‘मदर इंडिया’ 1927 में प्रकाशित मिस कैथरीन मेयो की महत्वपूर्ण कृति है जो एक अमेरिकी इतिहासकार थीं। उन्होंने 1924-25 में भारत की यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान जो कुछ भी उन्होंने देखा और समझा, उसे अपनी किताब में लिखा। इस प्रकार यह किताब साक्षी है भारतीय समाज में व्याप्त विषमताओं की और यह भी कि महिलाओं को देवी मानने वालों की नजर में आधी आबादी की हैसियत गुलामों से भी बदतर है।
इस किताब में वर्णित घटनाएं व दृश्य तब सवर्ण समाज के पुरोधाओं को अंदर तक भेद गया था। यहां तक कि विश्व स्तर पर इसकी आलोचना की गई। भारत में तो इस किताब को ऐसे देखा जाता था मानों इस किताब में सच लिखकर कैथरीन मेयो ने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो। अंग्रेजी सहित दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित इस पुस्तक का मुकम्मिल हिंदी अनुवाद कंवल भारती ने किया है। इसे फारवर्ड प्रेस बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है।

‘मदर इंडिया’ की आवश्यकता क्यों है या फिर इसे हर आम और खास को क्यों पढ़ना चाहिए, कंवल भारती ने इसका कारण अपने अनुवादकीय में बताया है। वे लिखते हैं कि “आज 90 साल बाद ‘मदर इंडिया’ को हिन्दी में लाने का उद्देश्य ‘कहो गर्व से हम हिन्दू हैं’ का नारा लगाने वाले हिंदू राष्ट्रवादियों की आंखों का जाला हटाना है ताकि वे देख सकें कि क्या सचमुच हिन्दू संस्कृति में दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के लिए गर्व करने योग्य कुछ है?”
उनके मुताबिक, कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया में गरीबों, अछूतों, शूद्रों और स्त्रियों की बदहाली तथा राजाओं, सामंतों और ब्राह्मणों के शोषण तंत्र का जो वर्णन किया है। उसे पढ़कर शोषितों की आंखों से भी चिनगारियां निकलेंगी और शोषकों की आंखों से भी। परंतु, दोनों की चिंगारियों की अन्तर्वस्तु में बुनियादी फर्क होगा।
आज इक्कीसवीं सदी में यह जानकर आश्चर्य होगा कि कैसे भारतीय समाज में गरीबों, अछूतों, शूद्रों और स्त्रियों की बदहाली पर केंद्रित इस पुस्तक का असर इतना व्यापक था कि भारत में 50 से अधिक आलोचनात्मक पुस्तकों और पम्फलेटों का प्रकाशन किया गया। वहीं दूसरी ओर इसी नाम से एक फिल्म का निर्माण भी किया गया। क्या कोई यकीन कर सकता है कि 1927 के दौर में लिखी गई इस पुस्तक का विरोध अमेरिका के न्यूयार्क शहर में भी किया गया और इसकी प्रतियां जलाई गईं?
तब के भारत में तो इस किताब ने भूचाल ला दिया था। गांधी सहित लगभग सभी सवर्ण नेताओं ने मिस मेयो की ‘मदर इंडिया’ का खंडन किया था। लाला लाजपत राय ने भी एक किताब ‘अनहैप्पी इंडिया’ लिखकर इसका विरोध किया। असल में मिस मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ सामाजिक विषमता, अंधी परंपराओं, भयानक अशिक्षा और गरीबी में जकड़े भारत की वह नंगी तस्वीर दिखाती है जिसे देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति विचलित हो सकता है।

जब कोई व्यवस्था एक बेहतर और सुखमय समाज के निर्माण के लिए अपनी योजनाओं को किसी समाज पर लागू करती है तो उसे उस समाज में पहले से मौजूद व्यवस्था, विचार व मूल्यों से टकराना पड़ता है। प्रस्तुत किताब में भी मिस मेयो ने शिक्षा, स्वास्थ्य व गरीबी से संबंधित अंग्रेजी शासन की योजनाओं को लागू करने के दौरान पहले से स्थापित हिन्दू धर्म केन्द्रित परंपराओं, विचारों व विश्वासों से टकराहट को बखूबी दर्शाया है। लेकिन यह टकराहट उनके साथ उतना नहीं है जिनकी बेहतरी के लिए ये योजनाएं लाई गयी हैं बल्कि ये टकराहट उनके साथ ज्यादा होती है जो उस पुरानी व्यवस्था के नियंता है और उस पुरानी व्यवस्था में लाभदायक स्थिति में है। यह टकराहट भौतिक होने के साथ–साथ वैचारिक भी है।
