उपन्यास के प्रारंभ में जो बिंब है वह बाजार का है। एक ऐसा बाजार जहां केवल पूंजीवाद का सिद्धांत ही लागू नहीं होता, सामाजिक वर्चस्व भी कड़ाई से लागू किया जाता है। जो कोई इसका उल्लंघन करता है वह या तो मारा जाता है या फिर बहिष्कृत कर दिया जाता है। उपन्यास का अंतिम वाक्य है – ‘बाजार खुला है’।
अंजलि देशपांडे के उपन्यास ‘हत्या’ की खासियत यह है कि इसे वे भी पसंद करेंगे जिन्हें जासूसी कहानियों में दिलचस्पी है। बहुत ही बारीक और ठोस आधार पर लिखे गए इस उपन्यास के हर दृश्य में बनावटीपन नहीं है। फिर चाहे वह एक निलंबित पुलिस अधिकारी अधिरथ का व्यक्तिगत जीवन हो या फिर सूर्यबाला वह महत्चाकांक्षी महिला जिसकी हत्या कर दी जाती है।
उपन्यास में दलित-बहुजन कंटेंट भी है। मसलन उपन्यास का नायक अधिरथ स्वयं दलित है। वह निलंबित क्यों है और उसे क्यों निलंबित रखा गया है, यह कारण भी उपन्यास के पन्ने दर पन्ने पलटने के बाद स्पष्ट होता जाता है।

यह कहना है भीकूराम का जो उपन्यास के नायक अधिरथ का ममेरा ससुर है और मुर्दाघर में काम करता है। उपरोक्त अंश में वह इक्कीसवीं सदी में भारतीय समाज की तहें खोलता है। ठीक वैसे ही जैसे वह किसी मुर्दा लाश को चीरकर उसके अंदर के उन हिस्सों को बाहर निकालता है जिसके कारण वह लाश में तब्दील हुआ है। भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर यह करारा प्रहार बड़ी ही खूबसूरती से अंजलि देशपांडे ने किया है।
उपन्यास में दलित-बहुजन कंटेंट को छोड़ दें तो सिवाय इसके कि पूरा उपन्यास विशेष प्रकार के साज-सज्जा से युक्त है। हत्या के कारणों को भी तर्कसंगत तरीके से रखने में लेखिका नाकाम रही हैं। भू-माफियाओं व सरकारी तंत्र की मिलीभगत कोई आश्चर्य पैदा नहीं करती है।
अलबत्ता उपन्यास के अंत में अधिरथ को बर्खास्त किया जाना ठीक वैसा ही है जैसा कि प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा में वंशीधर बर्खास्त कर दिए गए थे। अंतर यह है कि अधिरथ को कोई पंडित आलोपीदीन नहीं मिलता जो उसे वंशीधर की तरह गले लगा ले। इसकी वजह तो यही है कि अधिरथ सवर्ण नहीं दलित है।
समीक्षित पुस्तक : हत्या
लेखिका : अंजलि देशपांडे
प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन
मूल्य : 235 रुपए
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(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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