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महिषासुर पर किताब : विकृत मिथकों की मरम्मत

पुस्तक सवाल करती है कि वर्चस्वशालियों का धर्म तो पिछड़ों को अछूत मानने में है तो क्या एक बड़ी जनसंख्या उनकी धार्मिक तुष्टि के लिए अपने आपको अछूत मानती रही? मो. आरिफ की समीक्षा :

प्रमोद रंजन द्वारा संपादित पुस्तक “महिषासुर एक जननायक” का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि आखिर महिषासुर नाम से शुरू किया गया यह आन्दोलन है क्या? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके निहितार्थ क्या हैं? ‘महिषासुर का अर्थ है महिष का असुर। असुर मतलब जो सुर नहीं है। सुर का मतलब देवता, देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण। सुर कोई काम नही करते थे। असुर मतलब जो काम करते थे और अपना जीवन यापन करते थे, आज के अर्थ में कर्मी। इस तरह महिषासुर का अर्थ होता है, जो भैंस पालते थे अर्थात् वे लोग जो भैंसपालक थे। और दूध का धंधा करने वाले ग्वाले, अहीर।’[i] महिषासुर यानि भैंसपालक बंगदेश में वर्चस्व प्राप्तलोग थे और द्रविड़ थे। इसलिए वे आर्य संस्कृति के विरोधी थे।

इस पुस्तक में प्रश्न उठाया गया है कि जब असुर एक प्रजाति है तो उसकी हार या उसके नायक की ह्त्या का उत्सव किस सांस्कृतिक मनोवृत्ति का परिचायक है? लेखक प्रेमकुमार मणि पूछते हैं, ‘अगर कोई गुजरात नरसंहार का उत्सव मनाये या सेनारी में दलितों की हत्या का उत्सव, भूमिहारों की हत्या का उत्सव तो कैसा लगेगा? माना कि असुरों के नायक महिषासुर की हत्या दुर्गा ने की और असुर परास्त हो गए तो इसमें इसमें प्रत्येक वर्ष उत्सव मनाने की क्या जरूरत है?” [ii] “हमारे सारे प्रतीकों को लुप्त किया जा रहा है। यह तो इन्हीं के  स्रोतों से पता चला है कि एकलव्य अर्जुन से ज्यादा कुशल धनुर्धर था। तो अर्जुन के नाम पर ही पुरस्कार क्यों दिए जा रहे हैं। एकलव्य के नाम पर क्यों नहीं? इतिहास में हमारे नायकों को पीछे कर दिया गया। हमारे प्रतीकों को अपमानित किया जा रहा है। हमारे नायकों को छलपूर्वक अंगूठा और सिर काट लेने की प्रथा पर हम सवाल करना चाहते हैं। इन नायकों का अपमान हमारा अपमान है। [iii]

शिरडी, महाराष्ट्र से 30 किलोमीटर दूर , वीजापुर में म्हसोबा का मंदिर (फोटो:एफपी की भारत यात्रा, 2017)

पुस्तक सवाल करती है कि वर्चस्वशालियों का धर्म तो पिछड़ों को अछूत मानने में है तो क्या एक बड़ी जनसंख्या धार्मिक तुष्टि के लिए अपने आपको अछूत मानते रहे? मणि के ही शब्दों में, ‘दुर्गा का अभिनन्दन और हमारी हार का उत्सव आपके सांस्कृति सुख के लिए है, लेकिन आपका सांस्कृतिक सुख तो सती प्रथा, वर्ण व्यवस्था, छुआछूत, कर्मकाण्ड आदि में है, तो क्या हम आपकी संतुष्टि के लिए अपना शोषण होने दें। मौजूदा प्रधानमंत्री गीता को भेंट में देते हैं । गीता वर्ण व्यवस्था को मान्यता देती है हमारे पास तो बुद्धचरित्र और त्रिपिटक भी है। हम सम्यक समाज की बात कर रहे हैं। आप धर्म के नाम पर वर्चस्व और असमानता की राजनीति कर रहे हैं। जबकि हमारा संघर्ष बराबरी के लिए है।’ [iv]