अपनी यात्रा के दौरान मिस मेयो ने भारत की दुर्दशा की जड़ों को भी तलाशने की कोशिश की। वह लिखती हैं कि मैंने अनेक भारतीय राजाओं, नेताओं, शासकों और धर्मगुरुओं से भारत के लोगों की मानसिक और भौतिक स्थिति के बारे में बातें की है और उनके दिलचस्प जवाबों का लाभ मुझे अपने भ्रमण के दौरान देश के लोगों के हालात को समझने में मिला है।
वह तथ्यों और पूरे प्रमाणों के साथ कहती हैं कि “अकर्मण्यता, जड़ता, आगे बढ़ने में असहाय स्थिति और मौलिकता की कमी, धैर्य, दृढ़ता, उत्साह तथा जीवन स्फूर्ति की कमी ये सब एक भारतीय की ऐसी कमियां है, जो उनमें आज पैदा नहीं हुई है, बल्कि इन कमियों का एक लंबा इतिहास है। ये कमियां उसमें तब तक बनी रहेगी, जब तक कि वह उनको समझकर अपने दोनों हाथों से उखाड़कर नहीं फेक देगा।”
कैथरीन मेयो के वर्णन शैली की उत्कृष्टता का एक प्रमाण देखिए। वह लिखती हैं, “12 साल की बालकन्या को लीजिए, जो अपने हाड़–मांस में अत्यंत दयनीय है, और जो अनपढ़ और अज्ञानी है उसे स्वस्थ रहने के बारे में कुछ भी नहीं सिखाया गया है। उसे समय से पहले ही मां बना दीजिए और फिर उसके कमजोर बच्चों को शुरू से ही दूषित वातावरण में रखिए तो यही होगा कि उसकी जीवनशक्ति दिन–प्रतिदिन सूखती चली जायेगी। उसे कहीं खेलने नहीं जाने दीजिए और घर में रखकर उसमें ऐसी आदतें डाल दीजिए कि वह 30 वर्ष की आयु में ही झगड़ालू, कमजोर और बूढ़ी हो जाये।’’
ऐसा नहीं है कि कैथरीन मेयो केवल भारतीय समाज की आलोचना ही करती हैं। वह सुझाव भी रखती हैं। मसलन, प्रसव के दौरान जब स्त्री को सबसे साफ–सुथरे व हवादार कमरे में रखा जाना चाहिए तब उसे ऐसे कमरे या जगह में रखा जाता जहां उससे अछूतों जैसा व्यवहाार किया जा सके।”

अभी 10 जनवरी 2019 को जनसत्ता में खबर प्रकाशित हुई कि नेपाल में बिना खिड़की वाली झोपड़ी में दम घुटने के कारण 35 वर्षीय महिला और उसके दो बेटों की मौत हो गई। महिला एक प्रथा के तहत इस झोपड़ी में रह रही थी जिसमें माहवारी के दौरान महिला को अछूत माना जाता है और उसे अलग स्थान पर रहने के लिए विवश किया जाता है। इस कुप्रथा को ‘चौदही’ कहा जाता है। इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद अब भी यह चलन में है। इस तरह इस किताब को पढ़ते समय यह महसूस होता है कि हिन्दू समाज की बुराईयों की जड़ में हिन्दू धर्म, परंपरा और उसके विश्वास हैं।
भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में विश्व के सबसे गरीब देशों के साथ होड़ कर रहा है। भुखमरी के कारण आए होने वाली मौतों के समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। अपनी किताब में मिस मेयो ने तब लिखा था कि “डच ईस्ट इंडिया के प्रतिनिधि ने लिखा था– सूरत में अकाल इतना बड़ा था कि लोग और जानवर भूख से मर रहे थे और मांएं भूख में अपने बच्चों को खा रही थी।… क्रिस्टोफर रीड ने ब्रिटिश इंडिया कंपनी को सूचना दी कि मेसुलपाटम और अरमागांव पूरी तरह अकाल से पीड़ित है, जिंदा रहने के लिए लोग मृतकों को खा रहे हैं और लोग इस आशंका से देश में यात्रा करने की हिम्मत नहीं करते कि उन्हें मारकर खा लिया जायेगा।”
