भारत में मौलिक समाजवादी चिन्तन का सूत्रपात भारत के आदिम जनजातियों के द्वारा हुआ, और उसका विकास बहुजन समाज ने किया। बहुजन समाज का अर्थ है, ब्राह्मणी व्यवस्था में शूद्र-अतिशूद्र बनाई गईं जातियां। आदिम समाज मातृ सतात्मक समाज था, जिसमें पुरुष और स्त्री के बीच समानता थी। न केवल वैदिक साहित्य और मनुस्मृति में, बल्कि उसके पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य में भी उसके असंख्य साक्ष्य देखे जा सकते हैं। ऋग्वेद (7-6-3) में भारत के आदिम समाजवादी चिन्तकों को यज्ञहीन, पूजाहीन और अश्रद्ध कहा गया है। शंकर ने ‘ब्रह्मसूत्र’ (1-1-1) में उन्हें प्राकृत जनाः (असभ्य लोग) लिखा है। महाभारत के शान्ति पर्व में चार्वाक नामक एक समाजवादी चिन्तक को दानव बताकर जिन्दा जलाकर मारने का उल्लेख है। गीता (15-7, 8) में उन्हें असुर कहा गया है, जो यह मानते थे कि जगत आश्रय-रहित और बिना ईश्वर के स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। अर्थात, जगत की उत्पत्ति का उनका सिद्धान्त वैज्ञानिक था। लगभग सभी उपनिषदों और पुराणों में समतावादी-भौतिकवादी विचार को असुरों का मत बताया गया है। यह भारत का आजीवक (श्रमिक) और लोकायत (लोकमत) दर्शन था, जो बुद्ध से होता हुआ, मध्यकालीन श्रमिक वर्गीय कवियों तक आया था। बौद्ध दर्शन ने प्रतीत्य समुत्पाद (कारण-कार्य सिद्धान्त) से आत्मवाद को महाविद्या कहा और असमानता पर आधारित वर्णव्यवस्था का खण्डन किया। कबीर ने कहा कि जिन लोगों के दिलों में प्रेम ही नहीं है, उनका जीवन संसार में किसी काम का नहीं है[1], और रैदास ने ‘बेगमपुर’ की समाजवादी परिकल्पना प्रस्तुत की।[2]
भारत में आर्यों ने आकर इस मौलिक समाजवादी चिन्तनधारा के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति का अभियान चलाया। उन्होंने छल-बल से समाजवादी चिन्तनधारा के बुद्धिजीवियों को दबाया, कुचला और बड़ी संख्या में उनकी हत्याएं कराईं। फलतः एक लम्बे कालखण्ड तक इस देश में सामन्तवादी व्यवस्था का बोलबाला रहा, जो वर्तमान में निरंकुश पूंजीवाद के साथ मिलकर खुली प्रतिक्रान्ति कर रहा है और बहुजन समाज की क्रान्ति-धारा को हर सम्भव तरीके से कुचल रहा है। डा. आंबेडकर ने इसका बहुत ही रोचक वर्णन भारत में क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति’ शीर्षक के अन्तर्गत किया है, जो विचारोत्तेजक भी है।[3]

भारत में मुसलमानों और ईसाईयों के आगमन तथा उनके द्वारा की गई धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति के उपरान्त बहुजन समाज की समतामूलक वैचारिकी को पर्याप्त बल मिला। उसकी गूंज कबीर के सौ साल बाद तुलसीदास तक पहुंची। तुलसीदास ने बड़े पैमाने पर बहुजन क्रान्ति के खण्डन में प्रतिक्रान्ति के ग्रन्थ लिखे। इसलिए तुलसीदास को हिन्दुत्व के उद्धार का बड़ा कवि माना जाता है। उन्हें नीची जातियों का समतावाद फूटी आंख नहीं सुहाता था। इसलिए उन्होंने ‘मानस’ में उनको फटकार लगाई है। परंतु, उसके दो सौ साल बाद तक हमें बहुजन समतावादी विचारकों के बारे में पता नहीं चलता। किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि बहुजन मानस थककर बैठ गया था। अगर वह थककर बैठ गया होता, तो तुलसीदास को यह फटकार नहीं लगानी पड़ती कि ‘शूद्र लोग यह कहकर आंख दिखा रहे हैं कि क्या हम तुमसे कम है?[4] इससे पता चलता है कि क्रान्ति की धारा सूखी नहीं थी, बल्कि प्रवाहमान थी। पर उस धारा को इतिहास में दर्ज नहीं किया गया। उस धारा के विचारकों को खोजना मुश्किल नहीं है, सिर्फ थोड़ी मेहनत और लगन की दरकार है, क्योंकि वह धारा प्रतिक्रान्ति के साहित्य में प्रतिरोध के रूप में मौजूद है।

कबीर के तीन सौ साल बाद हम फिर से भारत की मौलिक समाजवाद की क्रान्ति को भारत में घटित होते हुए देखते हैं। ठीक इसी समय भारत में पश्चिम की विचारधारा से हिन्दुत्व को बचाने के लिए हिन्दू पुनर्जागरण के आन्दोलन भी चल रहे थे। क्रान्ति की धारा अविराम आगे बढ़ रही थी, पर प्रतिक्रान्ति की धारा का बहाव तेज था, क्येंकि उसकी सहायता के लिए हिन्दू सेठों की तिजोरियों के मुंह खुले हुए थे। लेकिन न केवल सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध, बल्कि अस्मिता और समानता की स्थापना के लिए भी शूद्र-अतिशूद्र जातियों के संघर्ष प्रत्येक राज्य और क्षेत्र में उभर रहे थे। ये संघर्ष हिन्दू पुनर्जागरण और प्रतिक्रान्ति के आन्दोलनों से न तो विचलित हुए थे और न प्रभावित हुए थे। प्रत्युत, शूद्रअतिशूद्र जातियों के समता-संघर्ष ने पुनर्जागरण के नेताओं, विशेष रूप से ब्राह्मणों को भयभीत कर दिया था, जिसके प्रभाव से उन्हें अस्पृश्यता के विरोध को, शाब्दिक ही सही, अपने नियमों में शामिल करना पड़ा था।

इस पुस्तक में बहुजन क्रान्ति के इसी परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। यह मेरे बहुजन क्रान्ति की धारा पर समय-समय पर लिखे गए लेखों का संग्रह है। मूलतः सभी लेख हिन्दी में लिखे गए हैं, जिन्हें फारवर्ड प्रेस के लिए श्री प्रमोद रंजन ने विशेष रुचि लेकर अंग्रेजी में अनूदित कराए हैं।
मुझे इस पुस्तक के बारे में कुछ अधिक नहीं कहना है, सिवाए इसके कि इन लेखों में दलित से बहुजन चिन्तन का क्रमिक विकास आपको मिलेगा। यह विकास-यात्रा बहुजन चिन्तन का इतिहास भी है, जिसकी मुख्यधारा के चिन्तकों उपेक्षा की है। वर्णव्यवस्था स्वयं में हिन्दू समाज की एक अस्मितामूलक व्यवस्था है, जिसमें शूद्र वर्ण की पहचान एक दास या सेवक श्रेणी के रूप में बनाई गई है। शूद्र वर्ण की यह अस्मिता अपमानजनक थी। 19वीं सदी में इस अस्मिता से मुक्ति और अपनी नई सम्मानजनक अस्मिता की स्थापना के लिए पूरे देश मे संघर्ष हुए, जिसका दिग्दर्शन आपको इस पुस्तक में दिखाई देगा।

अंत में एक और बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि भारत में ब्राह्मणों ने जिन्हें शत्रु और खलनायक प्रचारित करके सांस्कृतिक उत्सव के नाम पर उनके चरित्रहनन का जो सिलसिला चलाया हुआ है, उसका एकमात्र कारण विशाल बहुजन समाज को उस इतिहास से अनभिज्ञ रखना है, जो उनके पूर्वजों के संघर्ष के इतिहास है।
दरअसल वे मानवतावादी, समतावादी और न्यायप्रिय शासक थे, और ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था, बलि प्रथा, पशु यज्ञ और उनकी साम्राज्यवादी नीतियों के घोर शत्रु थे। ब्राह्मणों ने छलप्रपंच से उनकी हत्याएं करायीं और सच पर पर्दा डालनी वाली मिथ्या कथाएँ रचकर उन्हें राक्षस और दैत्य बनाकर बहुजन समाज को उनसे दूर कर दिया। इसका आँखें खोल देने वाला एक तथ्यात्मक विश्लेषण भी आपको इस किताब में मिलेगा।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)
संदर्भ :
[1] जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, फुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।।
(सुमिरण कौ अंग, 17, कबीर ग्रन्थावली, सं. श्यामसुन्दर दास)
[2] अब हम खूब वतन घर पाया, ऊॅंचा खैर सदा माहि भाया।
बेगमपुरा शहर का नाउ, दुख अन्दोह नीहि तेहि ठाऊ।
(आदि अमृत वाणी श्री गुरु रविदास जी, 9-11, आल इंडिया आदि धर्म मिशन, दिल्ली)
[3] Dr. Babasaheb Ambedkar : Writings and Speeches, Vol. 3, Part III Revolution and Counter-Revolution, pp. 151- 429.
[4] बादहि सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्हते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो विप्रवर, आंखि देखावहि डांटि।।
(रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, 157)
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