दलित पैंथर्स का यह इतिहास एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखित है, जो इसकी स्थापना के केंद्र में रहे हैं और उसके महासचिव भी। वे इसकी स्थापना से लेकर इसके अंतिम दिनों तक इसकी हर गतिविधि के न केवल गवाह रहे, बल्कि अगुवा भी रहे हैं। उन्होंने संगठन के सारे रिकॉर्ड और विवरणों को संजो कर रखा। दलित पैंथर के इतिहास को सिर्फ 50 संक्षिप्त अध्यायों में ही जे.वी. पवार ने प्रस्तुत कर दिया है। ये अध्याय उतने विस्तार में नहीं हैं जितने विस्तार में किसी अन्य राजनीतिक पार्टियों के चर्चित ऐतिहासिक ग्रंथ हैं, जिन्हें भारतीय और विदेशी इतिहासकारों ने लिखा है।
सर्वविदित है कि दलित पैंथर्स की स्थापना राजा ढाले, नामदेव ढसाल और जे.वी. पवार ने 29 मई, 1972 को की। महाराष्ट्र में इसकी यात्रा उतार-चढाव से भरी हुई थी। अपने छोटे से जीवनकाल के बावजूद संगठन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। 7 मार्च, 1977 को यह संगठन विगठित हो गया। करीब पांच साल तक चले इस आंदोलन ने असमानता, अत्याचार, हिंसा और शोषण के खिलाफ अनाक्रामक प्रतिरोध में विश्वास रखनेवाले आंबेडकरवादी आंदोलन को इस मनःस्थिति से निकाला और उसे आक्रामक तेवर वाले आंदोलन का रूप दिया। इस आंदोलन ने दलितों की समस्या को दूर करने के लिए सरकार की कार्रवाई की प्रतीक्षा किए बिना ही स्वयं अपने स्तर से उचित कार्रवाई करनी शुरू कर दी।
इस पुस्तक का उप-शीर्षक इसके दलित पैंथर्स आंदोलन का ‘प्रामाणिक इतिहास’ होने का दावा करता है। लेकिन पवार खुद ही इसकी प्रस्तावना में कहते हैं कि यह इतिहास संक्षिप्त ही है। पवार ने जो लिखा है, वह भले ही संक्षिप्त हो, लेकिन वह प्रामाणिक है। घटनाओं के विवरण की जहां तक बात है, यह प्रामाणिक है, क्योंकि इसमें आंदोलन में भाग लेनेवालों के बारे में विस्तार से वर्णन है। संगठन की छोटी-बड़ी बातों का जिक्र है। इसकी उपलब्धियों का जिक्र है और संगठन की यात्रा के क्रम में इसमें आनेवाले बदलावों का जिक्र भी है। ढाले और ढसाल ने भी अपने-अपने दृष्टिकोणों से दलित पैंथर्स का इतिहास लिखा है, लेकिन इन दोनों की पुस्तकों में इस संगठन के वस्तुपरक वर्णन का अभाव है। इस बात का भी विस्तार से जिक्र नहीं मिलता कि अपने संक्षिप्त अस्तित्व के दौरान संगठन ने कौन-कौन से कार्यक्रम किये। पवार यह ठीक ही कहते हैं कि सिर्फ तीन लोग – राजा ढाले, नामदेव ढसाल और वे खुद – इस संगठन का इतिहास लिख सकते हैं। और ऐसा ही हुआ भी है कि इन तीनों ने इस संगठन के उतार-चढ़ाव वाले इतिहास पर अपनी कलम चलाई है। लेकिन जब आप इन तीनों की तुलना करेंगे तो आपको इनमें विरोधाभासी बातें मिलेंगी। मैं पवार की इस बात से सहमत हूं कि दलित पैंथर्स का जो इतिहास उन्होंने लिखा है, उसे ही इस संगठन का ‘प्रामाणिक’ इतिहास माना जा सकता है, क्योंकि वे उस समय इस संगठन के सचिव थे, उन्होंने सारे रिकॉर्ड रखे, अधिकांश कार्यक्रमों का आयोजन वे ही करते थे और बहुत ही भावुक और कई बार गैर-जिम्मेदार ढाले व ढसाल की तुलना में दलित पैंथर्स के वे ज्यादा जमीनी कार्यकर्ता रहे।
प्रामाणिक पर विश्लेषणात्मक नहीं
