मध्यप्रदेश विधानसभा के हाल में संपन्न चुनाव में मतदाताओं ने किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं दिया। त्रिशंकु विधानसभा में कांग्रेस की 114 सीटें हैं और भारतीय जनता पार्टी की 109। बसपा ने दो सीटें हासिल की हैं और सपा ने एक। चार निर्वाचन क्षेत्रों से आजाद उम्मीदवार जीते हैं। कांग्रेस, सपा, बसपा व निर्दलीय विधायकों की मदद से राज्य में सरकार बनाने जा रही है।
मध्यप्रदेश के मतदाता ने समाज के इस या उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले राजनैतिक दलों को हमेशा से नकारते आ रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही किया है। इनमें आरक्षण-विरोधी सपाक्स पार्टी शामिल है। जय आदिवासी युवा संगठन (जयस), जो कि राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में एक नई शक्ति के रूप में उभर रहा था, कांग्रेस की गोद में बैठ गया है। उसके संस्थापक हीरालाल अलावा ने धार जिले के मनावर (अजजा) निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विजय हासिल की है। हीरालाल अलावा ने चुनाव के पूर्व कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और उन्हें पार्टी ने मनावर से अपना उम्मीदवार घोषित किया था।

सपाक्स
इस वर्ष गांधी जयंती पर जब सपाक्स (सामान्य पिछड़ा अल्पसंख्यक वर्ग अधिकारी कर्मचारी संस्था) ने राजनैतिक दल के रूप में अवतरित होने और राज्य के विधानसभा चुनाव में सभी 230 निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा की तो राज्य की राजनीति के प्रमुख खिलाड़ी सकते में आ गए।
सपाक्स का फरवरी 2016 में समिति के रूप में पंजीयन करवाया गया था। यह मूलतः आरक्षण-विरोधी संगठन है यद्यपि उसने कभी स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं कहा। उसका अभियान मुख्य रूप से मध्यप्रदेश सरकार के जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति व जनताति के शासकीय कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने को असंवैधानिक करार देने वाले निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने के फैसले पर केन्द्रित था। उच्च न्यायालय ने यह निर्णय 30 अप्रैल 2016 को सुनाया था।

उच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद अनुसूचित जाति-जनजाति के शासकीय कर्मचारियों के संगठनों ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। ऐसे ही एक संगठन, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिकारी एवं कर्मचारी संघ (अजाक्स), द्वारा भोपाल में आयोजित एक रैली में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ताल ठोंककर घोषणा की कि ‘‘कोई माई का लाल‘‘ अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री के इस दो टूक बयान की ऊँची जातियों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। राज्य में ऊँची जातियां मुख्यतः भाजपा-समर्थक हैं।
‘माई का लाल‘
सपाक्स ने इस जनधारणा कि भाजपा, व विशेषकर शिवराज सिंह चौहान, ‘अन्यों‘ के मुकाबले अनुसूचित जातियों व जनजातियों को अधिक महत्व देते हैं, को एक मुद्दा बना लिया। मोदी सरकार के अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को संशोधित कर, उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटने के निर्णय ने आग में घी का काम किया। सपाक्स ने जल्द ही प्रदेश में आशातीत लोकप्रियता हासिल कर ली। ‘‘मैं हूं माई का लाल‘‘ लिखी टीशर्टें पहने हुए उसके सदस्यों ने राज्य में एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया, जिसके निशाने पर मुख्यतः भाजपा थी।
