क्रिस्टोफ जेफ्रीलो डॉ. आंबेडकर के विचारों और दर्शन के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विद्वानों में एक हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. नरेंदर कुमार के साथ मिलकर अंग्रेजी में ‘डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी : एन एंथोलॉजी’ नामक एक नई पुस्तक का संपादन किया है।
साम्प्रदायिकता पर अपनी कलम चलाते हुए आंबेडकर ने लिखा था कि लोकतांत्रिक राजनीति में अगर साम्प्रदायिक बहुसंख्यक राजसत्ता की अनदेखी करता है तो लोकतांत्रिक राज्य के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह ऐसी सांस्थानिक व्यवस्था विकसित करे जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा कर सके। दूसरे शब्दों में, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच खाई को पाटना जरूरी है। पर इस समय भारत में जो राजनीतिक पार्टी सत्ता में काबिज है उसने दोनों समुदायों के बीच इस खाई को और चौड़ा किया है और ऐसा उसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की आड़ में किया है।
डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी में सांप्रदायिक समस्याओं का जिस निर्ममता से विश्लेषण किया गया है और इसके समाधान के जो रास्ते सुझाये गए हैं वे आज की स्थितियों में ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।

इस पुस्तक में वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की चर्चा की गई है, जिसमें एक भी मुसलमान उम्मीदवार को टिकट दिए बिना भाजपा को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। कुल मिलाकर, आजादी के बाद के भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम हो गया है। इस समय संसद में सिर्फ 23 मुसलमान सांसद हैं जबकि देश की कुल जनसंख्या में मुसलमान 14 प्रतिशत हैं। इस बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि यह स्थिति प्रशासनिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रिक समावेशीकरण के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचारों के विपरीत है।
इसके बावजूद अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों पर इस शासन के मंत्रियों द्वारा खुलेआम जिस तरह की तोहमतें लगाई जाती हैं वह और भी रंज पैदा करने वाला है। हाल ही में, भाजपा के एक मंत्री ने अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों को समाप्त किये जाने की खुलेआम वकालत की। इस मंत्री के इस बयान का आधार यह विश्वास था कि भारत में अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से ज्यादा अधिकार है। पर यह असत्य है और समान अवसर के सिद्धांत के खिलाफ है। फिर, गौर करने लायक बात यह है कि सिविल सोसाइटी समूहों के कई अध्ययनों में स्पष्ट पता चला है कि मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति काफी खराब है। हकीक़त यह है कि किसी भी अन्य सामाजिक-धार्मिक समूह की तुलना में उनकी स्थिति बदतर है। सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006), रंगनाथ मिश्रा रिपोर्ट (2007) और अमिताभ कुंडू रिपोर्ट (2014) ने समाज के हर क्षेत्र में मुस्लिमों के निर्बाध हाशियाकरण संबंधी निष्कर्षों को सही पाया है।
इस सन्दर्भ में, डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी नामक इस पुस्तक के संपादकों ने अल्पसंख्यक समुदायों को ज्यादा अधिकार और वित्तीय मदद दिए जाने के डॉ. आंबेडकर के विचारों को भी रखांकित किया है।
सामाजिक लोकतंत्र और प्रजातंत्र में सह-जीवन
हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि आंबेडकर ने राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के द्वारा राज्य की नीतियों में सामाजिक और आर्थिक न्याय का समावेश किया। ये सिद्धांत राज्य पर इन नीतियों का अनुसरण करने का दायित्व डालते हैं ताकि कानूनों और नीतियों के द्वारा सामाजिक और आर्थिक समानता के सिद्धांतों को वह लागू कर सके (पृष्ठ xi)।

आंबेडकर ने सामाजिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता का आवश्यक शर्त माना और कहा कि सामाजिक लोकतंत्र में प्राथमिक रूप से सामाजिक न्याय की बात अन्तर्निहित है (पृष्ठ xii)। लोकतंत्र के बारे में डॉ. आंबेडकर का विचार सरकार और राज व्यवस्था कैसी हो उस तक सीमित नहीं है; यह राजनीतिक प्रशासन की व्यवस्था से कहीं ज्यादा बड़ा है। आंबेडकर के लिए लोकतंत्र साथ-साथ रहने वाले लोगों में एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की भावना के साथ सह-जीवन का प्राथमिक तरीका है (पृष्ठ viii)।
और डॉ. आंबेडकर के अनुसार, लोकतंत्र का सार है “एक व्यक्ति, एक वोट”। राजनीतिक लोकतंत्र “एक व्यक्ति, एक वोट” द्वारा इस सिद्धांत को लागू करने की कोशिश करता है और इसके लिए वह जिन दो बातों का सहारा लेता है वह है – नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता। नागरिक स्वतंत्रता के तहत वह लोगों के लिए बोलने, सोचने, पढने, लिखने, विचार-विमर्श करने और कार्रवाई की स्वतंत्रता हासिल करता है जबकि राजनीतिक स्वतंत्रता के तहत क़ानूनों के निर्माण और सरकारों के गठन और विघटन में व्यक्ति की भूमिका सुनिश्चित करता है (पृष्ठ ix)।
इस पुस्तक की प्रस्तावना में प्रो. सुखदेव थोरात ने राष्ट्र निर्माण के उस दौर में लोकतंत्र की अवधारणा के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचारों की चर्चा की है। वह लिखते हैं, “डॉ. आंबेडकर के लिए लोकतंत्र प्राथमिक रूप से साथ रहने की एक व्यवस्था है जिसमें अपने साथ रहने वालों के प्रति आदर और सम्मान होता है” (पृष्ठ vii) ।
अर्थव्यवस्था के बारे में बाबासाहेब के विचारों की प्रासंगिकता की चर्चा करते हुए वह आगे कहते हैं, “आंबेडकर ने एक विशेष प्रकार के समाजवाद के रूप में एक वैकल्पिक आर्थिक ढाँचे का सुझाव सामने रखा जिसमें उन्होंने कृषि और बुनियादी उद्योगों में राजकीय स्वामित्व की बात कही” (पृष्ठ x)।
बौद्ध धर्म का समर्थन
डॉ. आंबेडकर के अनुसार, हिन्दू जाति का समाज अपनी ताकत अपने धर्मग्रंथों से लेता है और यह समतावाद के खिलाफ है। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म का समर्थन किया जो जीवन के हर क्षेत्र में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व को बढ़ावा देता है।
इस पुस्तक के लेखकों का कहना है कि डॉ. आंबेडकर के लिए बौद्ध धर्म का सिर्फ सामाजिक महत्त्व नहीं है बल्कि इसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। उनके विचार में “बौद्ध धर्म सभी को विचारों और स्व-विकास की स्वतन्त्रता देता है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार, “भारत में बौद्ध धर्म का उत्थान उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना फ़्रांस की क्रान्ति” (पृष्ठ xiv)।
अल्पसंख्यकों के अधिकार
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. सुखदेव थोरात ने लिखा है कि “राष्ट्र निर्माण” की परियोजना की परिकल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों, महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक न्याय को साथ लेकर चलने वाले लोकतंत्र के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचारों को गंभीरता से नहीं लिया जाता।

