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प्राचीन भारत के  सांस्कृतिक-सामाजिक टकरावों का समकालीन विमर्श

महिषासुर की व्यापक उपस्थिति बताती है कि भारत में एक विशाल समुदाय रहा है जो महिषासुर को अपना नायक मानता है। यह समुदाय किसी महान संस्कृति-सभ्यता और जीवन पद्धति का संवाहक था, जिसका विध्वंस किया गया

प्रमोद रंजन के संपादन में प्रकाशित किताब ‘महिषासुर : मिथक और परंपराएं’  एक ऐसी पुस्तक है जो प्राचीन भारत के  सांस्कृतिक टकरावों का विमर्श प्रस्तुत करती है। किताब में शामिल लेख और रिपोर्ट इस तथ्य को पुष्ट करते हैं कि अतीतकालीन भारत में  तीखा सांस्कृतिक टकराव हुआ। सुर और असुर संस्कृति में हुए संघर्ष में सुर संस्कृति ने बड़ी ही चालाकी से असुर संस्कृति का अपहरण करके असुरों पर वर्चस्व कायम कर लिया। उनकी हत्या की, उन्हें गुलाम बनाया और उन्हें जंगलों में खदेड़ खुद सत्ता और समाज पर काबिज हो गये।

गोंडी पुनेम दर्शन और महिषासुर  शीर्षक लेख में संजय जोठे लिखते हैं कि – “प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के गहन अध्ययन से लोकायतिक अर्थात प्राचीन असुरों और उसके बाद बौद्धों के बीच में ऐतिहासिक क्रम विकास का एक सीधा संबंध निर्मित होता दिखाई देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि असुर या लोकायतिक मूल सांख्य या तांत्रिक दर्शनों को मानने वाले मूलनिवासी समुदायों में ही लोकायत के रूप में एक भौतिकवादी दर्शन ने आकार लिया और संभवतः यही श्रमण परंपरा के लिए एक दार्शनिक आधार बनकर प्रकट हुआ। साथ ही इनमें इस लोक (इहलौकिक) के सुख की प्राप्ति (चार्वाक) और इस लोक के दुख की निर्जरा (बौद्ध) जैसे दर्शनों को भी ठोस भौतिकवादी आधार दिये। संभवतः यहीं असुर जनजातीय लोकायत, (जिसके माननेवाले सुदूर लंकावासी रावण और मेघनाद आदि भी थे।)  तंत्र और मूल सांख्य की अपनी प्रवृतियों में आरंभ में अल्पविकसित भेद या वही बाद में अपने पूर्णतः विकासित रूप बौद्ध धर्म के रूप में प्रकट हुआ। फिर शंभुशेक और महिषासुर सहित असुरों की संस्कृति को छल से नष्ट किया गया और ब्राह्मणवादी धर्म में आत्मसात कर लिया गया। बाद में इसी तरह से बुद्ध और कबीर को भी आत्मसात कर लिया गया। यह एक ऐसा सूत्र है जो प्राचीन भौतिकवाद और आधुनिक बौद्ध रहस्यवाद सहित मध्यकालीन संतों के भक्ति आन्दोलनों और उनके सनातन शत्रुओं को एक साथ एक सीधी रेखा में बांध देता है।” 

पुस्तक ‘महिषासुर : मिथक और परंपराएं’ का कवर पृष्ठ और पुस्तक में संकलित एक तस्वीर

संजय जोठे लिखते हैं कि – “यह लेख तीन दावे करना चाहता है। पहला यह कि देव-असुर संग्राम के बहुत पहले ही आर्य और कोयवंशी संग्राम हो चुका था। दूसरा दावा यह कि गोंडों के शंभुशेक, असुरों के महिषासुर और ब्राह्मणी धर्म के महादेव एक ही व्यक्ति या संस्था हैं और आज के शिव या शंकर उनका विकृत या ब्राह्मणीकृत रूप हैं। तीसरा दावा कि श्रमण दर्शन या पारीकुपार लिंगो का पुनेम दर्शन आपस में जुड़े हुए हैं।  बहुत बाद में गौतम बुद्ध इसी पुनेम दर्शन की आरंभिक प्रवृतियों और मान्यताओं पर अपने विस्तृत दर्शन का भवन खड़ा करते हैं। इसी कारण महिषासुर के मिथक सहित शंभुशेक, गोंडी धर्म, असुर, श्रमण, मातृसत्तात्मक, तांत्रिक या लोकायतिक दर्शनों पर और अधिक गहराई से शोध करने की जरुरत है।”

