भाजपा की गुलाम नहीं, बहुजन समाज की बेटी हूं…
यह पहला अवसर नहीं है, जब उत्तर प्रदेश के बहराइच लोकसभा क्षेत्र से भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले ने अपनी ही पार्टी की सरकार से नाराजगी व्यक्त की है। वे तब भी मुखर थीं, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट में बदलाव का फैसला सुनाया गया था। इसके अलावा पदोन्नति में आरक्षण को लेकर भी उन्होंने पुरजोर तरीके से दलितों का पक्ष लिया। एक बार फिर वे बगावत के मूड में हैं। इसकी वजह क्या है और उनकी रणनीति क्या होगी, आदि सवालों को लेकर फारवर्ड प्रेस ने विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार के संपादित अंश :
मौजूदा आरक्षण व्यवस्था पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है। इससे आप कितना संतुष्ट है ?
देखिए, संतुष्टि या असंतुष्टि की बात तो तब करें, जब व्यवस्था फुलप्रूफ हो। यहां तो व्यवस्था में ही खोट नजर आ रहा है।
आप सांसद हैं। यदि वर्तमान आरक्षण व्यवस्था में कोई खोट है, तो इस तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं आकर्षित करवा पा रही हैं?
आपका कहना बिलकुल सही है कि जनप्रतिनिधि और वो भी बहुजन समाज का, लेकिन इसके बावजूद व्यवस्था में खोट को समाप्त नहीं करवा पा रही हूं। इसका मुझे अफसोस है, लेकिन हमारे दर्द को कौन समझेगा?
आपका दर्द? कृपया विस्तार से बताएं।
देखिए, कहने को देश में लोकतंत्र है। लेकिन, हकीकत में है राजतंत्र। संविधान के तहत नहीं, मनुस्मृति के तहत चल रहा है यह देश। अपनी बात रखने तक की छूट नहीं है। बहुजन समाज की बातों को लोकसभा में उठाती हूं, तो कहा जाता है कि मैं बगावती हो गई हूं। यहां तक कि राजनीतिक हत्या की धमकी तक मिलती है।

वे कौन हैं, जो आपकी राजनीतिक हत्या की धमकी देते हैं?
देखिए, और अन्य जनप्रतिनिधियों की बात यहां मैं नहीं करूंगी। मैं अपनी बात करूंगी। सांसद हूं। आरक्षित सीट से जीतकर आई हूं और जब लोकसभा सदस्य रहते हुए अपने समाज की बात नहीं रख पा रही हूं, तो दर्द तो होता है। जब सांसद रहते हुए नहीं बोल पाती, तो पद पर जब नहीं रहूंगी, तब क्या सुनी जाएगी मेरी बात? मेरा तो साफ मानना है कि मैं समाज के लिए किसी भी हद तक आगे जा सकती हूं। मैं पार्टी की गुलाम नहीं हूं। बहुजन समाज की आवाज को उठाने के लिए सांसद बनी हूं। आवाज उठाती रहूंगी। धमकियों से डरने वाली नहीं।
आपने उनके बारे में नहीं बताया, जो आपको धमकी देते हैं।
मैं बहुजन समाज से हूं। मैं दलित की बेटी हूं और जब अपने समाज से जुड़ी समस्याएं लोकसभा में उठाती हूं, तो हमें बगावती कहा जाता है और साथ ही राजनीतिक हत्या की धमकी दी जाती है। कहा जाता है कि ज्यादा उड़ोगी, तो राजनीति करने लायक नहीं छोड़ेंगे। सच कहूं तो आज जिस माहौल में हम सांस ले रहे हैं, वह लोकतंत्र नहीं है; बल्कि राजतंत्र है और सोची-समझी रणनीति और साजिश के तहत आरक्षण को खत्म करने का काम हो रहा है।
आरक्षण को लेकर साजिश? इसके बारे में विस्तार से बताएं।
देखिए, अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) एक्ट संशोधन विधेयक लाकर सरकार सोचती है कि हमने ऐसा कर बहुजन समाज के बीच मैसेज दे दिया कि सरकार उसके लिए सोचती है। उनकी हितैषी है, लेकिन बहुजन समाज के लोग अब गुमराह होने वाले नहीं हैं। वे समझ चुके हैं कि यह सब कुछ जो किया जा रहा है, वह केवल और केवल दिखावे के लिए है। वोट लेने के लिए है।
अगर आप सरकार की इस पहल से संतुष्ट नहीं हैं, तो फिर क्यों नहीं इसे नौंवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करती हैं? ताकि इसमें संशोधन करने या फिर बदलने की गुंजाइश न रहे।
कहना गैर मुनासिब नहीं है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति एक्ट को पहले कमजोर कराया गया और जब गत 2 अप्रैल 2018 को देशभर में विरोध हुआ, तब जाकर लोकसभा में बिल लाकर उसे पास कराया गया। लेकिन, इसमें हस्तक्षेप की गुंजाइश रख दी गई है। इस तरह का हस्तक्षेप कभी भी एक्ट को कमजोर कर सकता है। इसलिए जरूरत उसे फुलप्रुफ करने की है। हम लोग इस एक्ट को नौंवी अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं।
प्रमोशन में आरक्षण के बाबत सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग को क्रीमीलेयर के हिसाब से रोस्टर तय करने की बात कही जा रही है। आप इससे सहमत हैं?