लेखिका मधुश्री मुखर्जी बताती हैं, “मुख्यतः बिहार और बंगाल में मनाई जाने वाली दुर्गा पूजा भव्यतम हिन्दू त्योहारों में से एक है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार दुर्गा, जिसने अपने दस हाथों में अस्त्र लिए हुए भैसासुर या महिषासुर को मारते हुए दिखाया गया है, का निर्माण देवों ने असुरों से युद्ध करने के लिए किया था। दुर्गा के भक्तों के  लिए यह बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार है। बांगला और हिंदी भाषा ‘असुर’  शब्द का इस्तेमाल दुष्ट और कपटी शत्रु के लिए किया गया है।” [v]

वीजापुर के म्हसोबा मंदिर का पुजारी तेली जाति से है (फोटो : एफपी की भारत यात्रा, 2017)

“परन्तु मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में असुर परम्पराएं अभी भी मौजूद है, जो प्राय भैंसासुर या महिषासुर के नाम से प्रचलन में है। इसके अतिरिक्त मैकासुर, भयनासुर, वारासुर समेत इसके अनेक नाम है। इस परम्परा के विभिन्न स्वरुप और विभिन्न मान्यताएं आज भी देखी  जा सकती है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में असुर परम्परा खास तौर पर गोंड, बेगा, असुर, हलवा आदिवासी समुदायों के अलावा कुछ अनुसूचित जाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बीच मौजूद है। यहाँ भैंसासुर से के नाम से अनेक गाँव, छोटे टीले, मिटटी या पत्थर के चबूतरे या स्थान मिल जायेंगे। यहाँ कई गाँवों में भैसासुर की पूजा ग्राम देवता के रूप में होती है। इनका स्थान गाँव के बाहर या खेतों में एक पत्थर या मिट्टी के पिंडी रूप में होती है। फसल की पैदावार बढ़ाने या गाँव को बुरी बलाओं से बचाने के लिए भैसासुर की पूजा की जाती है, ऐसा यहाँ के आदिवासियों की आस्था है। उत्तर बस्तर के कांकर जिला में सरंडी और नागरबेड़ा के पास भैंसासुर नाम से एक ग्राम पंचायत भी है।” [vi]

इस पुस्तक में दुर्गा के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है क्योंकि सिंह की सवारी करने वाली तेजस्वनी देवी दुर्गा की वह कथा, जिसमे वह आठ भुजाओं  में भयानक हथियार थामे हुए महिष और उनकी सेना का कत्ले आम करती है, ब्राह्मणवादी परम्परा में अशुभ पर शुभ की विजय के रूप में देखी जाती है। यही दुर्गा, जो कि शक्ति और सौंदर्य का प्रतीक है; को आजकल के ब्राह्मणवादी रुझान की लेखिकाओं और लेखकों ने अपने लेख में एक अभूतपूर्व नारीवादी प्रतीक के रूप में एक पुनर्जीवित किया है। वे दावा करते हैं कि केवल भारत ही एसा देश जिसमे, सुन्दरी और शक्तिमति देवियों के ऐसे विस्मयकारी रूपों की कल्पना की गई है, जो पुरुष देवों से भी कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

वीजापुर, महाराष्ट्र में म्हसोबा (फोटो:एफपी की भारत यात्रा, 2017)

