हिंदू राष्ट्रवाद के मौजूदा उग्र विमर्श के समय, या ठीक इसके बीच, बहुत अहम हो जाता है कि देश के लोग इस पर गहराई से सोचें। ऐसा भी नहीं है कि इसके समानांतर कोई बहस नहीं चल रही है, लेकिन जो बहस चलती है वो बहुत मजबूत होने के बावजूद जनमानस में पैठ बनाने में सक्षम नहीं है क्योंकि ऐसे भ्रामक सूचना और सत्ता-संस्थान के कई प्लेटफार्म इस समय बहुतायत में हैं, जो उसकी हवा निकालने में देर नहीं लगाते हैं। और हैरानी तो तब होती है जब दक्षिणपंथी वैचारिकी में कोई ऐसा मजबूत आधार नहीं है जो ठोस काट रखता हो।
इस विसंगति के बारे में ज्यादा चर्चा और इसके हल की कोशिश के तौर पर प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस के द्वारा मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई 1880-8 अक्टूबर 1936) की जयंती के मौके पर समारोह का आयोजन महत्वपूर्ण हो जाता है। गौरतलब है कि वर्ष 1986 में हंस के भूतपूर्व संपादक राजेंद्र यादव ने मुंशी प्रेमचंद की जयंती आयोजित करने की परंपरा शुरू की। इस प्रकार इस वर्ष हंस के द्वारा 34वीं बार जयंती समारोह का आयोजन किया जा रहा है।
यह समारोह हंस पत्रिका की ओर से 31 जुलाई को नई दिल्ली के आईटीओ के पास गालिब इंस्टीट्यूट में आयोजित किया गया है। “राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल” विषय पर इस समारोह में देश की कुछ जानी-मानी हस्तियां अपने विचार रखेंगे जिनमें इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के निदेशक मकरंद परांजपे, प्राख्यात साहित्यकार व जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, हैदराबाद के कुलपति फ़ैज़ान मुस्तफ़ा, अंग्रेजी मासिक ‘द कारवां’ के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल और सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज की प्रोफेसर अनन्या वाजपेयी शामिल हैं।
यह किसी से छिपा नहीं है कि ये सभी हस्तियां मौजूदा दौर में आधुनिक भारतीय चिंतन परंपरा के वाहक हैं और इनमें सभी लोग संविधान की भावना के अनुरूप आज राष्ट्र या भारत नाम की संस्था को धार्मिक अनुयायियों की सोच के हिसाब से चलाने का पुरजोर विरोध करते हैं। लेकिन एक सवाल तब भी उठता है कि हमारे लोकतंत्र में सीधे और सरल शब्दों जब राष्ट्र की अवधारणा पर सारे संवैधानिक प्रावधान मौजूद हैं तो “राष्ट्र की पहेली” जैसा विषय या सवाल विमर्श के केंद्र में क्यों आया है? दरअसल, हाल के वर्षों में जिस तरह से हमारे लोकतंत्र की विधायिका से लेकर न्यायतंत्र और देश के संस्थानों से जैसे फैसले और नारे आए हैं वो संविधान को चुनौती देने वाले रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि जैसे वो संविधान को खत्म करने पर आमादा हों।
कार्यक्रम के आयोजक हंस पत्रिका के संपादक संजय सहाय का कहना है कि इस समारोह और विषय की इसलिए जरूरत महसूस होती है कि “हमने आज राष्ट्र का अर्थ ही गलत लगाना शुरू कर दिया है। राष्ट्र का मूल अर्थ एक समुदाय का होता है, जाति का होता है, उसकी कई परिभाषाएं हैं, एक देश में एक साथ कई राष्ट्र होते हैं, रह सकते हैं। आज के हिंदुस्तान में कई राष्ट्र यहां रहते हैं। राष्ट्र के बारे में ये बहुत साफ है कि उसकी एक भाषा होनी चाहिए, साझा सुख दुख और साझा यश और साझी संस्कृति होनी चाहिए। इतिहास भी साझा होना चाहिए। ये सब चीजें मिलकर राष्ट्र बनाती हैं। जाहिर है राष्ट्र एक अर्थ में आप समूह और जाति विशेष की बात कर रहे हैं। जब हम कहते हैं कि हम राष्ट्रवादी हैं तो आप देखेंगे कि कई लोगों ने इसे गलत तरीके से इस्तेमाल किया है जिससे भ्रांति पैदा होती है। एक देश में कई राष्ट्र रहते हैं। कोई कहे हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे, कोई कहे हम इस्लामिक राष्ट्र बनाएंगे, इसके कोई मायने नहीं हैं। राष्ट्र को ठीकठीक समझने के लिए बहुत जरूरत है। राष्ट्रवाद से ज्यादा हमारे लिए देशभक्ति ज्यादा उपयोगी है। हम एक अखंड देश बने ना कि एक अखंड राष्ट्र की ओर जाएं। वो कभी नहीं बन पाएगा। हिंदू कौम में भी एक साझा संस्कृति नहीं है। हिंदू धार्मिकता के संदर्भ में भी एक साझी संस्कृति नहीं है। इस समाज में आप साथ उठ-बैठकर खा भी नहीं सकते हैं। उस तरह से शादी ब्याह नहीं करते हैं। हिंदू होकर भी आपके संस्कार एकमय नहीं हैं, दूसरे (धर्म) की तो बात ही छोड़ दीजिए। ऐसे में आज तो शोर एक नकली राष्ट्रवाद का है। इसे उभारकर तो आप सिर्फ सत्ता में बने रहने चाहते हो। हिंदू राष्ट्रवादियों को नेस्तनाबूद करने के जैसे ख्याल से हमने यह विषय नहीं रखा है। हम तो अपने तर्क रखेंगे, अपनी बात कहेंगे। सफल होंगे तो होंगे।”
दरअसल, ताजातरीन मामलों में देखें तो देशभर में भीड़ हिंसा में सैकड़ों लोगों की मौतें, नागरिकता रजिस्टर बनाने की जल्दबाजी, शैक्षणिक संस्थानों में हिंदू विचारधारा के झंडाबरदारों को कोर्स में ठूंसना, जयश्री राम नारे की आड़ में हिंसा का डर पैदा करना आदि ऐसा सिलसिला चला है जिसके साथ-साथ तथाकथित हिंदू राष्ट्रवाद का नारा चलता है। यह सब राजनीतिक स्तर पर ही नहीं हो रहा है बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी ऐसे डर पैदा किये जा रहे हैं जो पहले नहीं थे। पिछले पांच सालों से ऐसा माहौल पैदा किया जा रहा है कि हिंदूवाद की हर करतूत को हिंदुइज्म नहीं बल्कि हिंदूनेस की अच्छाई की तरह लिया जाए। चाहे वह राष्ट्र के बारे में हैं या फिर चाहे खानपान और पहने ओढने की संस्कृति को लेकर है। जाहिर है इस स्थिति में जब देश की अखंडता और एकता पर खतरे आसन्न हों तो ठोस आधार वाले राष्ट्र की अवधारणा एक पहेली बनकर रह जाती है। इस समारोह से भविष्य के लिए उपयोगी विचार सामने आ सकते हैं।
हंसाक्षर ट्रस्ट ने यह आयोजन इफ्को और ग़ालिब इस्टीट्यूट की मदद से किया है। समारोह का संचालन साहित्यकार और जाने माने पत्रकार प्रियदर्शन करेंगे। कार्यक्रम शाम के पांच बजे से शुरू होगा। आयोजकों से 011 41050047 और 9810622144 पर संपर्क किया जा सकता है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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