दरअसल यह किताब महिषासुर कौन हैं, इसी की पड़ताल करने के साथ ही यह स्थापित भी करती है कि महिषासुर असुरों के राजा थे, वे राक्षस नहीं थे। किताब में देशभर में फैले तथ्यों से यह साबित किया गया है कि असुर यहां के मूलनिवासी थे। उन्हें आर्यों ने जो द्विज संस्कृति के संवाहक थे छल-बल और षड्यंत्र से पराजित करके खत्म कर दिया या अपने में मिला लिया। उनके योद्धाओं की हत्या कर दी और जो अधीनता नहीं स्वीकार किए उन्हें जंगलों में खदेड़ दिया गया। 

हालांकि  किताब इस बात पर रोशनी नहीं डालती की जाति का उद्भव कैसे हुआ? लेकिन यह दावा करती है कि महिषासुर अनार्यों के पूर्वज थे, जो बाद में एक मिथकीय चरित्र बनकर बहुजन संस्कृति, जीवन-पद्धति और सभ्यता के प्रतीक पुरुष बन गए। किताब इस बात का भी खंडन करती है कि महिषासुर की हत्या किसी दुर्गा ने की है। बल्कि यह स्थापित करती है कि महिषासुर की हत्या एक षड्यंत्र के तहत की गई। दुर्गा कोई देवी नहीं, बल्कि असुर कन्या थी, जिसे साजिश के तहत महिषासुर की हत्या में शामिल किया जाता है और द्विज संस्कृति के पैरोकार कवि अपनी कविताओं से उसे देवी का रूप दे देते हैं। मार्कण्डेय पुराण और दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रंथ रचकर एक असुर कन्या को देवी दुर्गा के रूप में स्थापित किया गया है। 

प्रमोद रंजन ने अपने खोजपरक लेख महोबा में महिषासुर  में यह स्थापित करते हैं कि महोबा में एक नहीं, कई अवशेष हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि समाज का एक वर्ग आज भी महिषासुर- यानि भैंसासुर की पूजा करता है। चौकासोरा गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर स्मारक मंदिर है। इसी तरह गोरख पहाड़ी पर गोरख मंदिर स्थित है। इसमें मूर्ति नहीं केवल चबूतरा है। एक साधु से संवाद में इस बात का भी खुलासा होता है कि भादो महीने के छठे दिन महिषासुर की पूजा की जाती है। पूजा का कारण गाय-भैंसों की सुरक्षा ज्यादा माना जाता है। माना जाता है कि महिषासुर बीमार पशुओं को ठीक कर देते हैं। यादव लोग साल में एक बार महिषासुर की पूजा करते हैं। यह साधु यह भी बताते हैं कि इस क्षेत्र में दुर्गा पूजा करीब 25 साल पहले नहीं मनाई जाती थी।

महोबा के चौकीसोरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर का स्मारक (फोटो एफपी ऑन द रोड, 2017)

महोबा पहले हमीरपुर जिले में था। 1995 में इसे स्वतंत्र जिला बनाया गया। जिला बनने से पहले कुछ लोग दुर्गा को मानने लगे थे। साधु कहते हैं कि महोबा में गांव-गांव में महिषासुर की कहानी है। राजस्थान के झांझ में भी है। वहां वे कारसदेव के नाम से जाने जाते हैं। साधु बताते हैं कि मैकासुर, मनियासुर, कारसदेव, करियादेव सब एक ही हैं। यहां उन्हें ग्वालबाबा भी कहते हैं। यह पूछने पर कि लगता है यह परंपरा देव और दानवों की लड़ाई से जुड़ी है। इस पर साधु कहते हैं, हां-हां। दानव हैं यह । इनका प्रताप बहुत बड़ा है। बाकी परमात्मा जाने। इन साुध ने अपना नाम श्रीश्री 108 श्री घनश्यामदास त्यागी जी बताया है। कीरत सागर के तट पर भी प्राचीन मैकासुर मंदिर है। प्रमोद रंजन अपने खोजपरक लेख में यह साबित करते हैं कि महिषासुर की पूजा आज भी समाज का एक वर्ग करता है। वह कोई राक्षस नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने समुदाय की रक्षा किया। वे एक योद्धा थे। उनकी हत्या की गई है। 

असुर कौन हैं। क्या आज भी ये कहीं पाए जाते हैं। इसका जवाब नवल किशोर कुमार के लेख से मिलता है। छोटानागपुर के असुर  शीर्षक से लिखे लेख में वह बताते हैं कि झारखंड के गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड में आदिम आदिवासी असुर जनजाति के लोग रहते हैं। लुप्त होती असुर जनजाति की संस्कृति और उनके अस्तित्व पर संकट है। प्राचीन काल से ही उनका शोषण किया गया। उनकी जमीन जंगल और जल छीना गया। यह लूट आज भी जारी है। इसे छोटानागपुर के नाम से भी जानते हैं। बाक्साइट वाले इस क्षेत्र में एक तरह की लूट मची हुई है और बचे- खुचे असुरों को शोषण की प्रक्रिया के तहत खत्म किया जा रहा है। इस क्षेत्र को समझने के लिए रणेन्द्र का उपन्यास ग्लोबल गांव के देवता को भी पढ़ सकते हैं। रणेन्द्र ने विशुनपुर प्रखंड का बीडीओ रहते, इस क्षेत्र में काफी काम किया है।

