर लिखा है। वहीं, राजेंद्र प्रसाद सिंह ने ओबीसी साहित्य की अवधारणा पर लिखा है। इस लेख में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने संक्षेप में ओबीसी साहित्य की अवधारणा, उसके उत्स और आज उसकी प्रासंगिकता पर विचार किया है। उन्होंने मध्यकाल के भक्ति साहित्य में इसकी जड़ें तलाश की हैं, जो उनकी सम्यक ऐताहासिक दृष्टि और चिंतन को दिखलाता है। इसी खण्ड में प्रसिद्ध मराठी लेखक शरण कुमार लिंबाले से प्रेमा नेगी का साक्षात्कार है, जो दलित साहित्य और दलित चेतना को समझने के लिए बहुत ही ज़रूरी है। दलित साहित्य की कई अवधारणाओं पर लिंबाले ने बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कही हैं। इसमें राजेंद्र यादव के दो लेख शामिल हैं – ‘ओबीसी साहित्य जैसी कोई चीज नहीं, पर विमर्श हो’ और ‘यह तुम्हारा समय है, मेरा नहीं’। दोनों लेखों में मूलभूत सवाल उठाए गए हैं और बहुजन साहित्य की अवधारणा को समझने के लिए इनका पढ़ना आवश्यक है। ‘साहित्य में जाति विमर्श’ और ‘आलोचना की अधोगति’ लेखों में प्रेमकुमार मणि ने बहुत ही सटीक मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। ये लेख स्थाई महत्व के हैं। ओबीसी साहित्य की अवधारणा की प्रासंगिकता पर आलोचक वीरेंद्र यादव ने लिखा है। प्रो. चौथीराम यादव ने ओबीसी नायकों और दलित चेतना के विकास पर सुचिंतित और विचारणीय लेख लिखा है। ओबीसी साहित्य के विस्तृत दायरे पर हरिनारायण ठाकुर ने लिखा है। जयप्रकाश कर्दम का लेख भी महत्वपूर्ण है। सुधीश पचौरी की व्यंग्यात्मक टिप्पणी ‘घर का भेदी और मेरी लंका’ भी महत्वपूर्ण है।
पुस्तक के दूसरे खण्ड में आदिवासी साहित्य पर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। ‘आदिवासी साहित्य विमर्श : चुनौतियां और संभावनाएं’ लेख में डॉ. गंगा सहाय मीणा ने जरूरी और महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। आदिवासी साहित्य विमर्श के बारे में उन्होंने लिखा है, “यह एक ऐसा विमर्श है, जिसमें इस समुदाय की परंपरा और संस्कृति के साथ हो रहे अन्याय, अत्याचार, अपमान, शोषण आदि का भी बयान हो रहा है।” उन्होंने लिखा है कि प्रकारांतर से पूरा आदिवासी साहित्य बिरसा, सीदो-कानू और तमाम क्रांतिकारी आदिवासियों और उनके आंदोलनों से विद्रोही चेतना के तेवर लेकर आगे बढ़ रहा है। दलित चिंतक कंवल भारती का लेख ‘साहित्य की अवधारणा और आदिवासी’ भी महत्वपूर्ण है। दलित लेखक और कवि मुसाफ़िर बैठा ने ‘बहुजन अस्मिताबोध एवं वैज्ञानिक चेतना’ में प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाए लेखकों के सवर्णवादी चिंतन और भाव-बोध की कलई खोली है। उन्होंने दलित साहित्य आंदोलन और उसकी चेतना पर संक्षिप्त, लेकिन सारगर्भित टिप्प्णियां की हैं। बहुजन साहित्य की अवधारणा को उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं से जोड़ कर विचार किया है अश्विनी कुमार पकंज ने।
पुस्तक के तीसरे खण्ड ‘बहुजन साहित्य विमर्श’ में प्रेमकुमार मणि का संस्मरण ‘रेणु का पुण्य स्मरण’ बेहद महत्वपूर्ण है। भूलना नहीं होगा कि रेणु बहुजन चेतना के सबसे उल्लेखनीय साहित्यकार हैं। कंवल भारती ने अपने लेख ‘मुख्य धारा बने बहुजन’ में ओबीसी साहित्य की प्रमुख चुनौतियों को रेखांकित किया है। अरविंद कुमार ने बहुजन की सर्वहारा पहचान को लेकर विचार किया है। यहां यह कहना जरूरी है कि वामपंथियों ने सर्वहारा की जो एक रूढ़ धारणा प्रस्तुत की है, उससे अलग हट कर और दलित-पिछड़ी जातियों से जोड़ कर उस पर विचार किए बिना वर्गबोध के सही स्वरूप को नहीं समझा जा सकता। देवेंद्र चौबे का लेख ‘बहुजन सिर्फ जातियों पर आधारित होंगे?’ भी विचारणीय है। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संजीव चंदन ने बहुजन साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर विचार करते हुए कई महत्वपूर्ण अवधारणाओं को स्पष्ट किया है। युवा लेखक संदीप मील ने अपने लेख ‘बहुजन साहित्य के अलावा सब लुगदी’ में दलित साहित्य की क्रांतिकारी परंपरा पर विचार करते हुए ब्राह्मणवादी यानी सवर्णवादी साहित्य पर कठोर प्रहार किया है। इस खण्ड में अरुन्धति राय के भाषण का एक अंश भी प्रस्तुत किया गया है – ‘मैं बहुजन साहित्य के विचार में यकीन करती हूं’। अरुंधति ने सांप्रदायिक शक्तियों पर उचित ही प्रहार किया है। उन्होंने दिखाया है कि किस तरह आरएसएस दलितों और निम्न जातियों का घोर विरोधी है और बहुजनों के लिए उसे नेस्तनाबूद करना एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा अनिता भारती और वामन मेश्राम के लेख भी विचारणीय हैं। पुस्तक के अंत में ‘सिर्फ द्विजों में होती है साहित्यिक प्रतिभा?’ शीर्षक से एक सूची प्रकाशित की गई है, जो बहुत ही रोचक है। इसमें दिखलाया गया है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सभी उच्च जातियों के हैं, सवर्ण हैं, पिछड़ी और दलित जातियों से एक भी लेखक नहीं है। साहित्य अकादमी सम्मान की सूची 1955 से शुरू होकर 2015 तक की है। ज्ञानपीठ अवॉर्ड की सूची 1968 से 2013 तक की है। कुल मिला कर यह एक ऐसी विचारोत्तेजक किताब है जिसे हर किसी को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए, वाद और विवाद से परे जाकर।
पुस्तक – बहुजन साहित्य की प्रस्तावना
संपादक – प्रमोद रंजन, आयवन कोस्का
प्रकाशक – द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, वर्धा, महाराष्ट्र
मूल्य – 100 रुपए
किताब मंगवाने के लिए संपर्क करें: ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/दिल्ली। मोबाइल : 9968527911. ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी Amazon,और Flipkart पर उपलब्ध हैं।