इस पुस्तक को सावधानीपूर्वक पढ़ने के बाद मैं यह कहूंगा कि यह पुस्तक इस अर्थ में प्रामाणिक है कि यह विस्तार में है। लेकिन यह विश्लेषणात्मक नहीं है। जो लिखा गया है, उसमें बहुत सारी कमियां हैं। मैं यहां उन सबके बारे में नहीं लिखूंगा। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण का उल्लेख करना चाहूंगा। यह पुस्तक मराठी में दलित परंपरा के साहित्य के विकास में दलित पैंथर्स के योगदान की चर्चा नहीं करती है। न ही इस संगठन ने कैसे विभिन्न भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया, जैसे कि हिंदी साहित्य को, इसका जिक्र है। यह कार्य इस संगठन ने वैकल्पिक दलित नजरिया और दलितों के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिस्थितियों को सामने रख कर किया। पवार द्वारा निजी और दलित पैंथर्स के संदर्भ में, इस बात का उल्लेख नहीं करना अत्यंत ही पीड़ादायक है, क्योंकि राजा ढाले और नामदेव ढसाल के अलावा पवार खुद भी दलित साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य की रचना की और अपनी रचनाओं के माध्यम से मुख्यधारा के मराठी साहित्य के महाराष्ट्र के अनुभवजन्य वास्तविकता को सिर के बल खड़ा कर दिया। इस बात को एलीनर ज़ेलिओट ने अपनी पुस्तक फ्रॉम द अनटचेबल टू द दलित में काफी बेहतर तरीके से विश्लेषण किया है, खासकर तब जब हम इसे मुख्यधारा के मराठी साहित्य के बरक्स रखते हैं और देखते हैं कि कैसे दलित साहित्य विचारपूर्ण रूप से एक नए और तुलनात्मक दृष्टि से साहित्य, संस्कृति, कला और इतिहास का काफी ज्यादा सच्चा परिदृश्य पेश करता है। पवार एलीनर ज़ेलिओट का जिक्र अपने कथानक में करते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में दलितों की सामाजिक वास्तविकता के बारे में दलित दृष्टिकोण के विकास पर दलित पैंथर साहित्य के योगदान और मुख्यधारा के मराठी साहित्य से यह किस तरह अलग है, इस बारे में उनके विश्लेषण को नजरअंदाज कर देते हैं।

पवार ने जो दलित पैंथर्स का जो इतिहास लिखा है, वह उत्तर-आंबेडकर संदर्भ का विस्तृत ब्योरा है, जिसमें इस संगठन के महाराष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर उदय का वर्णन है। पवार ने दलित पैंथर्स के उदय के पीछे दो बड़े कारण गिनाए हैं– दलितों की मांग को पूरा करने के प्रति महाराष्ट्र सरकार की अनिच्छा और इस बारे में कोई ठोस कदम नहीं उठाना और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया का दलितों की समस्या को लेकर संघर्ष नहीं करना। रिपब्लिकन पार्टी सत्ताधारी कांग्रेस से सटकर सत्ता सुख उठाने के लिए खुद खेमों में बंट गई थी।
जानकार पाठक इस बारे में जानते हैं कि ऊपर जो लिखा गया है, उसके बावजूद, अन्य राज्यों में दलितों की जमीनी हकीकत के विपरीत महाराष्ट्र के दलितों में हरीश वानखेड़े (रिटर्न टू अ रेडिकल पास्ट : भीमा-कोरेगांव प्रोतेस्ट्स रेफ्लेक्टेड एक्ट्स दैट डिफाइन दलित कोन्सिअसनेस एंड इट्स एजेंडा, द इंडियन एक्सप्रेस, 17 जनवरी, 2018) के शब्दों में, आंबेडकर सिविल सोसाइटी का अस्तित्व है, जिसमें अनेक एनजीओ, सांस्कृतिक संगठन, सामाजिक सहकारिता, बौद्ध धर्म-आधारित संगठन और अन्य आत्म-प्रेरित समूह जो अन्य बौद्धिक समूहों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों के साथ मिलकर आंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाते हैं। यहां तक कि वानखेड़े भी इसको सही नाम नहीं दे पाते हैं। हकीकत यह है कि महाराष्ट्र में न केवल दलित सिविल सोसाइटी है, बल्कि बहुजन सिविल सोसाइटी भी है, जिसमें समाज के अन्य वंचित तबके जैसे ओबीसी और अनुसूचित जनजाति भी शामिल हैं।
पवार इस पुस्तक के 50 संक्षिप्त अध्यायों में इनकी चर्चा तो अवश्य करते हैं, लेकिन दलित पैंथर्स की सफलता में इनके योगदानों को बहुत ज्यादा तरजीह नहीं देते। तथ्य यह है, और जैसा कि वानखेड़े भी बताते हैं कि यह आंबेडकर सिविल सोसाइटी 1977 में दलित पैंथर्स के विघटित होने के बाद भी काम करती रही। जैसा कि 2017 की भीमा कोरेगांव घटना से स्पष्ट है। इस आंबेडकर सिविल सोसाइटी ने किसी राजनीतिक मोर्चे से खुद को जोड़े बिना इसने सामाजिक-सांस्कृतिक विचार-सीमा में अपने लिए एक स्वतंत्र जगह बनाया है। सामाजिक विचार-सीमा में ये ब्राह्मणवादी हिंदू सामाजिक व्यवस्था के प्रतिपादकों और सामाजिक समानता के लिए लड़ाई लड़ने वालों के बीच संघर्ष के अखाड़े में स्वतंत्र रूप से दलित-बहुजन प्रतिरोध की अलख जगाते हैं। इस तरह रिपब्लिकन पार्टी में हुए विभाजन के बाद के दौर में दलित नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) मौजूद था, जैसे कि यह आज उत्तर-दलित पैंथर्स के युग में है और 1977 में इसके विघटित होने के बाद इसने राजनीतिक दुनिया से खुद को अलग कर लिया है और बीच-बीच में यह सामाजिक बदलाव के कार्यों में खुद को व्यस्त रखता है। पवार अपनी इस पुस्तक में इनके योगदानों की चर्चा करते हैं पर दलित पैंथर्स की सफलता में इनके योगदानों को प्रमुखता से स्वीकार नहीं करते। जैसा कि हरीश वानखेड़े कहते हैं कि यही वो हर दिन होने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक सक्रियता है जो दलित चेतना को आज परिभाषित करता है। महाराष्ट्र की सड़कों पर दलित प्रतिरोध को देखकर यह लगता है कि सातवें दशक के दलित पैंथर्स जैसे चरमपंथी संगठनों के आज नहीं होने के बावजूद दलित आंदोलन अपने उग्र और प्रगतिशील चरित्र को बनाए रखने में सफल रहा है।
ईमानदार और आत्म-आलोचनात्मक
पवार के दलित पैंथर्स का इतिहास दलित पैंथर्स की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विस्तार से जिक्र करता है, लेकिन यह वर्णन आवश्यक रूप से तार्किक या ऐतिहासिक परिणामों के रूप में नहीं है। हालांकि, यह एक ईमानदार, खुद की आलोचना के साथ इस संगठन के जन्म, विकास और उसके कार्यकलापों के साथ-साथ इसकी जन्मजात सांगठनिक और कार्यगत कमियों के अलावा संगठन के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों जिनके कंधे पर इसको आगे ले जाने की जिम्मेदारी थी, की व्यक्तिगत सनकों और पसंदों का भी जिक्र करता है। इस पुस्तक में संगठन के मजबूत, महत्त्वपूर्ण और स्फुरण के मौकों का जिक्र है और यह उस दुखद क्षण का वर्णन करती है कि कैसे बहुत कम समय में ही यह बिखर गया। दलित आंदोलन में सशक्तिकरण के सारे तत्व मौजूद थे, पर ओबीसी और अनुसूचित जनजातियों के वंचित तबकों के भारी समर्थन और शुभेच्छा के बाद भी यह खुद को ज़िंदा नहीं रख पाया। यह एक विरोधाभास की ओर इंगित करता है कि कैसे दलित पैंथर्स जैसा आक्रामक तेवर वाला संगठन एक समय में महाराष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर सफल रहा, जबकि एक ओर 1990 के दशक में इससे कहीं ज्यादा राजनीतिक आधार और रुझान वाली बसपा और उत्तर प्रदेश में 2017 में भीम आर्मी वह जगह नहीं बना पाई, जहां समाज के तीनों वंचित तबकों के नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) का अभी तक अस्तित्व नहीं है।