अनिल वर्गीज अपने लेख राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्र : तलाश महिषासुर  की में बताते हैं कि राजस्थान से लेकर कर्नाटक तक में महिषासुर के होने के प्रमाण मौजूद हैं। जहां आज भी उनकी पूजा की जाती है। हां नाम अलग-अलग है। लेकिन मतलब एक ही है। हालांकि आज इन मंदिरों-स्मारकों का अस्तित्व खतरे में है। तेजी के साथ इन पर आधुनिक देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं और कब्जा किया जा रहा है। इस तरह एक प्राचीन संस्कृति को धर्म की आड़ में नष्ट करके हड़पा जा रहा है। 

पुस्तक छह खंडों में है। पहला खंड यात्रा वत्तांत का है जिसमें प्रमोद रंजन, नवल किशोर कुमार और अनिल वर्गीज के लेख हैं। जो महिषासुर के आज के भारत में पूजे जाने की खोज करते हैं और यह खोज इसकी पुष्टि करती है। दूसरे खंड में मिथक और परंपराएं हैं। इसमें संजय जोठे, सुषमा असुर, अश्विनी कुमार पंकज, गौरी लंकेश, वी.पी. महेशचंद्र गुरु, सिंथिया स्टीफन, नवलकिशोर कुमार एवं हरेराम सिंह, डीएन झा और डॉ. सिद्धार्थ के लेख है। यह खंड एक गंभीर विमर्श पर केंद्रित है। जो इतिहास, संस्कृति और दर्शन पर चिंतन-मनन करते हुए सुर-असुर, श्रमण-द्विज संस्कृति की विवेचना करता है।

तीसरा खंड है आंदोलन किसका, किसके लिए। इस भाग में अनिल कुमार ने महिषासुर आंदोलन की सैद्धांतिकी – एक संरचनात्मक विश्लेषण में बताया हैं कि भारतीय इतिहास को लेकर चार दृष्टियां मौजूद हैं। 

  1. औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि
  2. राष्ट्रवादी इतिहास दृष्टि
  3. वामपंथी इतिहास दृष्टि
  4. बहुजन इतिहास दृष्टि

अनिल कुमार महिषासुर आंदोलन को बहुजन इतिहास दृष्टि से जोड़ते हैं। वह इसे वामपंथी इतिहास दृष्टि से अलग मानते हैं। यह एक बहस का विषय भी हो सकता है। अनिल वामपंथी इतिहास दृष्टि की ओलाचना भी करते हैं। जबकि किताब में संजय जोठे लोकायत सांख्य और भौतिकवाद की चर्चा करते हैं। कालांतर में यह दर्शन वामपंथ से ही जुड़ते हैं। बहुजन भी वाम ही है, ऐसा मेरा मानना है। आज बिना वाम के बहुजन संस्कृति का कोई विमर्श पैदा ही नहीं हो सकता है। 

महिषासुर आंदोलन एक सकारात्मक पहल है। लेकिन इसका परिणाम किधर जाता है या जाएगा, यह बड़ा सवाल है। अतिराष्ट्रवाद की चुनौतियों के सामने यह आंदोलन कितना टीक पाएगा यह भी सवाल है। जिस बहुजन समाज के लिए यह आंदोलन उठा है, उसका बड़ा वर्ग अतिराष्ट्रवाद की चपेट में है। बेशक राष्ट्रवादी इस बहुजन समाज को अपने धर्म का हिस्सा तो मानते हैं लेकिन वे इनसे नफरत भी करते हैं। लेकिन प्रतीकों का इस्तेमाल करके इन्हें भरमाते भी हैं। 

झारखंड के गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के अमतीपानी गांव में असुर जनजातियों पर हिंदू संस्कृति थोपने की कोशिश। गांव में बने एक नवनिर्मित मंदिर के परिसर में लगे चापाकल से पानी भरतीं असुर जनजाति की महिलाएं (फोटो : एफपी ऑन द रोड, 2016)

