बहु-जन दैनिकी
आईसीएचआर सेमिनार : राजा भोज के बहाने पिछड़ों का अपमान
दूबारा सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने कहा है कि वह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में खाली पड़े पांच लाख पदों को भरेगी। सरकार की इस घोषणा के बाद अकादमिक जगत में हलचल है। शोधार्थीगण धड़ाधड़ पीएचडी जमा करवा रहे हैं, यूजीसी लिस्ट में शामिल पीयर रिव्यू जर्नल्स में संपर्क भिड़ा रहे हैं, तथा अपने खेमे को गुरूओं के आसपास मंडरा रहे हैं। इसके साथ भांति-भांति के सेमिनारों के आयोजनों का सिलसिला भी तेज हो गया है।
ऐसा ही एक सेमिनार 30-31 अगस्त, 2019 को भोपाल में होने जा रहा है। सेमिनार विषय है – ‘राज भोज : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा साहित्य, कला, स्थापत्य, नगर नियोजन आदि में योगदान एवं वर्तमान में प्रासंगिकता’। सेमिनार का आयोजक धरोहर नामक एनजीओ और प्रायोजक है कभी इतिहास के क्षेत्र में प्रतिष्ठित रही सरकारी संस्था ‘भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्’ (आइसीएचआर)।
सेमिनार के आयोजक एनजीओ ने सेमिनार के लिए शोध-पत्र आमंत्रित करते हुए एक पर्चा जारी किया है। संस्था ने अपने पर्चे में राजा भोज (भोजदेव,11 वीं शताब्दी) की प्रशस्ति करते हुए लिखा है कि “राजा भोज आज भी अनुकरणीय हैं, प्रासंगिक हैं। लगभग एक हजार वर्ष बीत जाने पर आज भी किसी उच्च कोटि के व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए तुलनात्मक रूप से कहा जाता है कि कहां राजा भोज, कहां गंगु तेली”।
पर्चे में दावा किया गया है कि उनकी संस्था से जुडे लोग पुरात्वविद् और इतिहासकार हैं। क्या इन विद्वानों को यह नहीं पता कि उपरोक्त लोकोक्ति इस देश की एक जाति का अपमान करने के लिए गढी गई है? तेली एक निम्न-वैश्य श्रमशील जाति है, जो अधिकांश राज्यों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल है। ब्राह्मण धर्मग्रंथों में इन्हें भी अछूतों और शूद्रों की तरह हीन कहा गया है तथा प्रात:काल में इनका मुंह देखने को अपशकुन माना गया है। भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसी तेली (घांची) जाति से आते थे। तेल निकालने और उसका व्यापार करने वाली जाति को औष्ट्रिक भी कहा गया है। इतिहास के अनेक मोड़ों पर यह जाति ब्राह्मण वर्चस्व से लड़ती रही है। ब्राह्मण देवताओं के पूंज से निर्मित हिंदू-देवी दुर्गा से अथक संघर्ष करने वाले महिषासुर को भी कई जगहों पर औष्ट्रिक बताया गया है।
जबकि राजा भोज देव परमारकालीन राजवंश के नवें शासक थे। उनका राज्य मुख्यत: मालवा में था। परमार राजपूत उन्हें अपनी जाति का बताते हैं। इतिहास के अनुसार उन्होंने ब्राह्मणों के कल्याण के अपने खजाने खुले रखे तथा अनेकानेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया था। कुछ पुराणविदों का मत है कि राजा भोज की ही भांति गंगू तेली भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। उनके अनुसार गंगू एक नहीं बल्कि दो व्यक्तियों के नाम हैं, जो दक्षिण के राजा थे। गंगू, कलचुरि नरेश गांगेय थे जबकि तेली, चालुक्य नरेश तैलंग थे। एक बार गांगेय और तैलंग ने मिल कर राजा भोज से पराक्रमपूर्व भीषण युद्ध किया था। गौर तलब है कि गांगेय (गंगवार) और तैलंग (तेली) दोनों पिछड़ी जातियां हैं।
क्या किसी जाति को अपमानित करने वाली लोकोक्ति का एक अकादमिक विषय के पर्चे में इस प्रकार उल्लेख उचित है? तेली जाति से आने शोधार्थी अगर इस सेमिनार में भाग लेना चाहेंगे तो उन्हें कैसा महसूस होगा? यह मुहावरा सिर्फ जाति-विशेष तक सीमित नहीं। जातीय श्रेणीक्रम में सामाजिक तौर निम्न मानी जाने वाली सभी जातियों के लिए यह मुहावरा इस्तेमाल किया जाता रहा है। दलित-बहुजनों को उनकी औकात बताने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला यह प्रचलित मुहावरा रहा है।
दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के प्रोफेसर चंद्रभूषण गुप्त इस पूरे प्रसंग में टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि “उच्च अध्ययन व शोध से संबंधित संस्थाओं में जातिवाद बहुत गहन रूप से व्याप्त है। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में उसी की मुखर सार्वजनिक अभिव्यक्ति हो रही है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के सहयोग से राजा भोज पर आयोजित इस सेमिनार का यह पर्चा उसी की एक बानगी है। हालत यह है कि मैंने खुद को भाजपाई बताने वाले प्रोफेसरों को भी यह कहते सुना है कि – कहां चितपावन (ब्राह्मण) मोहन भागवत और कहां तेली नरेंद्र तेली ( मोदी)!” प्रोफसर गुप्त का कहना है कि इस तरह के आयोजनों पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए तथा जातिवादी शब्दावली का उपयोग करने वाले लोगों तथा संगठनों पर समुचित कार्रवाई करनी चाहिए।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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