राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक अधिकार मिले, इस उद्देश्य के साथ 23 मार्च 2017 को केंद्र सरकार ने कैबिनेट की बैठक में वर्तमान आयोग को भंग करने का निर्णय लिया। इसकी जगह केंद्र सरकार ने सामाजिक एवं शैक्षणिक रुप से पिछड़े वर्गों के लिए आयोग के गठन संबंधी विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया। लोकसभा में केंद्र सरकार के इस विधेयक को मंजूरी मिल चुकी है लेकिन मामला राज्यसभा में अटक गया। राज्यसभा में विपक्ष ने इस मामले में कई खामियां गिनायीं और विधेयक को प्रवर समिति के सुपूर्द करने का अनुरोध किया। दिलचस्प यह है कि लोकसभा में विधेयक को लेकर अड़े सत्तापक्ष ने राज्यसभा में प्रतिरोध करने में तनिक मात्र भी दिलचस्पी का प्रदर्शन नहीं किया। लिहाजा मामला एक बार फ़िर लटक गया है।
लोकसभा में यह बिल 10 अप्रैल 2017 को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। लोकसभा में इसे प्रस्तुत करते हुए केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने प्रस्तावित विधेयक के विभिन्न पहलुओं को सामने रखा। परंतु कांग्रेस के सदस्यों द्वारा विधेयक में कई तरह की खामियां बतायी गयीं। जिस खामी को लेकर विपक्ष ने एतराज व्यक्त किया उसमें सबसे महत्वपूर्ण यही रहा कि एससी/एसटी अट्रोसिटी प्रिवेन्शन एक्ट की तरह पिछड़े वर्गों के लिए भी कानून बनाये बगैर पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग को संवैधानिक अधिकार दिया जाना बेमानी है। लोकसभा में संख्याबल के कारण सत्ता पक्ष ने बिल को पारित करवाने में सफ़लता हासिल कर ली। लेकिन मामला राज्यसभा में अटक गया। विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने सत्ता पक्ष पर जल्दबाजी में विधेयक लाने का आरोप लगाया। सपा के नरेश अग्रवाल सहित अनेक सदस्यों ने सामूहिक रुप से विधेयक सदन की प्रवर समिति को सुपुर्द करने की मांग की, जिसे सत्ता पक्ष ने बिना कोई प्रतिरोध किये स्वीकार कर लिया।
पूर्व के आयोग का इतिहास
यह भी अत्यंत दिलचस्प है कि वर्ष 1993 में जब देश में पहली बार पिछड़े वर्ग के लिये आयोग का गठन हुआ था तब भी खूब राजनीति हुई थी। इससे भी अधिक दिलचस्प यह कि तब मंडल और कमंडल दोनों तरह की राजनीति पूरे उफ़ान पर थी। लेकिन तब भी तत्कालीन सरकार अपनी मर्जी से पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन हेतु प्रस्ताव लेकर नहीं आई थी थी। वस्तुतः यह सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायादेश का परिणाम था। इन्दिरा साहनी द्वारा इस संबंध में एक याचिका 1990 में दायर की गयी थी। इस मामले में 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में केंद्र, राज्य एवं केंद्र शासित सरकारों को निर्देश दिया था कि वे एक ऐसी स्थायी संस्था का गठन करें जो ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल जातियों के बारे में अनुश्रावण करे और साथ ही नयी जातियों को शामिल करने व पूर्व में शामिल जातियों को सूची से हटाने के संबंध में अपनी अनुशंसा सरकारों को दे। सुप्रीम कोर्ट के इसी न्यायादेश के अनुपालन के क्रम में केंद्र सरकार ने वर्ष 1993 में पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था और तदुपरांत देश के विभिन्न राज्यों में इस तरह के आयोगों का गठन किया गया। महत्वपूर्ण यह है कि तब इस आयोग की मुख्य जिम्मेवारी केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कार्य ही थी। यानी ओबीसी की सूची में कौन जातियां रहेंगी या फ़िर किसे हटाया जायेगा।