ऐसे में बहुजन इतिहास दृष्टि राष्ट्रवाद के तूफान का सामना कैसे करेगी यह समय बताएगा? हालांकि यह चुनौती वाम दृष्टि पर भी है। यह  आरोप है कि वाम दृष्टि बाहरी है लेकिन हकीकत में सांख्य और चार्वाक लोकायत दर्शन वामधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब अतिराष्ट्रवादी या वैदिक संस्कृति के  संवाहक भौतिकवाद की चर्चा या आलोचना करते हैं तो वह सांख्य-चर्वाक और लोकायत की भी आलोचना कर रहे होते हैं। वाम को अपने देसी प्रतीकों और दर्शन की व्याख्या करके उन्हें अपनाना होगा। ऐसा करने से वाम दृष्टि बहुजन दृष्टि में समाहित समायोजित होगी। आने वाले समय में इसी की जरूरत है। क्योंकि अतिराष्ट्रवाद न केवल और घनीभूत होगा बल्कि पूंजीवाद का चरम रूप सामने आयेगा। 

मजदूर-कर्मचारी-अफसर और मालिक वर्ग में समाज का विभाजन होगा। ऐसे में जातियों में विभाजित समाज  पूंजीवाद का मुकाबला नहीं कर पाएगा, न ही कर पा रहा है। यही वजह है कि अतिराष्ट्रवाद के कंधे पर चढ़कर पूंजीवाद भारत में अट्टहास कर रहा है।

बहरहाल, अनिल लिखते हैं कि महिषासुर की व्यापक उपस्थिति बताती है कि भारत में एक विशाल समुदाय रहा है जो महिषासुर को अपना नायक मानता है। यह समुदाय किसी महान संस्कृति-सभ्यता और जीवन पद्धति का संवाहक था, जिसका विध्वंस किया गया। पहले तो इस सभ्यता व जीवन पद्धति से जुड़े लोगों और नायको के नामो-निशान को मिटाने की कोशिश की गई, जब इनमें पूरी सफलता नहीं मिली तो इन्हें बदनाम करने का व्यापक अभियान चला। इस अभियान का एक हिस्सा विभिन्न पुराणों और अन्य साहित्यिक कृतियों की रचना करना भी था। इन पुराणों के मिथकों के माध्यम से इतिहास को उलट दिया गया। इन पुराणों में महिषासुर और उनके अनुयायियों को नकारात्मक अर्थों मे राक्षस आदि का दर्जा दिया गया। यह सब कुछ धूर्तता और मक्कारी के साथ किया गया। यही वजह है कि महिषासुर के वंशजों के एक बड़े हिस्से ने धीरे-धीरे इन मिथकों के झूठ को सच मान लिया। वह लिखते हैं कि महिषासुर एक बुद्धिमान, न्यायप्रिय और लोक कल्याणकारी राजा का प्रतिमान हैं। 

खंड चार में सुरेश जगन्नाथ, विकास दुबे और कुमार मुकुल के लेख हैं जो असुरों के जीवनोत्सव, शापित असुर : शोषण का राजनैतिक अर्थशास्त्र और कौन हैं वेदों के असुर शीर्षक लेख संकलित हैं। 

खंड पांच साहित्य हैं। इस खंड में जोतीराव फुले की प्रार्थना, सांभाजी भगत का गीत, छज्जूलाल सिलाणा की रागिणी, कंवल भारती की कविताएं, रमणिका गुप्ता की कविताएं, विनोद कुमार की कविता और संजीव चंदन का नाटक असुरप्रिया शामिल है। यह सभी रचनाएं इस किताब के विमर्श को न केवल अलग रंग देती  हैं बल्कि उसे समझने में मदद करती हैं। 

खंड 6 परिशिष्ट है। इसमें महिषासुर से संबंधित तथ्य और लेखक परिचय है।

कुल मिलाकर 360 पृष्ठों की यह किताब अपने आप में एक आख्यान है। विमर्श-चिन्तन और दर्शन का एक नया नजरिया है। इस किताब के तथ्यों और इसके लेखों की स्थापनाओं को नकारना आसान नहीं है।

समीक्षित पुस्तक  : महिषासुर मिथक परंपराएं (लेखसंग्रह)

संपादक : प्रमोद रंजन

पृष्ठ संख्या : 360 

मूल्य : 250 रुपए (किंडल), 350 रुपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक डिस्ट्रीब्यूटर : मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

किंडल :  https://www.amazon.in/dp/B077XZ863F

( संपादन : सिद्धार्थ/नवल)


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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश तिवारी

ओमप्रकाश तिवारी उपन्यासकार, कहानीकार और पत्रकार है। इनके द्वारा लिखित नाटक ‘स्वप्न वृक्ष’ का कई बार मंचन हो चुका है। अभी हाल में उनका उपन्यास ‘अंधेरे कोने’ प्रकाशित हुआ है। विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में करीब 50 कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। ये नियमित तौर विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं

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