भारत में खासकर बिहार पिछड़ापन, गरीबी, निरक्षरता, भ्रष्टाचार और गुंडावाद (जंगल राज) का पर्याय बन गया है। मुझे याद है कि मेरे एक दोस्त ने बिहार के आसपास के इलाकों में जाने के दौरान मुझे बेहद सावधान रहने की सलाह दी थी (मैं पड़ोसी उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्सों का दौरा करने जा रहा था!)। बिहार की ऐसी छवि क्यों है और क्यों ऐसी छवि बनायी जाती रही है, इस संबंध में सवाल उठाने की हिम्मत करने वाले कुछ ही लोग हैं। जेफरी विटसो उनमें एक हैं और उनकी किताब ‘डेमोक्रेसी अगेंस्ट डेवलपमेंट : लोअर कास्ट पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल मॉडर्निटी इन पोस्टकोलोनियल इंडिया’ उनके साहसी कृत्यों में से एक है। अफसोस की बात है कि बिहार पर समाजशास्त्र और मानवशास्त्र विषयक कार्य कई सालों से नगण्य रहे हैं। विकास, लोकतंत्र और जाति की तीन धुरियों के आपसी संबंधों को समझने में विट्सो का कार्य, व्यवस्था के विरुद्ध चला जाता है। यह किताब बिहार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) पार्टी की अनुभव के स्तर पर तथा उदारवाद, उत्तर-उपनिवेशवाद, लोकतंत्र, विकास, जाति और राज्य की विषय के स्तर पर बात करती है।
लोकतंत्र और विकास को अक्सर एक-दूसरे का विरोधी माना जाता है। विट्सो, अपने अनुभव और सिद्धांतों की पैनी नज़र से, इससे आगे बढ़कर कहते हैं- दोनों परस्पर गहरे जुड़े हैं। लेखक लोकतंत्र (और विकास) को लेकर उत्तर-औपनिवेशिक समझ का उपयोग करते हुए जाति आधारित राजनीति के अपने अवलोकन के साथ इसका सूक्ष्म अध्ययन करते हैं। उनका तर्क है कि निचली जाति की राजनीति ने न केवल लोकतंत्र के ढांचे में, बल्कि विकास के फायदों को साझा करने में भी मदद की है। इस प्रकार, वे भारतीय समाज के केवल गैर-पश्चिम होने के नाते उसकी सामान्य उत्तर-औपनिवेशिक समझ से आगे बढ़कर उदारवाद और उत्तर-उपनिवेशवाद की सामान्य धारणाओं की आलोचना करते हैं। “तीन साल से अधिक की जमीनी मेहनत” ने इस समृद्ध लोक-समाज-संस्कृति के व्यवस्थित अध्ययन के ब्यौरों के रूप में लाभांश का भुगतान किया है।

पुस्तक में सात अध्याय और एक प्रस्तावना है। क्रमिक रूप से सुव्यवस्थित सातों अध्यायों में तर्क व क्षेत्र कार्य के आंकड़े निर्बाध कथा की तरह पिरोये गए हैं। विटसो का अध्ययन विविध तथ्यों के सम्मिलित विश्लेषण (मेटा) से एक-एक तथ्य के करीबी (मैक्रो) अध्ययन और छोटे-छोटे (मिनी) ब्यौरों से सूक्ष्म (माइक्रो) भौतिक स्थानों तक है। जहां पहला अध्याय भारत का वर्णन करता है, वहीं दूसरा अध्याय बिहार राज्य का, तीसरा एक जिले का, चौथा एक प्रखंड का, पांचवां गांव का और छठा गांव की एक कॉलोनी का वर्णन करता है। प्रस्तावना उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र और निचली जाति की राजनीति के तीन विषयों के आस-पास बहस खोलता है। पहले अध्याय में, विटसो औपनिवेशिक शासन में पीछे जाते हैं और सत्ता के केंद्रों के रूप में ऊंची जातियों (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ) के एकीकरण के तरीकों की पड़ताल करते हैं। इसी संदर्भ में निचली जाति की राजनीति का उद्भव रखा गया है। दूसरा अध्याय कांग्रेस पार्टी की ऊपरी जाति प्रकृति और कैसे राजद ने इसे चुनौती दी, इसकी जांच करता है। राजद प्रमुख लालू यादव, निम्न जातियों के सशक्तिकरण के पर्याय बन गए। तीसरा अध्याय समाज और राज्य के चेहरे को दिखलाता है और भोजपुर जिले पर एक अनुभवजन्य काम के माध्यम से बिहार राज्य की पक्षपातपूर्ण प्रकृति को दर्शाता है। ऊपरी जातियों के एकाधिकार ने निचली जाति के बहुमत के रोज़ के मसलों के समाधान में राज्य मशीनरी को अनावश्यक बना दिया। चौथा अध्याय बिहार के समाज और राज्य के विविध विश्लेषणों से आगे एक प्रखंड (कोइलवर) तक जाता है और क्षेत्रीय स्तर पर जातियों के कामकाज का विवरण देता है। पांचवां अध्याय गांव के स्तर पर जातीय शक्ति की गतिशीलता को स्पष्ट करता है। छठा अध्याय गांव में यादव कॉलोनी के छोटे-छोटे ब्यौरों पर केंद्रित है। अंतिम अध्याय आरजेडी की राजनीति और अनुसंधान के समय (2010 के आसपास) तक की इसकी चुनौतियों को प्रतिबिंबित करता है।