सपाक्स पार्टी के अध्यक्ष एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हीरालाल त्रिवेदी हैं और उसके अधिकांश शीर्ष पदाधिकारी पूर्व नौकरशाह हैं। चुनाव में जनता ने सपाक्स की बुरी गत बनाई। उसके सभी 110 उम्मीदवार न केवल पराजित हुए बल्कि सभी ने अपनी जमानतें भी गंवा दीं। उसे मात्र 0.4 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
किंगमेकर बनने का बसपा का स्वप्न ध्वस्त
हिन्दी पट्टी के उत्तरप्रदेश व बिहार जैसे राज्यों के विपरीत, मध्यप्रदेश में पहचान-आधारित राजनैतिक दलों को कभी मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला है। हालिया चुनाव के नतीजों से भी यह स्पष्ट है कि राज्य की राजनीति का मुख्यतः द्वि-धु्रवीय चरित्र बरकरार है और ‘तीसरी शक्ति‘ के लिए यहां कोई स्थान नहीं है। इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस ने कुल मिलाकर 81.9 प्रतिशत मत हासिल किए। सन् 2013 में दोनों पार्टियों को प्राप्त मतों के प्रतिशत का जोड़ 81.2 प्रतिशत था और 2008 में 70 प्रतिशत मतदाताओं ने या तो भाजपा या फिर कांग्रेस को अपना वोट दिया था।
राज्य में बसपा लगातार अप्रासंगिक होती जा रही है और मतों में उसकी हिस्सेदारी हर चुनाव में कम हो रही है। सन् 2008 में उसे 8.97 प्रतिशत मत मिले थे, जो कि 2013 में घटकर 6.29 प्रतिशत और इस बार 5.0 प्रतिशत रह गए। उसने 2008 में सात सीटें जीती थीं व 2013 में छह। इस बार वह केवल दो सीटों पर विजय हासिल कर सकी।

मायावती को उम्मीद थी कि वे इस बार राज्य में किंगमेकर की भूमिका अदा करेंगीं। परंतु उनका सपना ध्वस्त हो गया। बसपा के 227 उम्मीदवारों में से केवल दो को जीत हासिल हुई। चुनाव के पहले बहनजी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। परिणामों के बाद उन्होंने कांग्रेस को ‘बिना शर्त समर्थन‘ देने का एलान किया परंतु कांग्रेस को उनके समर्थन की कोई खास आवश्यकता नहीं थी।
सपा का भी यही हाल हुआ। उसके 52 उम्मीदवारों में से केवल एक जीत सका और उसे मात्र 1.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
अलावा बैठे कांग्रेस की गोद में
जयस के मुखिया हीरालाल अलावा ने ‘अबकी बार आदिवासी सरकार‘ का नारा देकर प्रदेश की राजनीति में सनसनी फैला दी थी। परंतु बाद में उन्हें शायद लगा कि यह संभव नहीं है और उन्होंने कांग्रेस का उम्मीदवार बनना स्वीकार कर लिया। पैंतीस वर्षीय डाॅ. अलावा, दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में रिमयूटोलाॅजी के सहायक प्राध्यापक थे। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और धार जिले में स्थित अपने गृहनगर कुक्षी में बस गए। उन्होंने जयस की स्थापना की। जयस सबसे पहले तब चर्चा में आया जब उसके उम्मीदवारों ने आदिवासी बहुल धार, झाबुआ, अलीराजपुर और बड़वानी जिलों में कालेज छात्रसंघ चुनाव में भारी विजय हासिल की। जुलाई से जयस ने आदिवासी क्षेत्रों मे रैलियां निकालना शुरू किया, जिनमें जनसैलाब उमड़ पड़ा। भाजपा और कांग्रेस दोनों को जयस एक बड़ा खतरा लगने लगी। वह मालवा-निमाड़ क्षेत्र के अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 22 निर्वाचन क्षेत्रों में एक बड़ी शक्ति बनकर उभरी। सन् 2013 में कांग्रेस इनमें से केवल पांच सीटें हासिल कर सकी थी।
गठबंधन की कोशिशें असफल
परेशानहाल कांग्रेस ने जयस के साथ गठबंधन करने की कोशिश की परंतु चर्चाएं जल्द ही टूट गईं क्योंकि जयस, कुक्षी विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार खड़ा किए जाने की मांग कर रही थी। कांग्रेस इसके लिए राजी नहीं थी क्योंकि पिछली बार कुक्षी से उसका उम्मीदवार विजयी हुआ था। इसके बाद, अलावा ने घोषणा की कि जयस राज्य की सभी 47 अजजा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी। इसके अतिरिक्त, उसने यह भी कहा कि वह तीस अन्य सीटों, जिनमें आदिवासी मतदाताओं की खासी आबादी है, से भी चुनाव लड़ेगी। यह कहना मुश्किल है कि कांग्रेस ने अलावा को अपने साथ आने के लिए किस तरह राजी किया परंतु यह सच है कि उन्होंने चुपचाप कांग्रेस का टिकट कबूल कर लिया और जयस बिखर गई।
