भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व होने के कारण अब तक बहुजन के इतिहास, संस्कृति और पंरपराओं पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। प्राय: इतिहासकारों, संस्कृतिविदों और मानव-वैज्ञानिकों ने बहुजन संस्कृति और इतिहास के विविध पहलुओं की उपेक्षा ही की है। भारतीय इतिहास के क्षेत्र में सबॉल्टर्न स्टडीज के नाम से एक नई शुरुआत हुई थी, पर इसके तहत भी बहुजन संस्कृति पर कोई खास काम सामने नहीं आ सका।
बहरहाल, पिछले कुछ समय से इस दिशा में फारवर्ड प्रेस से जुड़े पत्रकारों और संस्कृतिविदों ने काम शुरू किया है। इन्होंने बहुजन संस्कृति और इतिहास से जुड़े विविध पहलुओं पर महत्त्वपूर्ण काम किया है और इनके कई प्रकाशन सामने आए हैं।
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इस वर्ष 23 अक्टूबर को मनाया जाएगा महिषासुर शहादत दिवस समारोह
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महिषासुर आंदोलन किसका, किसके लिए?
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अमेजन पर उपलब्ध है महिषासुर मिथक व परंपराएं
इन्होंने कई नई सामग्री की खोज की है और आदिवासियों, समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले उत्पीड़ित लोगों के बीच प्रचलित परंपराओं को नई रोशनी में समझने का प्रयास किया है। यह काम बहुत मायने रखता है, क्योंकि अब तक इतिहास में बहुजन समुदायों को वह जगह नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं। इतिहास और संस्कृति में उच्चवर्गीय दृष्टिकोण के प्रभावी होने से उपेक्षा का यह भाव रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ कि जो प्रचलित संस्कृति है, उससे अलग हट कर अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाइयों को समझने की कोशिश ही नहीं की गई।
बहुजन संस्कृति की चर्चा आज बढ़ी है और लोगों का ध्यान इस तरफ जा रहा है, पर ऐसा नहीं है कि पहले इसे लेकर कोई काम ही नहीं हुआ। फुले, आंबेडकर और पेरियार जैसे विचारकों व आंदोलनकारियों ने बहुजन संस्कृति को लेकर काफी काम किया, पर कई वजहों से उनके नजरिये का व्यापक प्रसार नहीं हो सका। इसके पीछे मुख्य कारण सत्ता और संस्कृति के सोपानों पर उच्च वर्ग अथवा वर्णों का वर्चस्व कायम रहना ही कहा जा सकता है।
बहुजन से तात्पर्य है आदिवासी, पिछड़े, दलित और इन वर्गों की महिलाएं। भूलना नहीं होगा कि भारतीय इतिहास में ‘असुर’ की चर्चा होती रही है, पर उनकी पहचान और उनकी सांस्कृतिक परंपरा को लेकर ज्यादा प्रकाश नहीं डाला गया। आम लोगों के बीच एक ऐसी धारणा बनाई गई कि असुर राक्षस थे जिनका काम विनाश करना था और देवताओं यानी सुरों ने उनसे संघर्ष किया और उन्हें पराजित कर लोगों की रक्षा की। इसी क्रम में महिषासुर का नाम आता है, जिसे देवी दुर्गा ने पराजित किया। कहा जाता है कि इसके लिए कई देवताओं ने उन्हें अपने अस्त्र-शस्त्र दिए, जिसके बाद वे महिषासुर को पराजित करने में सफल रहीं। पूरे देश में मनाए जाने वाले दशहरा त्योहार में देवी दुर्गा की पूजा होती है, जो सिंह पर सवार हैं और महिषासुर की हत्या करती हैं। पर हाल के दिनों में महिषासुर को लेकर कुछ नई अवधारणाएं सामने आई हैं।
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इतिहास में बहुजन समुदायों को वह जगह नहीं मिली है, जिसके वे हकदार हैं
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बहुजन संस्कृति और परंपराओं पर विस्तार से प्रकाश डालती है यह किताब
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कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और गुजरात सहित कई राज्यों में मनाया जाता है महिषासुर शहादत दिवस समारोह
सबसे पहले 2011 में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया जो काफी विवादस्पद रहा। इसके बाद महिषासुर के शहादत दिवस की चर्चा ने जोर पकड़ा। आगे चल कर फारवर्ड प्रेस से ‘महिषासुर : एक जननायक’ नाम की पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें उस परंपरा पर पर्याप्त रोशनी डाली गई, जिसमें महिषासुर की पूजा की जाती है। कतिपय ऐसी जनजातियां हैं जो महिषासुर को अपना नायक मानती हैं, पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व और हिंदूवादी उभार के कारण इनका काफी विरोध हुआ, लेकिन विरोध के साथ इस मुद्दे पर लोगों की जागरूकता भी बढ़ी।