महत्वपूर्ण होती गयी ओबीसी राजनीति
वैसे तो मंडल कमीशन की अनुशंसायें आंशिक तौर पर लागू होने के साथ ही देश में ओबीसी की राजनीति महत्वपूर्ण हो गयी थीं। बिहार और यूपी जैसे देश के बड़े राज्यों में लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने में कामयाब हुए। लेकिन उन दिनों कांग्रेस और भाजपा की राजनीति के केंद्र में ओबीसी हाशिये पर था। खासकर भाजपा की राजनीति मूल रुप से राम मंदिर पर आधारित थी। लेकिन उसने समय के साथ तेजी से अपनी रणनीति में बदलाव किया और परिणाम यह हुआ कि कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेताओं को प्रमुखता मिली। बाद में भाजपा ने ओबीसी राजनीति को बढावा देते हुए कल्याण सिंह को यूपी का सीएम भी बनाया।
मुसलमानों की राजनीति में भी आया बदलाव
यह ओबीसी की राजनीति का ही परिणाम रहा कि मुसलमान भी दो खेमे में बंट गये। अशराफ़ और पसमांदा मुसलनान की राजनीति जोर पकड़ने लगी। हालांकि इसे राजनीति में अह्म बनाने का श्रेय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जाता है, जिन्होंने अपने राज्य में पिछड़ा वर्ग का विभाजन करते हुए अति पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। साथ ही उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को अलग करने की राजनीतिक कोशिश की। यह मुख्य तौर पर लालू प्रसाद के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी का प्रयास था। नतीजतन जनता दल (युनाइटेड) ने एक के बाद एक कई पसमांदा मुसलमानों को अपने दल में अहम जगह दी। दिलचस्प यह भी कि पूर्व में वामपंथी रहे अली अनवर को जब जदयू ने राज्यसभा का सांसद बनाया तब वे खुलकर अपने आपको अली अनवर अंसारी कहने लगे और उन्होंने पसमांदा मुसलमानों की राजनीति को आगे बढाना शुरु किया।
क्या चाहती है केंद्र सरकार?
नब्बे के दशक में शुरु हुई ओबीसी की राजनीति इक्कीसवीं सदी में निर्णायक साबित होने लगी। यहां तक कि भाजपा जैसी ब्राह्मणपरस्त राजनीतिक दल ने ओबीसी वर्ग के नरेंद्र मोदी को अपना नेता माना। इसका लाभ भी उसे मिला और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे बड़ी जीत मिली। अब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के ढाई वर्ष पूरे कर लिये हैं लिहाजा सबकी नजरें वर्ष 2019 में होने वाले चुनाव पर टिकी हैं। ओबीसी की राजनीति को महत्व देने की एक वजह यह भी कि वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में केवल ओबीसी राजनीति के कारण ही भाजपा को लालू-नीतीश के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि इसकी भरपाई उसने इस वर्ष यूपी में हुए चुनाव से केशव प्रसाद मौर्या को अपना नेता मानकर कर ली। यह बात अलग है कि चुनाव में मिली जीत के बाद भाजपा ने एक गैर-ओबीसी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया और केशव प्रसाद मौर्य को वह अब भी राजनीति में ओबीसी के महत्व को बखूबी सम्मान देती है। ऐसे समय में जबकि लोकसभा का चुनाव होने में केवल दो वर्ष का समय शेष रह गया है। भाजपा ने एक बार फ़िर से बड़ा दाव खेला है। दिलचस्प यह कि इस बार भी उसने ओबीसी की राजनीति को ही प्राथमिकता दी है और इस क्रम में उसने पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग को भंग कर नये आयोग के लिए पहल किया। परिवर्तन यह कि केंद्र के मसौदे के मुताबिक नये आयोग के पास संवैधानिक अधिकार भी होंगे और वह केवल जातियों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल करने अथवा हटाने के संबंध