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शरद यादव की बिहार यात्रा, नई राजनीति की आहट!

शरद यादव की इस इस पूरी यात्रा में सर्वाधिक भागीदारी जिन लोगों की थी वे कोई दलगत और पारंपररिक नेता कार्यकर्ता नहीं थे। उनकी इस यात्रा में बहुजन समाज के सैकड़ोें की संख्या में उन युवाओं ने शिरकत की जो सामाजिक न्याय को गहरे समाज में कार्यान्वित होना देखना चाहते हैं। बता रहे हैं अरूण मोहन :

सामाजिक न्याय के अधूरे कार्यभार मुख्य एजेंडा

इन दिनों बिहारी समाज सामाजिक न्याय और दक्षिणपंथ- इन दो विचारधाओं के बीच गहरे कशमकश में है। नीतीश कुमार का भाजपा के साथ समर्पण और लालू प्रसाद का परिवारवाद- ये दो तात्तकालिक परिघटनाएं- वह भयावह अपराध हैं जो मंडल आंदोलन के पूरे सरोकार को न सिर्फ ब्राहणवाद की ओर मोड़ रहे हैं अपितु एक बहुत बड़ी आबादी के साथ विश्वासघात की इन्तहां रच रहे हैं। 90 की दशक की मंडल घटना ने इस राज्य की व्यापक आबादी के अंदर मुक्ति की जो आकांक्षा भरी थी वह पच्चीस-तीस साल बाद ही इतनी अहसानफरामोश निकलेंगी तब शायद इसकी कल्पना भी नहीं की गई थी। आज राज्य की बहुत बड़ी आबादी अशिक्षा, कुपोषण, पलायन और बेरोजगारी की जहालत भरी जिंदगी जीने को अभिशप्त है। उनके जीवन को इस मंडल नेतृत्व ने महज तीन दशकों में ही नारकीय बना डाला है। कुछेक शुरुआती ठोस अवदान के अलावे इस नेतृत्व ने आज बिहार को पूरी तरह कॉरपोरेट,नौकरशाही और भ्रष्ट अपर कास्ट के चारागाह के रूप में परिवर्तित कर दिया है।

कोसी महासेतु निर्मली सुपौल में जनता जनार्दन के बीच शरद यादव

भाजपा पूरे देश के स्तर पर मजबूत विपक्ष के सफाये के लिए जिस तरह के राजनीतिक प्रतिशोध में लगी है उसे देर सबेर अब जाकर देश का हर नागरिक समझने लगा है। बिहार की घटना उसकी उसी मंशा का परिणाम रही जिसमें वह सफल रही। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक पदों की गरिमा और मर्यादाओं की जिस तरह हत्या हुई उसकी ओर न तो किसी मीडिया ने और न ही किसी बौद्धिक एकेडमिया ने उंगली उठाई कि आखिर राज्यपाल के सामने ऐसी कौन सी बाध्यता रही कि उन्होंने बड़े गठबंधन को दरकिनार करते हुए बारह घंटे के अंदर ही आनन-फानन में इस्तीफा स्वीकार किया और नई सरकार का शपथ ग्रहण भी करवा लिया। एक जमाने में कांग्रेस इसी तरह से संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करती थी, अब उससे कई गुणा आगे बढ़कर भाजपा अपने सामने के प्रतिपक्ष से राजनीतिक प्रतिशोध निकाल रही है।  

अब जबकि बिहार में पुनः एनडीए गठबंधन सरकार चला रही है तो विपक्ष की भूमिका खासा महत्वपूर्ण हो गई है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लालू प्रसाद ने राजद के कई अनुभवी नेताओं के होते हुए भी अपने राजकुमार तेजस्वी को विपक्ष का नेता बना दिया। और अपनी सीमाओं को तोपने के लिए नीतीश की तर्ज पर अपर कास्ट की सलाह पर प्रतीक की राजनीति की गंगा बहाने का अभियान चलने लगा।