सहमत कैसे हो सकते हैं, जबकि पता है कि यह भी साजिश का ही हिस्सा है। नौंवी अनुसूची में शामिल करके ही इस तरह की साजिशों को रोका जा सकता है। हकीकत में प्रमोशन में आरक्षण की स्थिति क्या है? इसकी एक बानगी देखिए कि मंच से या फिर लोकसभा तक में आरक्षण व प्रमोशन में आरक्षण को लेकर भाषण खूब दिया जाता है,लेकिन हकीकत क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। केंद्र में सत्तासीन पार्टी की जिन-जिन राज्यों में सरकारें हैं, उनमें से ज्यादातर राज्यों में यह या तो लागू ही नहीं है और इक्का-दुक्का जगहों पर लागू भी है, तो दिखावे के लिए। पूरी तरह से कहीं भी लागू नहीं है।
साफ-साफ शब्दों में कहें, तो पूरे विवाद की जड़ में मौजूदा सरकार है?
मैं निष्कर्ष तक तो नहीं पहुंच सकती, लेकिन जिस तरह का माहौल बन रहा है, वह सरकार और सरकार में सत्तासीन पार्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं है। लोगों को, खासतौर से बहुजन समाज को लगने लगा है कि सरकार का काम भाषण देना भर रह गया है और महसूस किया जा रहा है कि सरकार जो कहती है, वह बिलकुल नहीं करती। बल्कि जो नहीं कहती, उसे जरूर करती है। तय एजेंडे और साजिश के तहत यह सब कुछ हो रहा है।
तो क्या आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण को समाप्त करने की कोशिश हो रही है?
कोशिश ही नहीं पर्दे के पीछे से आरक्षण को बारीकी से समाप्त किया जा रहा है। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से बार-बार कहा जा रहा है कि आरक्षण समाप्त बिलकुल नहीं होगा, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी ने जो आरक्षण की परिकल्पना की थी, उस हिसाब से कुछ भी नहीं हो रहा है। बाबा साहब ने विभागीय स्तर पर आरक्षण की बात की थी, लेकिन आज क्या हो रहा है? देश के सबसे बड़े विभाग चाहे वह रेल विभाग हो या शिक्षा विभाग या फिर कोई और बड़ा-छोटा विभाग हर जगह को प्राइवेट सेक्टर में डालने की होड़-सी लगी हुई है। यहां संविदा (ठेके) पर नौकरियां दी जा रही हैं और इनमें भी ज्यादातर जगहों पर आरक्षण का ख्याल नहीं रखा जा रहा है। संविदा वालों को 5,000 से 8,000 रुपए वेतन दिया जा रहा है और उनसे 12-12 घंटे काम लिया जा रहा है। जबकि बाबा साहब के मुताबिक, आठ घंटे से अधिक काम करने वालों को ओवर टाइम दिया जाना चाहिए। सच कहें, तो भारत के संविधान के तहत देश नहीं चल रहा, बल्कि मनुस्मृति के तहत चल रहा है। लोकतंत्र नहीं राजतंत्र चलाया जा रहा है।
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ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगी और क्या है विकल्प?
देखिए, किस चीज की जरूरत है, इसे समझने की आवश्यकता है। इसको लेकर राजनीति बिलकुल नहीं होनी चाहिए, लेकिन हो रही है। हमें सतर्क रहना होगा, क्योंकि बहुजन समाज तो कुछ चाह ही नहीं रहा। वह तो केवल जाति व्यवस्था खत्म करने की बात चाहता है। गैर-बराबरी समाप्त हो जाए और समाज में बराबरी आ जाए। जब तक यह स्थिति नहीं आ जाती है, तब तक आरक्षण को कोई खत्म नहीं कर सकता। आरक्षण को लेकर एक वर्ग विशेष में गलतफहमियां हैं, उसे दूर करने की जरूरत है। साफ बता दूं कि भीख नहीं अधिकार है आरक्षण और यह अधिकार संविधान के तहत बहुजन समाज को मिला हुआ है। मेरा तो मानना है कि बराबरी के लिए मंदिरों में पुजारियों का भी आरक्षण खत्म हो। केवल पंडित ही क्यों बनें पुजारी? इस पद के लिए उन्हें क्यों मिलना चाहिए सौ फीसदी आरक्षण?
