उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की बुनियाद दरक चुकी है। 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों के अलावा सामने आए विभिन्न आंकड़े इसका ठोस प्रमाण हैं। सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार 48 फीसदी गैर जाटव दलितों ने सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट न देकर भाजपा के उम्मीदवारों का वोट किया। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के ओबीसी में शामिल कुर्मी-कोइरी जाति के लोगों ने सपा-बसपा गठबंधन को वोट नहीं किया। जबकि मुसलमान धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ रहे। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस को 14 प्रतिशत वोट और सपा-बसपा गठबंधन को 73 फीसदी वोट मुसलमानों के मिले।
ये आंकड़े इन दलों के मुख्य आधार वोटरों के खिसक जाने की कहानी बयान करते हैं। साथ ही, ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि गठबंधन का एक घटक मुसलमान अपेक्षित नुमाइंदगी के बगैर भी मज़बूती के साथ डटा रहा। ‘सामाजिक न्याय’ एवं ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ के तमगा धारियों ने भगवा झंडे को अपना लिया।
लेकिन सवाल यह है कि यह कब तक चलेगा? क्यों मुसलमान वफादारी का एक तरफा इज़हार अपनी नुमाइंदगी एवं अधिकारों की कुर्बानी के बावजूद भी करता रहे? क्या लगभग तीस साल के दौरान कई बार सत्ता में रहते हुए इन दलों ने मुसलमानों के साथ बराबरी का व्यवहार किया है? क्या ओबीसी मुस्लिमों एवं दलित मुस्लिमों को उनका संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुआ? क्यों ओबीसी वर्ग में मुस्लिम उम्मीदवार को धर्म और जाति आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है?
लोकसभा सभा चुनाव 2019 के नतीजे और गठबंधन
लोकसभा चुनाव-2019 में उत्तर प्रदेश की दो बड़ी पार्टियों ने प्रदेश के लगभग 19% मुस्लिमों को एकजुट कर और अपनी जाति के वोटरों के बल पर सफलता का सपना देखा था। सपा, बसपा एवं रालोद गठबंधन के बुनियादी घटक थे। उत्तर प्रदेश का इतिहास बताता है कि सपा और बसपा का इतिहास एक–दूसरे को नकारने का रहा है। यह दल अपने सियासी वजूद को बचाने के लिये साथ आए थे। उत्तर प्रदेश में हाशिए के लोगों के बहुत से रहनुमा मौजूद थे। अगर गठबंधन सही नीयत एवं बड़े उद्देश्यों के साथ होता तो स्वभाविक तौर पर गठबंधन के तार हाशिये के नेताओं से भी जुड़ते।

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सारी कवायद का यह कितना अलोकतांत्रिक हिस्सा था कि दोनों दलों के लिये जीवनदाता का काम करने वाले मुसलमान लगभग बहिष्कृत थे। इस प्रकार पिछड़ों के नाम पर यादवों के नेता अखिलेश यादव और दलितों के नाम पर जाटवों की नेत्री मायावती ने गठबंधन कर लिया।
मुसलमानों के वोट के लिये भाजपा का होना ज़रूरी है?