यही सचबयानी ‘मदर इंडिया’ की खूबी है और एक तरह से यह आईना दिखाने का काम आज भी करती है। इसे एक उदाहरण से समझिए। झाड़–फूंक के द्वारा विभिन्न रोगों का इलाज करने का तथ्य आज भी टी.वी. एवं अखबारों के जरिए देखे जा सकते हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति के महत्वपूर्ण ग्रंथ सुश्रुत संहिता का एक अंश उल्लेखित करते हुए मिस मेयो लिखती हैं कि “रोग के अनुकूल और प्रतिकूल स्थिति की भविष्यवाणी, डाक्टर को बुलाने के लिए भेजे गये व्यक्ति का हुलिया, उसके बोलचाल, उसके कपड़े और चाल–ढाल से या उसके पहुंचने के वक्त के नक्षत्र की प्रवृत्ति और चंद्रमा की गति से या उस समय चलने वाली हवा की दिशा से या सड़क पर उसके द्वारा देखे गये शकुन के स्वरूप से या स्वयं चिकित्सक के आसन या बोलने से की जा सकती है। अगर चिकित्सक और उसे बुलाये जाने वाले व्यक्ति की जाति एक ही है तो यह शुभ शकुन माना जायेगा। किन्तु अगर वे अलग–अलग जाति के हैं तो यह रोग के निदान का प्रतिकूल संकेत माना जायेगा।”
वे इस निष्कर्ष पर भी पहुंचती हैं कि अगर कल को भारतीय स्वराज स्थापित हो गया और देश में गरीबी की जगह समृद्धि आ गई तो भी जब तक वह अछूतों और स्त्रियों के बारे में अपने विचारों को नहीं बदलेगा तब तक वह अशिक्षितों के दंश के रूप में बना रहेगा। … हम भारतीय पुरुष इस संभावना में विश्वास नहीं करते कि कोई स्त्री स्वतंत्रचेत्ता और सच्ची भी हो सकती है। हम इसे प्रकृति के ही विरुद्ध मानते हैं। दोनों एक दूसरे के विपरीत शब्द है।
भारत में धार्मिक अलगाव की समस्या के बारे में मुस्लिम लीग के तत्कालीन अध्यक्ष अब्दुर्रहीम को उद्धृत करते हुए वे लिखती हैं कि “इस समस्या का वास्तविक समाधान ऐसी स्थितियों को पैदा करने में है जिनमें संपूर्ण आबादी (हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, ईसाई और किसानों मजदूरों एवं हिन्दू अछूतों के समग्र जीवन) के हालात आर्थिक और बौद्धिक रूप से इतने सुधार दिये जाएं, राजनीतिक शक्ति सामान्य जनता तक इतनी वितरित कर दी जाए कि एकाधिकारवादी एक वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाये और उसके साथ विभिन्न समुदायों के बीच का संघर्ष भी।’’
जैसा कि मैंने पहले कहा कि कैथरीन मेयो ने वही लिखा जो उन्होंने अपनी आंखों से देखा और महसूस किया। जैसे कि भारत की महत्वपूर्ण अच्छाई का जिक्र करते हुए वे लिखती हैं कि “यह मेरा अपना अनुभव है कि मैं भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक जितने भी गांवों में गई, सभी जगह मेरा स्वागत किया गया। मुझे अनेक झोपड़ियों में मिट्टी की दीवारों पर किंग जार्ज और कृष्ण के बालरूप में चित्र दिखायी पड़ते थे जैसे उनसे उनके लाभ का कोई संबंध हों। मेरे लिए खुद को अमेरिकी साबित करने के सारे प्रयास बेकार थे क्योंकि उनके लिए सफेद चेहरे का मतलब केवल अंग्रेज था अमेरिकन नहीं। इसीलिए मैंने कुछ भी बताना छोड़कर, उनका स्वागत स्वीकार कर लिया, जो अनेक पीढ़ियों के कार्य के फलस्वरूप मिल रहा था।’’
इस प्रकार, यह किताब जहां भारत की बुराइयों की जड़ों को खंगालने की कोशिश करती है वहीं दूसरी तरफ उन बुराइयों को जड़ से खत्म करने की संभावनाओं के द्वार भी खोलती है। फिल्म ‘मदर इंडिया’ के गीत ‘दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा’ को हम भुला भी दें तो भी फिल्म के गीत ‘दुःख भरे दिन बीते रे भइया, अब सुख आयो रे’ की परिस्थिति प्रतीक्षारत ही है।
किताब : मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति मदर इंडिया
लेखक : कैथरीन मेयो
अनुवादक : कंवल भारती
मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस
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(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया