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ओबीसी, दलितों और आदिवासियों की उपेक्षा से त्रिपुरा में हारा वामपंथ

पूर्वोत्तर के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को जीत केवल इसलिए नहीं मिली है कि उसने सांप्रदायिक भावनाओं को उकसाया और वोट हासिल किया। मसलन त्रिपुरा में भाजपा ने ओबीसी के आरक्षण का सवाल उठाया और यह भी कि दलिताें व आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को लेकर भी वामपंथी सरकार ईमानदार नहीं थी। बता रहे हैं राम पुनियानी :

हाल ही में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा में चुनाव हुए। आसाम के बाद इन राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी को सफलता मिली। सबसे बड़ा उलटफेर त्रिपुरा में देखने को मिला जहां 29 वर्षों से काबिज वामपंथी दलों को सत्ता से बाहर हो जाना पड़ा। उनकी हार के पीछे बहुत सारे कारण चर्चा में हैं। परंतु एक कारण जिसकी चर्चा न तो हारने वाले वामपंथी करना चाहते हैं और न अब जीतने वाले भाजपा के नेतागण। यह सवाल ओबीसी के आरक्षण का सवाल है। भाजपा ने चुनाव के दौरान यह सवाल उठाया था।

जीत का जश्न मनाते त्रिपुरा के नये मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देव

गौर तलब है कि दलितों और आदिवासियों को राज्य में उनकी आबादी के अनुपात में क्रमश: 17 प्रतिशत एवं 31 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन राज्य सरकार ने पिछले वर्ष ही सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में कहा था कि राज्य में आरक्षित कोटे के कर्मियों की हिस्सेदारी केवल 36 फीसदी है।

खैर त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भाजपा की जीत और वामपंथ की हार के पीछे कई और कारण भी हैं। मसलन पिछले कुछ दशकों से पर्चों, पोस्टरों और अन्य तरीकों से अनवरत यह प्रचार किया जा रहा है कि ईसाई मिशनारियां बड़े पैमाने पर लोगों को ईसाई बना रहीं हैं। इस सिलसिले में अधिकांश उदहारण पूर्वोत्तर राज्यों के दिए जाते हैं। इस प्रचार का इस्तेमाल पूरे देश में, विशेषकर चुनावों के दौरान, ईसाई समुदाय के खिलाफ नफरत फ़ैलाने के लिए किया जाता है। इसी जहर ने पास्टर ग्राहम स्टेंस की जांच ली, कंधमाल में भयावह हिंसा भड़काई और देश के अलग-अलग हिस्सों में चर्चों पर हमले का सबब बनी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि वह भाजपा जो राम मंदिर का झंडा बुलंद किये हुए है, जो गाय को माता बताती है और जो हिन्दू राष्ट्रवाद की पैरोकार है, उसने क्यों और कैसे हाल में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनावों में विजय हासिल कर सकी। वह भी तब जब इन राज्यों में ईसाईयों की खासी आबादी है, बीफ यहाँ लोगों के रोजाना के खानपान का हिस्सा है और जहाँ ढेर सारी जनजातियाँ हैं, जिनके अलग-अलग और परस्पर विरोधाभासी राजनैतिक हित हैं और जो अलग-अलग संगठन बनाकर, अपनी-अपनी जनजातियों के लिए अलग राज्यों की मांग करती आ रहीं हैं।  

चुनाव के बाद सत्ता से बाहर होने के बाद पत्रकारों से बातचीत करते पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार, सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी, पोलित ब्यूरो के सदस्य हन्नान मोल्ला व पूर्व महासचिव प्रकाश करात