दलित बहुजनों की नजर में महिषासुर-दुर्गा मिथक का ब्राह्मणवादी रूप कुछ और नहीं बल्कि एक दुष्प्रचार मात्र है। और ब्राह्मणवाद के विरोध की यही परम्परा, जिसे आधुनिक समय में फुले-अम्बेडकर और पेरियार ने सींचा है, जो दुर्गा पूजा अपने खिलाफ एक हिंसक पम्परा के जीवंत प्रतीक के रूप में देखते हैं। इन्हीं मिथकों का सहारा लेकर इतिहास की विकृत व्याख्या की गयी है। मिथक इतिहास नहीं है लेकिन मिथक पूरी तरह सत्य के विपरीत भी नहीं होता। मिथक असल में एक परम्परागत कहानी होती है, जो तथ्यों और कपोल कथाओं का फतांसी और वास्तविकता का आपस में घालमेल कर देती है। जिसमें तथ्यों को तोड़ मरोड़कर दिखाया जाता है। यह लोगों के प्राचीन इतिहास से या प्राकृतिक सामाजिक व्यवस्था की घटना से जुडी होती है, जिस्म चमत्कारी किरदार या घटनाएं पिरोई जाती हैं। अपने समृद्ध प्रतीकों और विभिन्न सदर्भों से जुडी हुई फंतासियों से परिपूर्ण ये मिथक तथ्यों को भी उद्घाटित करते हैं और स्रोतों के साथ-साथ ये मानवीय इतिहास की पुनर्रचना करने और समझने में मदद करते हैं, और यही भारत में ब्राह्मणों ने किया। उदाहरण के लिए पौराणिक साहित्य में अशोक, जो कि इतिहास का सर्वाधिक प्रतापी सम्राट था, उसे एक घृणित बौद्ध और एक तिरस्कृत शूद्र की तरह चित्रित किया गया है। ब्राह्मणवादी दृष्टि में अशोक का मौर्य वंश शूद्र-प्रयास्त्व-अधार्मिक व मूलतः शूद्र और अन्यायी था! ब्राह्मणवादी दस्तावेज अशोक को दस-बारह शताब्दियों तक पूरी तरह उपेक्षित ही रखते हैं, जब तक की उसके प्रभाव का भय पूरी तरह से न मिट गया। भारतीय इतिहास से मिटा दिए गए शोक को उसके शिला लेखों और श्रीलंका के दस्तावेजों से खोजा गया।

औरंगाबाद, महाराष्ट्र में महिषासुर मंदिर (फोटो:एफपी की भारत यात्रा, 2017)

इस तरह ब्राह्मणों ने न सिर्फ स्पष्ट कालक्रम बद्धता का या घटनाओं का हिसाब ही नहीं रखा, बल्कि अपने संभावित विरोधियों के दस्तावेज और साहित्य को भी नष्ट कर दिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति को ब्राह्मणी ढांचे में ढालने के लिए बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया । उन्होंने तथ्यों को दबाया, नाम बदले, स्थानों और काल खण्डों को धुंध में रखा, झूठे आंकड़े फैलाये, काल्पनिक वंशावलियाँ रची, अपने ही वेदों-पुराणों का बार-बार मूल्यांकन किया और उसमे बदलाव किये, महाभारत और रामायण को अपनी संस्कृति में ढाला और बढ़कर बाकी सभी विरोधी स्वरों और संभावनाओं को बर्बरता से नियंत्रित किया।

नूतन मालवी लिखती हैं, ‘नवरात्री का उत्सव- दुर्गा का उत्सव- एक देशव्यापी उत्सव है। ब्राह्मण मिथकों और इतिहासबोध से प्रभावित मीडिया और जानकारी के अन्य स्त्रोत आम मानस में नवरात्री के ब्राह्मणवादी इतिहास; ये सब  मिथकीय इतिहास को प्रचारित – प्रसारित करते रहें हैं, हालांकि यह इतिहास का विकृतिकरण है। दुर्गा की जो प्रतिमा बनाई जाती है, उनमें दिखाया जाता है कि वे शेर पर बैठकर महिषासुर को मार रही है। यह प्रतिमा क्या दिखाती है एक शांत हत्यारिन ?’ [vii]

मालवी के अनुसार, “दुर्गा का उच्च स्थान हमें बताता है कि कभी न कभी स्त्री सत्तात्मक व्यवस्था थी ।