पुस्तक का निचोड़ यह है कि कैसे निचली जाति की राजनीति ने राज्य की मशीनरी को कमजोर किया क्योंकि यह बेहद जातिवादी प्रकृति का था और उससे बने खालीपन को पिछड़ी जातियों की कमान वाले सत्ता के नए केंद्रों से, भले ही आंशिक तौर पर, भरने की कोशिश की। बदले में, राज्य प्रेरित गतिविधियों को लकवा मार गया, जिसके कारण बिहार को भ्रष्ट होने और गुंडाराज लेबल की कुख्याति मिली। विट्सो के अनुसार, ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि निचली जाति वाली पार्टी (राजद) के राजनीतिक तंत्र (विधायी) संभालने के बाद भी निचली जाति की राजनीति राज्य की जातिवादी प्रकृति को प्रभावी ढंग से नहीं बदल सकी। अंतर केवल इतना हुआ कि पहले पार्टीजन और नौकरशाह अपने ऊपरी-जाति-नेटवर्क के कारण अपने भ्रष्टाचार को छुपा सकते थे, लेकिन अब आरजेडी नेताओं और समर्थकों के कारण यह संभव नहीं था। विटसो ने हिंदी और अंग्रेजी मीडिया की गलत भूमिका की बार-बार आलोचना की है, जिसने आरजेडी के दृष्टिकोण जो वास्तव में गरीबों और निचली जातियों के पक्ष में थे, उनको बदनाम करने का खेल खेला था। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अनुसूचित जाति (अनुसूचित जाति) दोनों ने आत्मविश्वास प्राप्त किया और सत्ता के गलियारे में अपनी आवाज व्यक्त कर सकते थे। मुस्लिम ऐसे राज्य में रहने के लिए समान रूप से खुश थे जहां सांप्रदायिक दंगों का कोई खतरा नहीं था। यह संस्कृति का जाति-प्रेरित परिवर्तन था जिससे कइयों की भौहें तन गईं और जंगल राज और यादव राज का लेबल लग गया।
इन सभी उपलब्धियों के बावजूद, आरजेडी सत्ता बरकरार नहीं रख सकी। विटसो ईमानदारी से राजद की कमजोरियों को स्वीकार करते हैं। ओबीसी और एससी की आकांक्षाओं में वृद्धि कुछ ऐसी थी, जहां लालू चूक गए। राजद, बाद में, यादव-वर्चस्व वाली राजनीति में स्थिर हो गई। राज्य (नौकरशाही और विश्वविद्यालय दोनों) कमजोर हुआ, लेकिन कोई विकल्प नहीं दिया गया। यहां विटसो ने पड़ोस के उत्तर प्रदेश को देखा होगा, जहां मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने राज्य को मजबूत करके शासन किया।
सैद्धांतिक स्तर पर, विटसो, भारतीय राज्य, मीडिया, नौकरशाही और शिक्षाविदों को समझने के लिए उत्तर-उपनिवेशवाद विद्वता और इसके अभिजात वर्गीय (जातिवादी) पूर्वाग्रहों के आंकड़ों से जूझ रहे होते हैं। यह पुस्तक उन सभी के लिए जरूरी है जो बिहार, निचली जाति की राजनीति, और लोकतंत्र और विकास के मानव शास्त्र के बारे में जानना चाहते हैं। मैं खुद विट्सो की किताब से एक पन्ना लेकर लोक-समाज-संस्कृति का कुछ बहुआयामी अध्ययन अच्छे से कर सकता हूँ।
किताब का नाम : डेमोक्रेसी अगेंस्ट डेवलपमेंट : लोअर कास्ट पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल मॉडर्निटी इन पोस्टकोलोनियल इंडिया (अंग्रेजी में)
लेखक : जेफरी विटसो
प्रकाशक : शिकागो विश्वविद्यालय प्रेस
प्रकाशन का वर्ष : 2013
पन्ने : 256
मूल्य : 3128 रुपये
(अंग्रेजी से अनुवाद : अनिल, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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