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लिखने होंगे सलाखों के पीछे झुलसते बहुजनों की कहानियां

यह भारत की एक ऐसी सच्चाई है जिस पर शायद ही कभी विचार किया गया हो। बहुजन समाज के उत्पीड़न में पुलिस की भूमिका, विचाराधीन, सज़ायाफ़्ता और उम्रक़ैद तथा फांसी की सज़ा पाये लोगों को कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा गया कि क्या वास्तव में उनकी जीवन-स्थितियां अपराध के नजदीक हैं? सवाल उठा रहे हैं रामजी यादव

बहस-तलब

उत्तर प्रदेश के वाराणसी से छपने वाले दैनिक हिंदुस्तान के दिनांक 8 नवंबर, 2020 के अंक के पेज नंबर छह पर ‘फाइलें क्या जलीं, सलाखों के पीछे झुलस रहा जीवन’ शीर्षक से प्रकाशित एक समाचार ने मुझे उन आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, मुसहरों और गरीब मुसलमानों की फिर से याद दिला दी जो बेकसूर होने के बावजूद बरसों जेल में सड़ते रहे और अंत में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। न जाने कितनों का परिवार बर्बाद हो गया और जब जेल से बाहर आए तो चारों तरफ उदासी और अंधेरा ही था। अदालत ने तो बेकसूर करार कर दिया लेकिन उस सामाजिक पर्यावरण से वे कैसे लड़ेंगे जो उनकी निर्योग्यताओं को जाति और धर्म के चश्में से देखता है? छपे समाचार के अनुसार बनारस से सटे चंदौली के जिला कारागार में बंद चौदह कैदियों की जिंदगी इसलिए आधार में लटक रही है क्योंकि आग लगने से उनकी फाइलें जलकर रख हो गईं और अब पता ही नहीं है कि उनके ऊपर क्या धाराएँ लगाई गई थीं। 

उल्लेखनीय है कि इनमें से बारह लोग नक्सली गतिविधियों में शामिल होने के जुर्म में पंद्रह से बारह वर्षों से जेल में हैं। दो लोग क्रमशः आठ और चार साल से जेल में बंद हैं, लेकिन बताया जा रहा है चंदौली कोर्ट में दो बार आग लगी थी, जिसमें इन सबकी फाइलें जल गईं और उनके मुकदमे की जिरह और बहस के सारे साक्ष्य स्वाहा हो गए। अब फिर से ट्रायल शुरू किया जा रहा है। 

समाचार के अनुसार एक बार 2009 में और दूसरी बार 2017 में चंदौली कोर्ट में आग लगी थी। इन कैदियों का सारा रिकॉर्ड जल गया। आश्चर्य है कि एक बार आग लगने के बाद दूसरी बार फिर से रिकॉर्ड बनाया गया और दूसरी बार भी जल गया। इसका मतलब है कि कोर्ट में अग्निरोधी व्यवस्था नहीं है, लेकिन खबर के अनुसार केवल चौदह लोगों का ही रिकॉर्ड जला। बाकियों के रिकॉर्ड के बारे में कुछ पता नहीं। गौरतलब है कि ये चौदहों बंदी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी समाज से आते हैं और इन्हें नक्सली गतिविधियों में शामिल होने के अपराध में गिरफ्तार किया गया है। नंदलाल, नंदू कोल, मनोहर, पप्पू विश्वकर्मा को पंद्रह साल से जेल में रखा गया है। सनी, राकेश उर्फ भोला पाल चौदह साल से जेल में बंद हैं। छोटेलाल, करीमन, मूसा उर्फ सलीम, राजू गोंड और पीयूष कुशवाहा तेरह साल से विचाराधीन कैदी बने हुए हैं। सूरजमन उर्फ सोखा बारह साल, अजीत कोल आठ साल और कमलेश उर्फ सुनील चार साल से जेल में बंद हैं और इन सबकी फाइलें जल चुकी हैं। 

अखबार के मुताबिक, इन सबकी स्थितियां अत्यंत हृदयविदारक हो चुकी हैं। उनके घरवालों ने अब उनकी खोजख़बर लेना छोड़ दिया है और कइयों का परिवार बिखर चुका है। कई तरह की मानसिक, शारीरिक बीमारियों ने उन्हें दबोच लिया है। सनी अर्धविक्षिप्त अवस्था में रहने लगा है और अक्सर खंभे और पेड़ पर चढ़ जाता है। अब ये लोग चाहते हैं कि उन्हें सज़ा हो जाय तो वे उसे काटकर बाहर निकलें। 

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यह भारत की एक ऐसी सच्चाई है जिस पर शायद ही कभी विचार किया गया हो। बहुजन समाज के उत्पीड़न में पुलिस की भूमिका, विचाराधीन, सज़ायाफ़्ता और उम्रक़ैद तथा फांसी की सज़ा पाये लोगों को कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा गया कि क्या वास्तव में उनकी जीवन-स्थितियां अपराध के नजदीक हैं? क्या उनके जीवन की सीमाएं तथाकथित सभ्य समाज के मुक़ाबले अधिक खतरनाक हैं, जहां जुर्म एक स्वाभाविक प्रक्रिया है या फिर कुछ और बातें हैं। क्या उनका उत्पीड़न पुलिस और व्यवस्था के लिए सहज है और अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए वे उनका बेरहमी से शिकार करती है? क्या अपने हक के लिए आवाज उठाने की किसी भी कोशिश करने वालों को दबाने के लिए पुलिस, जेलों और अदालतों की व्यवस्था को अधिक षड्यंत्रकारी बनाया गया है? स्थिति बहुत ही संगीन है और एक लाख से अधिक ज़िंदगियां इसी तरह निरपराध आधार में लटक रही हैं । 

देश के विभिन्न जेलों में बंद कैदियों में 70 फीसदी हैं विचाराधीन (तस्वीर साभार : ईपीडब्लयू)

मूलनिवासीवाद, शूद्रवाद और इस तरह के दूसरे आंदोलनों ने कभी इन जीवित प्रश्नों पर विचार नहीं किया और न ही इन सब पर सुचिन्तित रूप से कुछ लिखा गया। कहानियों में तो खास तौर से यह विषय गायब रहा। क्या किसी अग्रगामी और भविष्योन्मुखी साहित्य का महत्व ऐसे जीवन के वास्तविक चित्रण के बगैर हो सकता है? न जाने कितनी पीढ़ियों ने जेलों में दम तोड़ दिया। जघन्य से जघन्य अपराधियों को जमानत और रिहाई मिल जाती है लेकिन जिनके खिलाफ सुनियोजित षड्यंत्र बुना जाता है, उनकी रिहाई असंभव होती जाती है। जिस दिन इस बात की ओर गंभीरता से ध्यान जाएगा उस दिन बहुजन आंदोलन और साहित्य दस कदम आगे बढ़ जाएगा। फिलहाल तो उसे अनेक जालों में लपेट दिया गया है!

आइये पढ़ते हैं बनारस जिले के ऐसे ही एक अभागे अक्कर मुसहर की कहानी–  

चींटी भी नहीं मारी और हाथी मारने की सजा पाई 

अक्कर को शायद ही कभी इस बात का इलहाम हुआ होगा कि जिंदगी में उसके साथ क्या होने जा रहा है । वह आज भी नहीं जानता कि वास्तव में उसने क्या जुर्म किया है कि उसे गिरफ्तार किया गया और उस पर हत्या, आर्म्स एक्ट और गैंगस्टर एक्ट जैसी अनेक संगीन धाराएँ लगा दी गईं। इसके फलस्वरूप उसने अनेक वर्ष जेल में गुजारा और उसका परिवार भी तहस-नहस हो गया। आज भी उसका जीवन भय के साए में है।

अक्कर मुसहर वल्द नखडू मुसहर उत्तर प्रदेश के जिला वाराणसी, थाना फूलपुर, तहसील पिंडरा के गाँव खरगपुर का निवासी है। वह दलितों में भी दलित मुसहर जाति का सदस्य है जो प्रायः जंगल और जमीन से जुड़े काम करती है। खेत मजदूरी, दोने-पत्तल बनाना, लकड़ी काटना और इसी तरह के दूसरे कामों से इसकी गुजर-बसर होती है। स्वयं अक्कर भी खेत-मज़दूरी और ईंट भट्ठे के मौसम में वहां काम करता था। हालांकि घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चलता था लेकिन फिर भी उसे संतोष था। उसके परिवार में उसकी पत्नी और बेटी के अलावा एक भाई भोनू था। 

सन 2008 की बात है। अक्कर अपनी ससुराल कूड़ी सत्तनपुर गया हुआ था। रात का खाना होते-होते नौ बज गए। अभी वह कुछ ही निवाले तोड़ पाया होगा कि द्वार पर हलचल हुई। कोई उसके बारे में पूछ रहा था। उसे हैरानी हुई। बिना भोजन समाप्त किये ही वह बाहर निकला। द्वार पर पुलिस की दो जीपें खड़ी थीं और दरोगा भुल्लन यादव करीब एक दर्जन सिपाहियों के साथ वहां मौजूद थे। उन्होंने अक्कर से उसका नाम पता  पूछा—तू कौन है बे?

“साहब हम अक्कर हूं। हियाँ अपने ससुरारी में आया हूं।”

अचानक भुल्लन ने साथी सिपाहियों को इशारा किया – “ससुरारी!”

अक्कर अभी कुछ समझ पाता कि पांच-छः सिपाहियों ने उसे घेर कर उसकी बाहें ऐंठ ली। यह देखकर अक्कर घबरा गया और हकलाती हुई आवाज में घिघियाकर कहने लगा – “हमके काहें पकड़त हैं साहेब। हम तो कुछ किये नाहीं। मजूर मनई हैं। हियाँ पूछ लेव जब हम किसी के आधी बात कभी कहा हूं। हमरे गांव में भी पता करो कि हम कस मनई हैं। अपने काम से काम। न उधौ का लेना न माधो का देना।”

इस कैफ़ियत पर अक्कर को एक झन्नाटेदार तमाचा मिला – “चुप्प!” एक सिपाही ने जातिसूचक और मां को दी जाने वाली गाली देते हुए डांटा।

एक अन्य ने कहा – “चल हम तोरे गांव ही ले चल रहे हैं।”

उसे जबरन बिठा लिया गया और जीप चल पड़ी। 

लेकिन अक्कर के गांव की बजाय जीप कहीं और दौड़ी जा रही थी। पुलिसकर्मियों से घिरा हुआ अक्कर कुछ समझ नहीं पा रहा था कि उसे कहां ले जाया जा रहा है? उसका दिल घबराहट से बैठा जा रहा था। पूरा शरीर थर-थर कांप रहा था, लेकिन अब फिर किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। 

जीप कैंट थाने में पहुंची। उस समय रात के साढ़े दस बज रहे थे। अक्कर को उतार कर हवालात में डाल दिया गया। बगल में ही शौचालय था, जिसकी असहनीय बदबू से नथुने फटे जा रहे थे। ऊपर से मच्छर लगातार हमले कर रहे थे। दोनों से बचाव असंभव था। हवालात में जाने से पहले ही अक्कर की लुंगी और गमछा उतरवा लिया गया था। न उसे कोई कम्बल दिया गया न ही कोई चादर ही। वह गिड़गिड़ाकर पुलिसवालों से एक चादर मांगता रहा लेकिन किसी ने उसकी फरियाद नहीं सुनी। सब तरफ से बेहाल अक्कर ने वह यातनाकाल बैठकर पूरा किया। 

अक्कर को समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्यों इस तरह पकड़ा गया? उसने कौन सा जुर्म किया? इसी तरह सोचते सोचते रात बीत गई? 

सुबह हुई तो अक्कर को लगा शायद आज उसे छोड़ दिया जाय। इंतज़ार करते-करते नौ बज गए। प्यास के मारे गला सूखने लगा था। काश कोई एक लोटा पानी दे देता! एक कुल्हड़ चाय मिल जाती तो कितना अच्छा होता। भूख भी लग रही है। सारी रात भर मच्छरों ने खून चिंचोर लिया है। एकदम हगनहर के पास लाकर पटक दिया। पुलिस वाले तो दऊ राजा हो गए। सरकरी आदमी हैं। क्या कहूं।

इन्हीं विचारों में खोये अक्कर को अचानक किसी ने पुकारा तब उसकी तन्द्रा टूटी। एक पुलिसवाला दरवाजा खोल रहा था। फिर उसने वहीं से आवाज दी – “चल रे।”

अक्कर झटपट उठ खड़ा हुआ और हवालात से निकल कर पुलिसवाले के पीछे चलने लगा। वह उसे लेकर बड़े हाल मन आया जहां दीवार के सहारे लगी एक बड़ी मेज़ के सामने मुंशी और दो-तीन अन्य सिपाही बैठे थे और हाल के बीचोंबीच सीओ साहब अपनी कुर्सी पर आराम से अधलेटे थे।

अक्कर को लाने वाले सिपाही ने एक पोटली लाकर उसे थमा दिया। अक्कर ने उसकी ओर सवालिया निगाह से देखा – “यह क्या है साहब?”

“आंय!!” अक्कर के हाथ से पोटली छूटकर गिर पड़ी। वह थरथर कांपने लगा – “हमरे पास ई गठरी कहां रही साहब। हम तो खाली लुंगी और गंजी पहिन के आये रहे। हमरे कांधे पर एक ठे गमछा रहा ऊहो आप लोग ले लिए।”

उस पुलिसकर्मी ने अचानक अक्कर के गाल पर तमाचों की बरसात कर दी। बोला – “बुजरव के सार, मुसहर … हम झूठ बोल रहा हूं। आंय। बोल साले हम झूठ कह रहे हैं? हम कह रहे हैं न यह तुम्हारे पास से बरामद किया है। तो इसका मतलब बरामद किया है। अब कहां से बरामद किया कैसे बरामद किया इसके बारे में ढेर सयानापंथी मत दिखाओ। चुपचाप मान ले कि हम ई दो किलो गांजा तेरे पास से बरामद किये हैं।”

अपनी बात ख़त्म करते हुए उसने अक्कर की कमर पर एक लात मारी और वह गिर पड़ा। हाल में मौजूद सारे पुलिसकर्मी मुस्कराने लगे। अक्कर को कुछ समझ में नहीं आया कि उसके साथ यह क्या हो रहा है। उसने तो कभी गांजा देखा भी नहीं। फिर दो किलो गांजा वह कहां से लाएगा। वह चीख कर कहना चाहता था कि साहेब यह गांजा मेरा नहीं है लेकिन वह चारों ओर से घिरा था और अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि कुछ कह सके बल्कि अब तो उसके सामने अपने परिवार और पत्नी की चिंता अपना आकार बढ़ाने लगी थी। पता नहीं वे लोग कैसे होंगे? उनको यह खबर मिलेगी तो उनपर क्या गुजरेगी। 

“उठता क्यों नहीं रे गैंड़ा। सरऊ भैंसे की तरह क्या ढेंगलाये हो रे। चल दस्खत कर।” उसी सिपाही ने फिर उसे डांटा। आखिर अक्कर उठ गया और मुंशी ने एक लिखे हुए कागज़ पर जबरन उसका अंगूठा लगवा लिया।

उसी दिन अक्कर को वाराणसी कचहरी में पेश किया गया। पुलिस का आरोपपत्र देखकर जज ने उसकी जमानत नामंजूर करते हुए उसे चौकाघाट जिला कारागार भेज दिया। 

सत्तनपुर से उठाये जाने के बाद से अक्कर के घरवालों और रिश्तेदारों को कोई पता ही नहीं चल पाया कि वह कहां है? और अब उसे पन्द्रह दिन के लिए जेल भेज दिया गया था। जब घर वालों को कोई पता ही नहीं था तब पुलिस वाले क्योंकर बताते कि अक्कर कहां है?

लेकिन अक्कर की फजीहत का यह अंत नहीं था। पंद्रह दिन बीतते न बीतते फिर उसे चौकाघाट जेल से तलब किया गया और पुलिस की बनाई चार्जशीट में इस बार उस पर धारा 302 और 396 के तहत मुकदमा किया गया। उसपर आरोप था कि उसने जलालपुर के किसी राजभर की हत्या की है। बेशक अक्कर उस राजभर का नाम तक नहीं जानता था, उससे मिलना तो दूर की बात है। लेकिन उत्तर प्रदेश की सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान पुलिस के मुताबिक हत्या अक्कर ने ही की थी। 

अब फिर से अक्कर जेल की कालकोठरी में था। वह छटपटाकर रह जाता। उसे अपनी पत्नी और बच्ची की बहुत याद आती और वह रोता लेकिन उन बंद दीवारों के बीच उसकी रूदाद किसी को नहीं सुनाई पड़ती थी। उसे दरोगा भुल्लन यादव के अत्याचार याद आते जिसने उसको कहीं का न छोड़ा। लेकिन अक्कर के दुखों का यह भी अंत नहीं था।

पंद्रह दिन बाद ही उसे फिर एक हत्या के मुक़दमे से नवाज दिया गया। इस बार उसने झंझौर के मटक पंडित की हत्या की थी। उसको पुलिस ने अपने मनमाने अत्याचारों से तबाह कर दिया। उसको जातिसूचक गालियां दी जातीं और मारा जाता। जेल में उससे जबरन पखाना साफ़ करवाया जाता और लगभग सभी का मानना था कि अभाव में रहना, गाली-मार सहना और गन्दगी साफ़ करना तो मुसहरों के लिए कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। इस बार उसके ऊपर चोलापुर थाने की ओर से गैंगस्टर एक्ट लगाया गया और जेल में रहने की उसकी अवधि लगातार बढती गई। वह कई साल जेल के अन्दर अनेक मुकदमों के विचाराधीन कैदी के रूप बंद रहा। उसके घरवालों को उसके बारे में कोई जानकारी न थी। गरीबी ने उसके जैसे लाखों लोगों के लिए रोज कुंआ खोदने और पानी पीने की कड़ी दिनचर्या तय की है और इसमें जरा भी ढील या कोताही फाकाकशी के मैदान में उन्हें ला पटकती। ऐसे में बंदी प्रत्यक्षीकरण के जरिये परिवार वालों द्वारा अक्कर को तलाशने की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

इन वर्षों ने अक्कर का लगभग सबकुछ छीन लिया। हालांकि जेल से बाहर अपने परिवार के ऊपर आने वाली स्थितियों का उसे अंदाज़ा नहीं था लेकिन परिवार की याद में उसने अपनी आंख के सारे आंसू खर्च कर दिए। किसी तरह अक्कर का पता चलने पर उसके बड़े भाई भोनू ने लोगों से ऋण-कर्ज लेकर उसकी जमानत कराई। 

और जब अक्कर बाहर निकला तो उसके दुर्भाग्य की कई सूचनाएं उसकी राह देख रही थीं। उसकी पत्नी घर छोड़कर किसी और के साथ चली गई थी। उसकी एकमात्र बेटी बिना मां-बाप के रह रही थी। यह सब देखकर अक्कर बुरी तरह टूट गया। उसके लिए इस दुनिया में जीने का कोई अर्थ ही न रह गया। उसको लगा इस जीवन से तो जान देना ही बेहतर है लेकिन बेटी को देखकर उसने नए सिरे से जीने का निर्णय किया। 

लेकिन अब वह पहले वाला अक्कर नहीं रह गया था। वह बुरी तरह ध्वस्त हो चुका था। उसका मन पूरी तरह अवसादग्रस्त था। अपने ऊपर हुए पुलिसिया अत्याचार से वह इस कदर खौफज़दा था कि उसे रात-रात भर नींद न आती। उसे लगता न जाने उसने कितने अपराध कर डाले हैं कि पुलिस कभी भी उसे पकड़ कर ले जा सकती है और फिर उसे पूरी ज़िन्दगी जेल में बितानी पड़ेगी। इसी डर के मारे वह एक दिन अपने घर से अपनी बहन के घर त्रिलोचन महादेव के पास सहनी गांव में जाकर रहने लगा।

सन 2011 की एक रात फूलपुर थाने से उसके घर पुलिस की एक जीप आई। दरोगा ने अक्कर के भाई से अक्कर के बारे में पूछा। भोनू ने बताया कि अब वह यहां नहीं रहता। पुलिस ने अक्कर के पीछे अपना मुखबिर लगा दिया और एक-दो दिन बाद ही पता लगने पर कि अक्कर अपनी बहन के यहां रहता है पुलिस सदल-बल वहां धमक पड़ी। साथ में मुखबिर नारायण भी था। 

अक्कर को फिर से उठा लिया गया। थाने पर लाकर लाठी-डंडे और बेल्ट से उसकी बेतहाशा पिटाई हुई। हाथ-पांव, पीठ और कमर पर असंख्य काले निशान बन गए। जब वह एकदम बेहाल हो गया तो चार दिन बात उसके ऊपर गजोखर साधू की हत्या के प्रयास का आरोप लगाकर उसके पास से एक कट्टा बरामद दिखा दिया गया और धारा 460, 307 और 25 के तहत उसका चालान कर दिया गया। उसे कोर्ट में पेश किया गया और जमानत नामंजूर होने पर फिर से चौकाघाट जिला कारागार भेज दिया गया।

चौकाघाट जिला कारागार में 24 महीने रहने के बाद अक्कर की जमानत हो गई और वह छूटकर फिर से अपने गांव खरगपुर आ गया। उसके भीतर अपने ऊपर हुए अत्याचारों से पुलिस प्रशासन के विरुद्ध गहरा गुस्सा है लेकिन कुछ सवाल तो इतने सहज ढंग से अपना आकार बढ़ाते जा रहे हैं जिनका जवाब बहुत ही मुश्किल है।

मसलन, अक्कर के ऊपर गांजा तस्करी, और तीन-तीन हत्याओं के साथ ही गैंगस्टर जैसे अपराध की अनेक खतरनाक धाराएं लगाई गईं। माना जाता है कि जेल अपराध के पौधे को पेड़ बनाते हैं और सामान्य व्यक्ति भी कुशल अपराधी होकर इतना पैसा बना लेता है कि दुनियादारी और भौतिक सुखों के साथ अपनी सुरक्षा के अनेक उपाय भी कर लेता है। अपने अनुभवों के आधार पर वह पुलिस से डरना लगभग छोड़ देता है। 

लेकिन अक्कर मुसहर अभी भी पिंडरा ब्लॉक के खरगपुर गांव में खेत मजदूरी करता है। उसके पास मात्र अपना एक झोपड़ा है और वहां गरीबी से अभिशप्त कोई व्यक्ति ही रह सकता है। 

आज भी रात को कहीं रोशनी चमकती है तो वह डर के मारे चौंककर उठ जाता है और यह सोचने लगता है कि पुलिस उसे पकड़ने आ रही है!

कहानियां और भी हैं। इतनी हैं कि कहते-कहते कलमकार खत्म हो जाएगा, लेकिन कहानियां खत्म नहीं होंगीं।

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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