पवार का दलित पैंथर्स का इतिहास, वैसे निश्चित रूप से एक दृष्टिकोण से प्रामाणिक है, पर इसकी अपूर्णता तब सामने आती है जब हम दलित पैंथर आंदोलन पर समग्र रूप से दृष्टिपात करते हैं। इस पुस्तक को दलित पैंथर्स के अन्य प्रमुख लोगों ने इस संगठन के बारे में जो लिखा है, उसके साथ पढ़ा जाना चाहिए। पवार ने खुद भी दलित पैंथर्स के कुछ पक्षों जैसे उनके साहित्यिक अवदानों के बारे में अलग से लिखा है। चूंकि इन्हें इस पुस्तक में शामिल नहीं किया गया है, सो इसे एक ओर तथा पवार, राजा ढाले और नामदेव ढसाल ने जो लिखा है उसके साथ और दूसरी ओर एलीनर ज़ेलिओट, गेल ऑम्वेट और अनुपमा राव के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
पवार की पुस्तक एक ईमानदार कोशिश है। राजा ढाले और नामदेव ढसाल ने जो लिखा है, उसमें उन्होंने अपनी भूमिका पर ही ज्यादा ध्यान दिया है; अपने कुछ विवरणों में वे ईमानदार भी नहीं दिखते। पवार इसके ठीक उलट हैं। ढाले और ढसाल के विपरीत, वे खुद की आलोचना करते हैं और अपनी गलती को स्वीकार करते हैं। और यह कहने की जरूरत नहीं है कि पवार की लेखनी में जो गहराई है, वह अनुपमा राव, गेल ऑम्वेट और एलीनर ज़ेलिओट में नहीं है।
सरल भाषा
पवार की पुस्तक विश्लेषणात्मक नहीं है; एक से दूसरी घटना तक यह वर्णनात्मक है और इसका कथानक एक क्रम में नहीं है; यह बी.बी. मिश्रा जैसे इतिहासकारों की तरह इतिहास की शक्ल में नहीं लिखा गया है। हालांकि, मैं यह नहीं कहूंगा की इस पुस्तक में विश्लेषणात्मक दृष्टि नहीं है। यह जानबूझकर बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है। मैं जानता हूं कि पवार मराठी साहित्य के एक मजबूत स्तंभ रहे हैं और उनकी कविता उत्कृष्ट मराठी साहित्य की धरोहर है। लेकिन यह पुस्तक उनकी साहित्यिक क्षमता को परिलक्षित नहीं करती। इसे बहुत ही सरल भाषा में लिखा गया है जैसा कि एक आम मराठी अपने दैनिक बोलचाल में प्रयोग करता है। उन्होंने आम लोगों का इतिहास आम लोगों द्वारा पढ़े जाने के लिए लिखा है।
पवार ने दलित पैंथर्स के इतिहास में जिस तरह के स्व-नृवंशीय चरित्र का वर्णन किया है, उसको देखते हुए फॉरवर्ड प्रेस/द मार्जिनलाइज्ड से प्रकाशित 246 पृष्ठ की इस पुस्तक की कीमत (250 रुपए) वाजिब है। अगर इसी पुस्तक को किसी अन्य बड़े प्रकाशक ने छापा होता तो इसकी कीमत 1000 रुपए से कम नहीं होती। मैं यह उम्मीद करता हूं कि इस पुस्तक के प्रकाशक शीघ्र ही इसे हिंदी में भी प्रकाशित करेंगे।
पुस्तक का नाम : दलित पैंथर्स : एन अथॉरिटेटिव हिस्ट्री
पृष्ठ : 246
प्रकाशक : फॉरवर्ड प्रेस, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशंस, 803/92, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली 110019
मूल्य : 250 रुपए
संपर्क-(मोबाइल) +919968527911
(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : अशोक झा, कॉपी संपादन- सिद्धार्थ)
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