जब स्त्रीसत्तात्मक समाज में मुक्त स्त्री-पुरुष सम्बन्ध थे, तब स्त्री का गर्भधारण शक्तिशाली महान देवी माना जाता था। आगे चलकर स्त्री की इस शक्ति की पूजा होने लगी। स्त्री के इस नैसर्गिक गुण का गुणसमाज ने सम्मान किया और उसे श्रेष्ठ पद देकर गणनायिका (मुख्य रानी) के स्थान पर रखा। स्त्री गर्भ की पूजा लम्बे समय तक जारी रही। भूमि में बीज के अंकुरण को गणसमाज नेसर्गिक शक्ति मानता था, जिसे वह स्त्री के गर्भधान से जोड़ कर देखने लगा । और इस तरह भूमि और स्त्री के सम्मान की परम्परा रूढ़ हो गई ; स्त्री शासक, उत्पादन, पुरोहित बन गई। आज स्त्री का सम्मान केवल कर्मकांड तक सिमित रह गया है, लेकिन गणसमाज-असुर–पिशाच व् राक्षसगण स्त्री को वास्तविक सम्मान देता था। इस प्रकार देवियों का उद्धभव हुआ।” [viii]

हिटनी, कर्नाटक, में म्हसोबा का सवार (फोटो:एफपी की भारत यात्रा, 2017)

किताब के एक अन्य लेखक अजय एस शेखर अपने लेख ‘ महिषासुर, रावण और महाबली’ में लिखते हैं, ‘रामायण और महाभारत जैसे हिन्दू महाकाव्यों में श्रीलंका के अपमानजनक सन्दर्भ का सम्बन्ध उसके बौद्ध देश होने से है। श्रीलंका शोक के काल से ही बौद्ध का अनुयाई है। आश्चर्य नहीं कि रावण, जो कि श्रीलंका का बौद्ध सम्राट था, उसने हिन्दू साम्राज्यवाद का विरोध किया तो उसे दानव या असुर के रूप में चित्रित किया गया।रावण को राक्षस या असुर इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह श्रीलंकाई बौद्ध नेता था। ठीक केरल के महाबली या बंग (बंगाल) के महिषासुर की तरह था। महिषासुर या दुर्गा से सम्बन्धित मिथक और विवादित बातें स्पष्ट करती हैं कि कैसे ब्राह्मणवादियों ने अधीनस्थों की यौनिकता का सहारा लेकर महिषासुर जैसे नेताओं को मारा। यह बताता है किस तरह महिलाओं का उपयोग देशज पुरुष को रिझाने और उनको मारने में किया गया; यहाँ तक की वर्तमान में तमाम लोकप्रिय सिनेमा और सिरियलों तक में महिषासुर मर्दिनी की छवि को प्रचारित किया जाता है। इसका पूरा सन्दर्भ हिंदूवादी फासिज़्म के जरिये ब्राह्मणवाद की वापसी से सम्बंधित है। [ix]

एक अन्य लेख में  डॉ सौरभ सुमन जिन्हें राष्ट्रपति ने ‘नारी शक्ति’ सम्मान से सम्मानित किया कहती हैं कि एक पर्व के तीन नाम क्यों –दुर्गा पूजा, विजयदशमी, और दशहरा? अपना शासन कायम करने के लिए आर्यों ने शुभ, निशुभ, मधु केटभ, धूम्रलोचन आदि राजाओं को छल से मारा। उसी क्रम में राजा महिषासुर जो बंग देश के राजा थे, उन्हें विष्णु मारने में असफल रहा तो दुर्गा, जिसका नाम अमृतापुष्पम था, उसे सजा-धजा कर और युद्धकला में प्रशिक्षित कर राजा महिषासुर को मारने भेजा। अमुतापुष्पम ने अपने जाल में फंसाकर राजा महिषासुर की हत्या कर दी। इसी तरह मोहनजोदड़ों, हडप्पा आदि पर आर्यों ने कब्ज़ा किया। अमुतापुष्पम का नाम दुर्गा प्रचलित किया गया और उसकी पूजा की जाने लगी। वह कहती हैं कि नवादा सहित मगध के कई जिलों में बौद्ध मठों, मंदिरों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। बौद्ध मूर्तियों को तेल, सिंदूर लगाकर हिन्दू नाम दिया जा रहा है  यह प्रत्यक्ष सांस्कृतिक गूंडागर्दी है, जिसके खिलाफ हम भी जनजागृति कर रहे हैं।