डॉ. आंबेडकर को लेकर भाजपा की राजनीति प्रतीकात्मक है। आज सत्ता में बैठी पार्टी का आंबेडकर की समानता की भावना के साथ कोई सरोकार नहीं है और वह मुसलमानों के खिलाफ उनका प्रयोग कर रही है और संदर्भ के बाहर उनके उद्धरणों को उद्धृत कर अपने मुसलमान-विरोधी नीतियों पर आंबेडकर के नाम की मुहर लगा देती है। आंबेडकर सामाजिक न्याय और सामाजिक-आर्थिक समानता के प्रति समर्पित थे जिसको भाजपा अपने राजनीतिक अभियान से बहुत ही सफाई से दूर रखती है।
जैसा कि इस पुस्तक के अध्यायों से स्पष्ट है, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर आंबेडकर के विचार काफी व्यापक और गहरे अंतर्दृष्टि वाले हैं। इसमें अल्पसंख्यकों की परिभाषा है, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व को सही ठहरानेवाले सिद्धांत हैं, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के लिए चुनावी तरीके हैं और साम्प्रदायिक बहुसंख्यक की विधायिका से आम संरक्षण के उपाय हैं। साम्प्रदायिक बहुसंख्यक राष्ट्र और राष्ट्रवाद के लिए क्या हो सकता है इस बारे में आंबेडकर ने 1940 के दशक में अपनी राय व्यक्त की थी। इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा था, “यह भारत के अल्पसंख्यकों का दुर्भाग्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया सिद्धांत गढ़ा है जिसे अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुरूप शासन करने का बहुसंख्यकों का दैवी अधिकार कहा जा सकता है। सत्ता में भागीदारी के अल्पसंख्यकों के किसी भी दावे को साम्प्रदायिक बता दिया जाता है जबकि समस्त शक्ति पर बहुसंख्यकों के एकाधिकार को राष्ट्रवाद बता दिया जाता है” (पृष्ठ xvii)।
इस क्रम में संविधान सभा में हुई बहस में डॉ. आंबेडकर के एक भाषण का जिक्र करना उचित होगा। “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासपूर्ण जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में हमें समानता मिलेगी जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे हिस्से में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, अपने सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ के सिद्धांत से इनकार करते रहेंगे। अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में हम कब तक समानता को स्वीकार करने से बचते रहेंगे? अगर हम लम्बे समय तक इसे देने से इनकार करते रहेंगे, तो ऐसा हम अपनी राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालने की कीमत पर करेंगे” (संविधान सभा बहस, भाग XI, पृष्ठ 979)।
धुर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी विचारधारा और राजनीति के आक्रमणकारी स्वरूप को देखते हुए, ‘डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी’ एक स्वागतयोग्य हस्तक्षेप है। यह पुस्तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों, सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व, जाति-आधारित भेदभाव आदि से सम्बंधित ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर पेश करती है।
राष्ट्र निर्माण के सपने को तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जबतक हम आम लोगों के अधिकारों को सुरक्षित नहीं करते। इसलिए, हम अकादमिकों और आम दोनों ही तरह के लोगों से आग्रह करते हैं कि वे ‘डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी’ के माध्यम से डॉ. आंबेडकर के विचारों की और लौटें।
पुस्तक का नाम : डॉ. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी : एन एंथोलॉजी
सम्पादक : क्रिस्टोफ जेफ्रीलो और नरेंद्र कुमार
प्रकाशक : ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,
पृष्ठ : 296
मूल्य : 850 रुपए
प्रकाशन वर्ष : 2018
प्रकाशक : आक्सफोर्ड प्रकाशन
ISBN: 9780199483167
(पुस्तक समीक्षा का अनुवाद : अशोक झा)
(कॉपी संपादन : प्र. रं)
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