मधेपुरा स्थित अपने आवास से शरद जी का जनता के नाम संबोधन

लालू और नीतीश  दोनों अगर बड़े जनाधार वाले नेता के रूप में उभरे तो उसका मूल आधार सामाजिक न्याय की अवधारणा ही रही है,  लेकिन इन दोनों दलों की पार्टी का स्वरूप देखें तो वहां ज्यादातर प्रवक्ता अपर कास्ट के हैं क्या यह इन नेताओं की मजबूरी है? या इसके कारण कुछ और हैं इसपर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए। विपक्ष के नेता के तौर पर तेजस्वी के विधान सभा के भाषण की कई लोगों ने गजब की तारीफ की। लेकिन लालू प्रसाद सामाजिक न्याय की जिस राजनीति के चैंपियन रहे हैं उस सामाजिक न्याय के कितने सवाले उनके भाषणों में आए यह सोचने वाली बात है। अभी हमने पढ़ा कि तेजस्वी चंपारण से एक विशेष अभियान जनादेश के खिलाफ जाने के प्रकरण पर चलाया। अब जब आप प्रतीक भी चुन रहे हैं तो उसका वस्तुनिष्ठ परीक्षण जरूरी है। मेरे जैसे लोगों का सहज सवाल है कि प्रतीक के सहारे ही राजनीति करनी है तो हम बिहार के नरसंहार पीड़ित उन गांवों से अपनी यात्रा क्यों न आरंभ करें जिन्हें अंजाम देेने वाले सारे अपराधी कोर्ट से एक-एक कर वरी किए जाते रहे। यह गौरतलब है कि ये सारे फैसले इसी मंडल राजनीति के दौर में आए। और इन अपराधियों को इसी मंडल राजनीति के संरक्षण की वजह से यह विशेेष छूट मिली कि अपराध करके भी वे बाइज्जत बरी किए जाते रहे। विडंबनापूर्ण बात यह है कि लालू की नयी पीढ़ी के अंदर निर्णायक मशविरा देने वाले वही अपर कास्ट के लोग हैं जो जमात नीतीश के साथ नाभिनाल रहे हैं। इसीलिए आज की तिथि में जब भी लालू प्रसाद सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो 90 के दशक वाला उनका वह नैतिक ओज नजर नहीं आता। यहां वे महज जमूरे की तरह अभिनय करने वाले बाजीगर भर नजर आते हैं जिसे बहुजन समाज भलीभांति समझता है और उनकी नादानी पर महज हंसकर अपना गम भूला लेता है।

राजनीतिक गरमी ला रहे शरद

सामाजिक न्याय के लिए यह सर्वथा विपरीत परिस्थिति है जब ऐसी विपरीत स्थिति जहां उसके अगुआ ही उसके सबसे बड़े दुश्मन बन बैठे हैं। ऐसे में शरद यादव की बिहार यात्रा एक नई उम्मीद जगाती है। बहुत सारे लोग जिसमें अपर कास्ट और अकादामिया तो इसके घोषित शत्रु हैं ही बहुजन समाज के अंदर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो उन्हें कई तरह की शंकाओं व संशय की निगाह से देख रहे हैं। लेकिन उनकी 11 अगस्त से शुरू हुई  तीन दिवसीय यात्रा से संकेत मिलते हैं कि शायद  उनके दिल में अब तक की राजनीति से अर्जित अपने अनुभवों को जनता के हक में उतारने की इच्छा उनमें परवान चढ़ रही है।

अगर आपको बिहार के वर्चस्वशाली समुदायों के असली रूख  को समझना हो, तो उसका सबसे मुखर स्वरूप वहां के हिंदी मीडिया में प्रकाशित रिपोर्टों को देखकर समझ जा सकता है। आजादी के पहले से आज तक बिहारी मीडिया उच्च जातियों के पत्रकारों का अभायरण्य रहा है। शरद यादव की इस यात्रा के दौरान भी जहां बिहार की हिंदी मीडिया ने शरद यादव के भाषणों को सेंसर किया वहीं यह प्रचारित करता रहा कि  उनकी लालू प्रसाद से सांठगांठ है। मीडियाकर्मियों ने पटना में सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों के बीच यह भी फैलाने की कोशिश की कि शरद बेटे को विधान पार्षद और मधेपुरा से सांसद बनाना चाहते हैं। इन खबरों के बीच भी बिहार के युवाओं ने शरद का साथ दिया।