हिटनी में म्हसोबा का मंदिर (फोटो:एफपी की भारत यात्रा, 2017)

भारत के अधिकाँश आदिवासी समुदाय ‘रावण’ को अपना वंशज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण की आराधना का प्रचलन है। बगाल, उड़ीसा, असम और झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय ‘संताल’ भी स्वयं को रावण का वंशज घोषित करता है। इसी तरह  झारखंड-बंगाल के सीमावर्ती इलाके में तो बकायदा नवरात्रि या दशहरा के समय ही ‘रावणोत्सव’ का आयोजन किया जाताहै। यही नहीं संताल लोग आज भी अपने बच्चों का ‘रावण’ रखते हैं ।झारखंड में जब 2008 में यूपीए की सरकार बनी थी, संताल आदिवासी समुदाय के शिबू सोरेन, जो उसे समय झारखंड के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने रावण को ‘महान विद्धान’ और अपना ‘कुलगुरु’ बताते हुए दशहरे के दौरान रावण का पुतला जलाने से इन्कार कर दिया था। मुख्यमंत्री रहते हुए सोरेन ने कहा था कि कोई व्यक्ति अपने कुलगुरु को कैसे जला सकता है, जिसकी वह पूजा करता है?

किताब में एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया गया है कि देश भर में कहाँ-कहाँ महिषासुर शाहदत दिवस मनाया जाता है। इस तरह यह पुस्तक इन तथ्यों को समझने पर बल देती है कि “सुर कौन था और असुर कौन था, इसे समझने का दौर आ चुका है। क्योंकि किसी के भी मौलिक मानवीय अधिकारों को इतने दीर्घ काल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता है। यदि हम अपने को सभ्य,आधुनिक और लोकतांत्रिक समझते है तो हम सबको दलित अस्मिताओं के पक्ष में खड़ा होना चाहिए”। इसलिए दुर्गा पूजा में ऐसी बात नहीं है जिसे स्पष्ट रूप से आध्यात्मिक या धार्मिक कहा जा सके। यह कृषि सम्बन्धी जादू टोना मात्र है। विभिन्न स्रोतों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि एक देवी के रूप में दुर्गा वास्तव में मिथकीय चरित्र है¸ ब्राह्मणों की कल्पना मात्र है। जबकि महिषासुर एक वास्तविक चरित्र है, जो के प्रतापी, समतावादी जननायक था  और अपने इस साहसिक कदम के कारण 9 अक्टूबर, 2014 को फॉरवर्ड प्रेस पर कार्रवाई हुई। फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के अक्टूबर अंक को जब्त कर इसके संपादकों के विरुद्ध पुलिसिया कार्रवाई की जा रही है, जो कि अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर प्रत्यक्ष हमला है।

[i] प्रेमकुमार मणि, महिषासुर, एक जननायक, द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ: 19-20

[ii]  प्रेमकुमार मणि, वहीं, पृष्ठ, 21

[iii] वहीं

[iv] वहीं, पृष्ठ 22

[v] मधुश्री मुखर्जी, वहीं पृष्ठ 27

[vi]  राजन कुमार, वहीं पृष्ठ 32

[vii]  नूतन मालवी, वहीं, पृष्ठ 50

[viii] वहीं

[ix]  वहीं


महिषासुर : एक जननायक

संपादक : प्रमोद रंजन

प्रकाशक : द मार्जिनलाइज्ड वर्धा, 2016

मूल्य : 125 रूपये

महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें।  ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/ दिल्‍ली।  मोबाइल  : 9968527911,

ऑनलाइन के लिए क्लिक करें : महिषासुर : एक जननायक

इस किताब का ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से अंग्रेजी संस्करण भी उपलब्‍ध है।

लेखक के बारे में

मो. आरिफ खान

मो. आरिफ खान दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं।

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