में अनुशंसा देने का ही काम नहीं करेगी। वस्तुतः वह ओबीसी वर्ग के विभिन्न मुद्दों मसलन उनके शोषण और आपराधिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकेगी। ठीक वैसे ही जैसे दलितों और अनुसूचित जातियों के लिए बने राष्ट्रीय आयोगों को अधिकार प्राप्त है। हालांकि इस संबंध में विधेयक का विरोध कर रहे दलों का यह स्टैंड कि जिस तरह से दलित व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून है, उस तरह का कानून ओबीसी के लिए नहीं है। लिहाजा केंद्र सरकार के द्वारा संवैधानिक अधिकार दिये जाने की बात बेमानी है। इस संबंध में राज्यसभा सांसद डॉ. मीसा भारती कहती हैं कि “केंद्र सरकार ने आजतक सामाजिक एवं जातिगत जनगणना की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। यदि केंद्र सरकार वाकई में पिछड़ों का भला चाहती है तो उसे सबसे पहले जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी करनी चाहिए।“
विरोध की एक वजह यह भी
केंद्र सरकार ने प्रस्तावित विधेयक में यह तय किया है कि राज्य अब अपने हिसाब से जातियों को न तो ओबीसी की सूची में शामिल कर सकेंगे और न ही हटा सकेंगे। इसके लिए अब केंद्रीय आयोग की सहमति अनिवार्य होगी। उल्लेखनीय है कि ओबीसी की राजनीति के चलते विभिन्न राज्यों में ओबीसी की सूची दिनोंदिन लंबी होती चली जा रही है। आज हालात यह है कि ओबीसी जातियों की संख्या 5000 से अधिक हो गयी है। इस कारण जहां एक ओर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की राजनीति परवान चढती है तो दूसरी ओर केंद्र सरकार पर भी ओबीसी जातियों की सूची को लंबा करने को बाध्य होना पड़ता है। हाल के वर्षों में जाटों के आरक्षण का सवाल सबसे अधिक प्रासंगिक है। वहीं गुजरात में पटेलों का आंदोलन भाजपा के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन चुका है।
विपक्ष की मजबूरी
अब यह साफ़ हो गया है कि देश की राजनीति में ओबीसी सबसे अधिक निर्णायक हैं। भाजपा इस बात को बखूबी समझ रही है तो विपक्षी पार्टियां मसलन कांग्रेस, सपा, राजद और जदयू जैसी पार्टियों के भी कान खड़े हो गये हैं। केंद्र सरकार के विधेयक के संबंध में लोकसभा में विपक्ष के नेता खड़गे मल्लिकार्जुन के संबोधन को देखें तो यह बात साफ़ हो जाती है कि विधेयक में विरोध के लायक कांग्रेस के पास कोई ठोस दलील नहीं है सिवाय इसके कि नये आयोग के गठन से राजनीतिक लाभ भाजपा को मिल सकता है। अन्य क्षेत्रीय दलों के विरोध का भी लब्बोलुआब कमोबेश यही है। इनके लिए विरोध की एक बड़ी वजह यह भी केंद्र के प्रस्तावित विधेयक में राज्यों को जातियों के राजनीतिक खेल से बाहर दर्शक मात्र बनने पर मजबूर कर दिया जाएगा। लिहाजा चुनौतियां तो उनके लिए ही हैं।
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Dear Naval Kishore ji, your average article is not much impressed me for so many reasons. Firstly it’s indirectly great efforts by yourself to promote the agenda of BJP. Very cleverly you quoted the names of Kalyan Singh, Uma Bharti, Keshav Prasad Maurya, Narendra Modi just to show that how BJP is giving importance to the OBC leaders. but no parties are interested to give the real benefit to the OBC and SC/ST communities. They all just want to see them as a puppet. If they all are sincere to upliftment of these communities then they all should to do without any political gain. Don’t givethis issue a political color.