सहरसा के बैजनाथपुर चैक में में मूसलाधार बारिश में छतरी तले जनता को संबोधित करते शरद यादव

शरद यादव की इस इस पूरी यात्रा में सर्वाधिक भागीदारी जिन लोगों की थी वे कोई दलगत और पारंपररिक नेता कार्यकर्ता नहीं थे। उनकी इस यात्रा में बहुजन समाज के सैकड़ोें की संख्या में उन युवाओं ने शिरकत की जो सामाजिक न्याय को गहरे समाज में कार्यान्वित होना देखना चाहते हैं। इनमें भारी संख्या में मुस्लिम समाज के पसमांदा समुदाय, दलित, महादलित समुदाय, अति पिछड़ा समुदाय और ओबीसी के युवा थे। इन कार्यकर्ताओं की सूझ-बूझ, उनकी दिलेरी और साहस को शरद यादव ने नोटिस किया और उन्हें आश्वस्त किया कि वे अपने जीते जी एक नया युवा नेतृत्व देकर जाएंगे।

उनकी यह त्रिदिवसीय यात्रा पटना से आरंभ हुई । सोनपुर में सपन्न हुई अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने उतरी बिहार के 8 जिलों के दर्जनों गांवों की तकरीबन सौ सभाओं को संबोधित किया। उनकी यह यात्रा पटना हवाई अड़्डे से आरंभ हुई और सोनपुर, मुजफ्फरपुर होते हुए दरभंगा, सुपौल और मधेपुरा तक परवान चढ़ी। मौसम के विपरीत माहौल के बावजूद स्थिति यह थी कि बड़ी संख्या में लोग उनको सुनने के लिए इकट्ठे हुए। उनकी यह यात्रा सड़क द्वारा जनता से सीधे संवाद की शैली में थी। उन्होंने सोनपुर, हाजीपुर, सराय, भगवानपुर, गोरौल, कुढ़ानी, तुर्की, रामदयालु नगर, गोबरसाही, भगवानपुर चौक, मुजफ्फरपुर, चांदनी चौक, जीरो माइल, गरहा, बोचहा, मझौली, सर्फुद्दीनपुर, जारंग, गायघाट, बेनीबाद, दरभंगा,मधुबनी, सुपौल, सहरसा और मधेपुरा सरीखे दर्जनों स्थानों पर जनता से सीधे संवाद किया। अपने उद्बोधन में उन्होंने बिहार में राजग गठबंधन की हत्या करने वाली शक्तियों को टारगेट किया और कहा कि जनता से जो करार है वह टूटा है। दो मेनफेस्टो चुनाव में प्रस्तुत हुए थे एक एनडीए का था और दूसरा महागठबंधन का था। जनता से जो करार था वह टूटा है। इससे ग्यारह करोड़ लोगों का मन आहत हुआ है। उन्होंने कहा कि गठबंधन उपर में सरकार में बैठे लोगों ने तोड़ा है। जनता में वह गठबंधन बना हुआ है। आने वाले समय में उसे और मजबूत करना है। उन्होंने कहा कि एक सरकारी जनता दल है और एक जनता का जनता दल हैै। हमें उम्मीद इसी जनता से है।

प्रसिद्ध साहित्यकार रवींद्र भारती कहते हैं कि “इस प्रकार 80 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस के अजेय शासन के विरोध में जनमोर्चा बनाया था। उस समय उनके सामने उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी थी, उनकी यह ताकत ऐसी संगठित शक्ति के रूप में उभरी कि उसने 90 के दशक के पूरे राजनीतिक डिसकोर्स को ही बदल डाला।’

वर्तमान दौर में भाजपा जिस रास्ते का अनुसरण कर रही है, उस विपरीत माहौल में उससे लोहा लेने की दिलेरी कहीं से भी बनी बनाई लीक नहीं है। यह दुरूह और लगभग अभेद्य  है। देखना यह ही शरद नामक यह वृद्ध लेकिन अनुभवी योद्धा इस दुर्ग को भेदने में सफल हो पाता है या नहीं।


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लेखक के बारे में

अरूण मोहन

अरूण मोहन युवा साहित्यकार व सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। “बहुजन समाज : चिंतन और सरोकार” शीर्षक से उनकी पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है

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