फारवर्ड प्रेस से बहुजन संस्कृति की नई अवधारणाओं और बहुजन समाज के बीच प्रचलित उत्सवों-परंपराओं को लेकर कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, पर अभी हाल में महिषासुर को लेकर एक नई किताब आई है – ‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’। प्रमोद रंजन द्वारा संपादित यह पुस्तक सिर्फ महिषासुर ही नहीं, बल्कि बहुजन संस्कृति और परंपराओं पर विस्तार से प्रकाश डालती है और इसमें दस्तावेज़ी महत्त्व की कई ऐसी सामग्री है जो बहुजन इतिहास-लेखन का प्रस्थान बिंदु बन सकती है।
पुस्तक की भूमिका में प्रमोद रंजन लिखते हैं – “असुर, किरात, नाग, यक्ष, द्रविड़, आर्य आदि अनेक प्रजातियों वाले इस देश में सांस्कृतिक विविधताएं एकरेखीय नहीं हैं, बल्कि उनमें अनेक ऐसे तीखे मोड़ हैं, जहां वे एक-दूसरे से बुरी तरह टकराती हैं। मसला सिर्फ सांस्कृतिक नहीं, आर्थिक और राजनीतिक भी है। एक वर्ग ने इन्हीं सांस्कृतिक कथाओं के बूते आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम किया है, इस कारण आज देश में द्विज या अद्विज कहें, अभिजन और बहुजन – दो सामाजिक श्रेणियां बन गई हैं। इनमें पहली वर्चस्वशाली और शोषक है जबकि दूसरी हर प्रकार से शोषित और वंचित।”
यही बात रेखांकित करने योग्य है। वर्गीय शोषण को आधार बना कर ही बहुजन की भिन्न परंपराओं को समझा जा सकता है और इस बात को भी कि जब महिषासुर की पूजा शुरू की गई, जो पहले भी होती रही है, पर चर्चा में आने में के बाद जिसका व्यापक विरोध हुआ। यहां तक कि बात थाने और कचहरी तक पहुंची। पुस्तक की भूमिका में लिखा गया है कि 2017 के अक्टूबर महीने में कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और गुजरात से सैंकड़ों जगहों पर महिषासुर दिवस मनाने की सूचना आई और आदिवासियों ने महिषासुर और रावण के अपमान के खिलाफ थाने में जाकर स्थानीय दुर्गा-पूजा समितियों पर कार्रवाई करने की मांग की। साथ ही, कई जगहों पर सामूहिक रूप से अधिकारियों को आवेदन देकर दुर्गा-पूजा बंद कराने की भी मांग की गई। इससे पता चलता है कि उत्पीड़ित-वंचित तबकों में अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान को लेकर जागरूकता बढ़ती जा रही है और यही सांस्कृतिक जागरूकता उनमें राजनीतिक चेतना जागृत करेगी। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है जिसका परिणाम उनके राजनीतिक संघर्षों के रूप में सामने आएगा और देर-सबेर उन्हें शोषण के चक्र से मुक्ति भी मिलेगी।
जहां तक इस पुस्तक का सवाल है, यह महिषासुर के बहाने बहुजन की सांस्कृतिक पहचान की तलाश का एक व्यापक अभियान है। इसमें विविध विधाओं में सामग्री प्रकाशित की गई है, जो शोध और लोक संस्कृति के प्रत्यक्ष अध्ययन पर आधारित है। अत: इसे लोक संस्कृति यानी बहुजन संस्कृति का दस्तावेज़ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पुस्तक में बहुजन संस्कृति के विविध आयामों पर विस्तार से और समग्रता में प्रकाश डाला गया है। पुस्तक कुल छह खण्डों में विभाजित है – 1. यात्रा वृतांत 2. मिथक व परंपराएं 3. आंदोलन किसका, किसके लिए? 4. असुर : संस्कृति व समकाल 5. साहित्य 6. परिशिष्ट।
यात्रा वृतांत में एक तरह से क्षेत्र अध्ययन किया गया है। इसमें बहुजन संस्कृति से जुड़े स्थलों की पहचान से लेकर वहां बिखरे बहुजन सांस्कृतिक उपादानों के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। अन्य खण्डों में विद्वान लेखकों, इतिहासकारों और पत्रकारों के दस्तावेज़ी महत्त्व के लेख शामिल हैं। साहित्य खण्ड में जोतीराव फुले जी की प्रार्थना से लेकर सांभाजी भगत का गीत और छज्जूलाल सिलाणा की रागिनी से लेकर आज के सहित्यकारों की रचनाएं भी शामिल हैं। परिशिष्ट में महिषासुर दिवस से संबंधित तथ्यों के साथ संपादक और लेखकों के परिचय दिए गये हैं। पुस्तक में बहुजन संस्कृति से जुड़े स्थलों, प्रतिमाओं आदि के चित्र भी शामिल किए गए हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पुस्तक बहुजन संस्कृति के किसी कोश से कम नहीं है। यह एक जरूरी पुस्तक है जो इतिहास, समाज विज्ञान और साहित्य के छात्रों के साथ-साथ पत्रकारों व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए समान रूप से उपयोगी है।
किताब : महिषासुर : मिथक और परंपराएं
संपादक : प्रमोद रंजन
मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)
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(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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