इसके पहले, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) भी राज्य में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल के रूप में उभरी थी परंतु जल्द ही वह कई गुटों मेें बंट गई और अपना प्रभाव खो बैठी। इस चुनाव में उसे मात्र 1.8 प्रतिशत मत हासिल हुए। आम आदमी पार्टी को भी राज्य के मतदाताओं ने नकार दिया और उसके किसी भी उम्मीदवार को दस हजार से अधिक मत हासिल नहीं हुए।
देश की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी
मध्यप्रदेश में 1.53 करोड़ आदिवासी निवासरत हैं। जनगणना 2011 के अनुसार, यह देश के सभी राज्यों में सबसे बड़ी आदिवासी आबादी है। मध्यप्रदेश के बाद महाराष्ट्र का नंबर है जहां 1.05 करोड़ आदिवासी रहते हैं और फिर उड़ीसा का, जहां की आदिवासी आबादी 95 लाख है। देश की कुल आदिवासी आबादी का 13 प्रतिशत हिस्सा मध्यप्रदेश में है।
आदिवासी, राज्य की कुल आबादी का 21.1 प्रतिशत हैं। अर्थात, राज्य का हर पांचवा रहवासी आदिवासी है। छह जिलों में आदिवासियों की आबादी पचास प्रतिशत से अधिक है। अलीराजपुर में 89 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। इसके बाद हैं झाबुआ (87 प्रतिशत), बड़वानी (70 प्रतिशत), डिंडोरी (64 प्रतिशत) और मंडला (58 प्रतिशत)।
राज्य के 230 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से 47 और 29 लोकसभा क्षेत्रों में से 6 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। सन् 2014 के आम चुनाव में राज्य की सभी छःह आदिवासी चुनाव क्षेत्रों में भाजपा को विजय हासिल हुई थी। सन् 2015 में झाबुआ-रतलाम निर्वाचन क्षेत्र के भाजपाई सांसद दिलीप सिंह भूरिया की मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया जीते थे।
सन् 2013 के विधानसभा चुनाव में 47 अजजा सीटों में से भाजपा ने 32 पर विजय हासिल की थी। कांग्रेस को 14 सीटें मिली थीं और एक सीट से निर्दलीय उम्मीदवार विजयी हुआ था। इस बार, भाजपा की सीटें कुछ कम हुई हैं और कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहा है।
वनवासी कल्याण परिषद
एक समय था जब राज्य के आदिवासी कांग्रेस के कट्टर समर्थक थे। परंतु धीरे-धीरे आरएसएस और उसके अनुशांगिक संगठन वनवासी कल्याण परिषद ने आदिवासी क्षेत्रों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। संघ परिवार, अनुसूचित जनजातियों को ‘आदिवासी‘ की बजाए ‘वनवासी‘ कहना पसंद करता है क्योंकि संघ की यह मान्यता है कि आर्य, न कि आदिवासी, इस देश के मूल निवासी हैं। इसके विपरीत, अधिकांश प्रतिष्ठित इतिहासविदों की मान्यता है कि आर्य, हिन्दूकुश पर्वतश्रृंखला को पार कर मध्य एशिया से भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे।
वनवासी कल्याण परिषद ने आदिवासियों के हिन्दूकरण का एक बड़ा अभियान शुरू किया। उनके भगवानों के स्थान पर राम और हनुमान को प्रतिस्थापित करने के प्रयास हुए। उनके आराधना स्थलों को हिन्दू मंदिरों में बदल दिया गया। इसी अभियान के तहत आदिवासी क्षेत्रों में ‘सामाजिक कुंभ‘ आयोजित किए गए, जिनमें आदिवासियों को रामायण और गीता का पाठ पढ़ाया गया। जिन महानुभावों ने इन कुंभों में प्रवचन दिए उनमें संघ के शीर्ष नेता शामिल थे।
(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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