आपका अगला कदम क्या होगा? क्या आप भाजपा से बगावत करेंगी?
देखिए, फिलहाल तो मैं भाजपा में हूं। लेकिन, बता दूं कि बहुजन समाज के हक की लड़ाई अब थमने वाली नहीं है। साथ ही यह भी हकीकत है कि बहुजन समाज वर्तमान सरकार की नीयत व नीतियों से काफी आहत है और वह ठगा हुआ महसूस कर रहा है। वह इससे निजात पाना चाहता है। हम बहुजन के साथ हैं और उसकी इच्छा के विपरीत वह बिलकुल नहीं जाएंगी चाहे इसके लिए कोई बड़ी कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े।
तो क्या मान लिया जाए कि जल्द ही आप बहुजन समाज के हित को लेकर कोई ठोस पहल करने वाली हैं?
यह बिलकुल साफ है कि बहुजन समाज के लिए हम सब जो लड़ाई लड़ रहे हैं, उसका भविष्य उज्जवल है। समय भी अनुकूल है। वह दिन दूर नहीं, जब बहुजन के भारत का सपना पूरा होगा। इंतजार कीजिए 16 दिसंबर तक। उस दिन लखनऊ में रैली आहूत की गई है। इस रैली में बहुजन समाज के हितों के लिए जरूर कुछ घोषणाएं की जाएंगी, लेकिन अभी उस बारे में कुछ भी बताना ठीक नहीं है। इंतजार करें 16 दिसंबर का।
अंत में, एक सवाल आपसे जुड़ा हुआ। आपका नाम सावित्री बाई फुले कैसे पड़ा?
आपने यह सवाल कर पुराने दिनों की यादें ताजा कर दीं। जहां तक नाम की बात है, तो हमारे बाबा ने हमारा नाम धनदेयी रखा था। लेकिन, बाद में जब स्कूल में नाम लिखाया गया, तो मेरे पिता आज्ञा राम ने सावित्री नाम से मेरा एडमिशन कराया। मेरी मां का नाम मायावती है। मेरे शिक्षक अक्षयवरनाथ कन्नौजिया ने मेरे नाम के साथ बाई फुले इस तर्क के साथ जुड़वाया कि माता सावित्री बाई फुले देश की प्रथम महिला शिक्षिका थीं, उन्हीं से प्रेरणा लेकर उसे आगे बढ़ना है। हालांकि, तब हमारे पिताजी ने इस नाम पर आपत्ति व्यक्त की थी। उनकी आपत्ति बाई शब्द से थी।
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यह रोचक है। क्या आप अपने बचपन की कोई और घटना हमारे पाठकों के साथ शेयर करना चाहेंगी?
मैं अपने माता-पिता के प्रति आभारी हूं कि समाज, परिवार के लोगों के विरोध के बावजूद मुझे स्कूल जाने का मौका दिया। उस समय लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज हमारे गांव में नहीं था। लेकिन, मेरे माता-पिता ने हमें स्कूल भेजा। इस दौरान ही एक घटना घटी, जिससे मेरे जीवन का दर्शन बदल गया। सोचा था पढ़ाई पूरी हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। इसकी कहानी भी अजीब है कि किस तरह और किस हद तक हमें प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। वाकया उस समय शुरू हुआ, जब मैं कक्षा आठ में पढ़ती थी और जब मैंने सरकार की तरफ से दी जाने वाली छात्रवृत्ति, जो तब 480 रुपए थी, की मांग प्रिंसिपल से कर दी। इसका खामियाजा मुझे यह भुगतना पड़ा कि न केवल मेरा नाम स्कूल से काटा गया, बल्कि टीसी और अन्य जरूरी कागजात भी नहीं दिए गए; जिसके सहारे किसी दूसरे स्कूल में एडमिशन ले सकूं। तीन साल तक घर में बैठी रही और इस दौरान कई बार स्कूल के प्रिंसिपल से छात्रवृत्ति नहीं मांगने का वादा भी किया। लेकिन, स्कूल में फिर से दाखिला तो दूर, टीसी तक देने से इनकार कर दिया गया। तीन साल तक घर में बैठने के बाद एक दिन इस सिलसिले में मैं तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के जनता दरबार में पहुंच गई और वहां अपनी आपबीती सुनाई। सीएम ने तत्काल इलाके के डीएम को फोन किया और तब जाकर मुझे टीसी मिली और उसके आधार पर दूसरे स्कूल में एडमिशन कराकर आगे की पढ़ाई की। यह कड़ुवा अनुभव हमें बहुजन समाज के लोगों की लड़ाई लड़ने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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