पूर्वोत्तर के हर राज्य में स्थितियाँ अलग-अलग हैं और इसलिए भाजपा ने यहाँ के लिए जो चुनाव रणनीति बनाई है वह काफी लचीली है। पार्टी के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है, उसकी प्रचार मशीनरी अत्यंत सक्षम है और उसके पितृ संगठन आरएसएस के स्वयंसेवक उसके लिए पूर्ण समर्पण से काम कर रहे हैं। यही कारण है कि वह एक के बाद एक राज्यों में सफलता के झंडे गाड़ रही है। आसाम में उसने बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उठाया और यह डर दिखाया कि अगर उन्हें रोका नहीं गया तो मुसलमान पूरे राज्य में छा जायेंगे और हिन्दू अल्पसंख्यक बन जायेगें। उसने अलगाववादी संगठनों से गठजोड़ बनाने में भी कोई गुरेज़ नहीं किया।  इस क्षेत्र के अधिकांश निवासियों की यह धारणा है कि कांग्रेस ने इलाके के विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। भाजपा एक ओर तो अपनी विचारधारा से असहमत व्यक्तियों के बारे में गालीगलौज की भाषा में बात करती हैं और उन्हें राष्ट्रविरोधी बताती है, वहीं उसे ऐसा संगठनों से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं है जो अलग-अलग राज्यों या देश से अलग होने की बात करते आ रहे है। त्रिपुरा की वाममोर्चा सरकार की ईमानदारी तो सत्यनिष्ठा तो संदेह से परे थी परन्तु वह जनता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में असफल सिद्ध हुई। वह ओबीसी और आदिवासियों की आरक्षण सम्बन्धी मांगों को पूरा नहीं कर कई और युवाओं को रोज़गार के अवसर निर्मित करने के मामले में उसका रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा। इससे भाजपा को यह मौका मिल गया कि वह आम लोगों को विकास का स्वप्न दिखा कर अपनी और आकर्षित कर सके।  

त्रिपुरा में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य

त्रिपुरा में भाजपा ने मुख्यतः दो मुद्दों पर जोर दिया। पहला था विकास। यद्यपि अब यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा का विकास का नारा खोखला है और उसका उद्देश्य केवल वोट कब्जाना है परन्तु फिर भी वह त्रिपुरा में मोदी को “विकास पुरुष” के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रही।  माणिक सरकार के शासन में, कर्मचारियों को नए वेतन आयोगों की सिफारिशों को लाभ नहीं दिए जाने के कारण भी शासकीय कर्मचारियों और उनके परिवारों में भारी रोष था। आज जहाँ देश के अन्य हिस्सों में कर्मचारियों को सातवें वेतनमान का लाभ दिया जा रहा है, वही त्रिपुरा सरकार अब भी पांचवें वेतनमान पर अटकी हुई है। त्रिपुरा में भाजपा ने यह प्रचार किया कि वहां हिन्दू शरणार्थी हैं और मुसलमान घुसपैठिये। उनका उद्देश्य बंगाली हिन्दू मतदाताओं को प्रभावित करना था। आरएसएस के स्वयंसेवक, आदिवासी इलाकों में लम्बे समय से धार्मिक आयोजनों और स्कूल आदि खोल कर माणिक सरकार का तख्ता पलट करने में सफल रहे क्योंकि यह सरकार आदिवासियों को रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाने में पूरी तरह असफल रही। बीफ के मामले में भाजपा ने दोहरी नीति अपनाई। उसने कहा कि यद्यपि वह अन्य राज्यों में गो-हत्या और बीफ को प्रतिबंधित करने के पक्ष में है परन्तु पूर्वोत्तर में वह यह नीति नहीं अपनाएगी। परन्तु जानने वाले जानते हैं कि आरएसएस-भाजपा द्वारा उठाये जाने वाले अन्य मुद्दों की तरह, पवित्र गाय का मुद्दा भी एक समाज को विभाजित करने का एक राजनैतिक हथियार है और समय आने पर, वह केरल और गोवा की तरह, उत्तरपूर्व में भी बीफ और गौहत्या को मुद्दा बनाएगी।  

(अंग्रेजी से हिन्दी अनुवादकर्ता : अमरीश हरदेनिया)


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राम पुनियानी

राम पुनियानी लेखक आई.आई.टी बंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

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