इन दलों ने मुसलमानों को स्वतः ही अपना वोटर शुमार कर लिया था। इस तरह के साहस के लिये उनके पास आधार भी था क्योंकि मुसलमानों ने अपने आपको इन दलों के पास गिरवी रख दिया था। मुसलमान हर चुनाव में सेकुलरिज्म के नाम पर इन दलों के वोटर बने रहे। इतने लंबे सफर में मुसलमानों ने नुमाइंदगी, अधिकार और राज-काज में हिस्सेदारी आदि पर अपने हितैषी दलों से सवाल ही नहीं किया।
कथित धर्म निरपेक्ष दलों ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये एक फार्मूला अपनाया है। इसके अनुसार मुसलमानों में भाजपा का डर बना रहना ज़रूरी है अन्यथा इस समुदाय का एकतरफा समर्थन नहीं मिलेगा। इस प्रकार इन दलों ने भाजपा के लिये हमेशा स्थान रिक्त रखा।

इसी क्रम में सत्ता में रहते हुए इन दोनों दलों (सपा और बसपा) ने मुसलमानों को राज्य के संसाधनों में आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी नहीं दी। नागरिकों अधिकारों और विकास से दूर रखा. जवाबदेही से बचने के लिये राज्य के अंदर भय के वातावरण को उचित समझा। प्रशासनिक चूक से घटनायें होती हैं लेकिन लगातार चलने वाली घटनाओं में सत्ताधारी दल की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। सेकुलर दलों ने इस फार्मूले से अपनी सफलता की संभावनाओं को बढ़ाया है। कई बार भाजपा और उसके सहयोगियों ने भी अपने हिसाब से इन अवसरों से लाभ उठाया है।
मुसलमानों के खिलाफ माहौल पैदा करने में सेकुलर दलों का योगदान
देश में अधिकतर समय कथित रूप से धर्मनिरपेक्ष दलों का शासन रहा है। इस दौरान देश में एकतरफा विकास को लेकर सवाल भी उठते रहे हैं। मसलन, यूपीए ने मुसलमानों की हालत को जांचने के लिये सच्चर कमेटी का गठन किया। इस कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम समुदाय देश की प्रगति से दूर रहा है। सच्चर कमेटी ने इस समुदाय के पिछड़ेपन के कारणों पर भी विचार किया और निवारण का साधन भी बताया। अगर विकास का क्रेडिट सरकार को जाता है तो एक समुदाय के आगे नहीं बढ़ पाने की ज़िम्मेदारी भी सरकार को ही जाती है। बिना किसी ठोस कारण के एक समुदाय को भागीदारी से वंचित नहीं किया जा सकता है।
दरअसल, यह अधूरा सच है। देश के प्रभावशाली समूहों एवं जातियों का नेचर रहा है कि वह हमेशा सत्ता के साथ रहे हैं। इसीलिये कल वे धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ थे और आज अपनी सुविधानुसार दूसरी तरफ हैं। यह सेकुलर पार्टियों की देन है कि आज मुसलमान सीधे निशाने पर हैं। इन दलों ने मुसलमानों को मुख्यधारा में शामिल करने की जगह हमेशा जज़्बाती सवालों में उलझा कर रखा है और अपने हितों की रक्षा की है।
वाजिब सवालों पर भी खामोशी
मसलन, क्या कभी किसी ने कहा कि वह आर्टिकल 341 को हटाने का पछधर है और इस तरह वह मुस्लिमों के अंदर मौजूद दलितों को समान अवसर दिये जाने के समर्थन में है? क्या किसी पिछड़े या दलित नेता ने कहा कि वह मुस्लिम ओबीसी के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर है और ओबीसी वर्गीकरण के द्वारा मुस्लिम ओबीसी के अधिकारों की रक्षा चाहता है? क्या किसी ने कहा कि वह मुस्लिमों के पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिये उनके पिछड़ेपन के आधार पर अलग से आरक्षण की मांग करता है? क्या तथाकथित मुस्लिम नेताओं ने कभी अपने समाज के पिछड़े लोगों के अधिकारों के लिये सदन में सवाल किया है? क्या उन्हें मुस्लिम नटों या बुनकरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा है?
इन सवालों से देश के कथित धर्मनिरपेक्ष नेता आंख चुराते हैं क्योंकि इस तरह के सवालों का जवाब देने से इस समुदाय के संवैधानिक अधिकारों की बहाली होगी। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता का समीकरण बदल जायेगा। इसीलिए आज ऐसी दयनीय स्थिति के बाद भी यह लोग अपनी गलती को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। जो लोग अपनी वास्तविक स्थिति का आकलन करने में असमर्थ हैं तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है? ऐसे में मुसलमानों को किसी का खेवनहार बनने की कोई ज़रूरत नहीं है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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