केंद्र सरकार द्वारा 2021 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जनगणना और उनसे जुड़े सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक आंकड़े एकत्र करने की घोषणा की है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद उसकी जातीय पहचान जरूरी हो गयी है। इस वर्ग के तहत आने वाली जातियों की स्पष्ट पहचान आवश्यक हो गयी है। वैसी स्थिति में सरकार ने ओबीसी की जनगणना व आंकड़े एकत्र करने का निर्णय लिया है। उल्लेखनीय है कि अभी दस वर्षीय जनगणना में धार्मिक आधार के साथ अनुसूचित जाति व जनजाति की जनगणना भी होती है। लेकिन अन्य जातियों की जनगणना नहीं होती है।
सभी जातियों की हो जनगणना
हालांकि पूर्व केंद्रीय मंत्री और ओबीसी की राजनीति को प्रमुख नेता शरद यादव ओबीसी की जनगणना भर से खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि जनगणना सभी जातियों की होनी चाहिए, चाहे आरक्षित श्रेणी के हों या अनारक्षित श्रेणी के। उनका मानना है कि देश के लोगों को पता होना चाहिए कि यहां किस जाति के कितने प्रतिशत लोग रहे हैं। उच्च जाति तथा अन्य गैर-आरक्षित श्रेणी के लोगों का प्रतिशत भी अस्पष्ट हैं। इससे ऊंची जातियों का देश के धन तथा शक्ति पर प्रभुत्व का आंकलन करना मुश्किल हो जाता है। उनका कहना है कि सभी जातियों की जनगणना से सरकार को आरक्षित वर्गों के लिए अपनी योजनाओं और नीतियों का निर्णय लेने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही उन वर्गों का सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक आकलन भी संभव हो सकेगा, जो अपने लिए आरक्षण का दावा करते हैं। इसके साथ ही राज्य सरकारों के लिए भी किसी जाति विशेष के वर्गीय स्थानांतरण का आधार पुख्ता हो सकेगा। उल्लेखनीय है कि जातियों का वर्गीकरण करने का अधिकार राज्य सरकारों के पास है। इसमें राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

अनुसूचित जाति-जनजाति का भी आकलन सही नहीं
जनगणना में एससी-एसटी की नियमित रूप से गणना होती है। शरद यादव एससी-एसटी की जनसंख्या के आंकड़ों पर भी सवाल खड़ा करते हैं। उनका मानना है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या सरकार द्वारा दिये गये आंकड़ों से कहीं अधिक है। वे इन वर्गों के वास्तविक आंकड़ों को एकत्र करने पर जोर देते हैं।
मंडल आयोग का आकलन
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल की अध्यक्षता में गठित मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, हिंदुओं की पिछड़ी जाति व गैर हिंदू पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसदी है। आयोग ने 52 प्रतिशत आबादी के लिए नौकरियों तथा शैक्षणिक सुविधाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। ओबीसी समूहों का मानना है कि 27 प्रतिशत आरक्षण इसकी जनसंख्या आंकड़े की तुलना में अपर्याप्त है, जिसे मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 52 प्रतिशत किया था। लेकिन पिछड़े वर्गों में नयी-नयी जातियों को शामिल करने के बाद ओबीसी की आबादी बढ़ गयी है, जबकि आरक्षण का कोटा नहीं बढ़ाया गया है।

नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट क्या कहती है?
शरद यादव कहते हैं कि नेशनल सैंपल सर्वे के कार्यालय के आंकड़े के अनुसार 1999 से 2000 के बीच आबादी के लगभग 36 प्रतिशत लोग ओबीसी श्रेणी में आये और 2011-12 तक यह अनुपात 44 फीसदी बढ़ा। यदि अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के 9 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों (एससी) के 20 प्रतिशत को मिलाकर देखा जाये तो भारत की आबादी में 73 प्रतिशत लोग आरक्षण के योग्य है। उन्होंने कहा कि सरकार को इस जनगणना में अगड़ी जातियों, पिछड़ी जातियों और अनुसूचित तथा अनुसूचित जनजाति के बारे में व्यापक आंकड़े को सुनश्चिति करना चाहिए।

1931 में हुई अंतिम बार जातिवार जनगणना
अंग्रेजों के शासनकाल में 1931 में अंतिम बार जनगणना जाति के आधार पर हुई थी। जातीय जनगणना के 90 वर्ष बाद हो रही जनगणना में एसटी, एससी और ओबीसी के साथ अनारक्षित जातियों की जनगणना की जानी चाहिए। इससे ज्यादा व्यावहारिक आंकड़े भी आएंगे और इसका लाभ योजनाओं के निर्धारण में मिलेगा।
नये जातियों के दावे
देश के विभिन्न हिस्सों में नये-नये जाति समूहों को आरक्षण के दायरे में शामिल करने की मांग की जा रही है। जातियों के वर्गीय स्थानांतरण की मांग उठ रही है। जैसे बिहार में अतिपिछड़ा वर्ग की जाति मल्लाह को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग उठ रही है। यदि सभी जातियों का आंकड़ा उपलब्ध होगा तो सरकार को विकास योजनाओं के निर्धारण के साथ जातियों के दावों के आकलन और विश्लेषण में मदद मिलेगी।
( कॉपी संपादन- सिद्धार्थ )
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