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कुंती देवी : एक कृषक स्त्री की संघर्ष गाथा

बुनियाद की ईटें अनदेखी रह जाती हैं। ऐसी ही एक अनदेखी ईंट को दुनिया के सामने लाने की कोशिश का नतीजा इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुंती देवी किताब है। कुंती देवी स्थानीय स्तर पर एक हद तक सावित्रीबाई फुले की प्रतिरूप सी लगती हैं। यह किताब स्त्री मुक्ति के संघर्षों के विभिन्न रूपों को भी सामने लाती है

वैसे तो स्वतंत्रता आंदोलन के दौर के इतिहास में महिला मुद्दों के लिए संघर्षरत महिलाओं की चर्चा ही कम मिलती है। उसमें भी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली, विशेषकर बहुजन महिलाओं के संघर्षों की चर्चा के लिए हमारे बौद्धिक दुनिया में हाशिए पर भी जगह नहीं है। जबकि विभिन्न मुद्दों को लेकर विविध रूपों में उनका संघर्ष जारी था। इसी तरह के एक संघर्ष का दस्तावेजीकरण है पुष्पा कुमारी मेहता की पुस्तक ‘इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुन्ती देवी’

यह पुस्तक बिहार की उस स्त्री की जीवन-कथा है, जिसके भीतर समाज को बदलने और महिलाओं को गरिमामय जीवन के लिए तैयार करने का ख्वाब जन्म लिया। उन्हें लगा कि यह ख्वाब महिलाओं के शिक्षित करके ही पूरा किया जा सकता है। कुंती देवी स्त्रियों को अनपढ़ नहीं देखना चाहती थीं। उनके भीतर आजादी के पूर्व ही आजादख्याली बसती थी। वह एक कृषक बाला थीं, जिन्होंने अपने कर्म से न सिर्फ बिहार राज्य के पूरे इसलामपुर क्षेत्र को प्रभावित किया,बल्कि स्थानीय स्त्रियों के लिए पूणे की सावित्रीबाई फुले की तरह प्रेरणा-स्रोत बन गईं। वह भी उस वक्त जब भारत ग़ुलाम था, चारों तरफ गरीबी थी, शिक्षा का घोर अभाव था, महिलाओं के लिए शिक्षा दूर की कौड़ी की तरह थी। कुंती देवी कड़ी मेहनत से स्त्रियों के बीच शिक्षा की रोशनी लेकर आईं, उनके भीतर जज्बा जगाया।


लेखिका पुष्पा कुमारी मेहता की लेखन शैली इस किताब को अत्यन्त रोचक एवं पठनीय बना देती  है। पुस्तक की नायिका कुंती देवी लेखिका की माता हैं। इसके बावजूद लेखिका ने लिखते हुए इसका ख्याल रखा है कि संवेदनाएं हावी न हो सकें। पुस्तक में आंखों-देखे  सच को लेखिका ने इस तरह प्रस्तुत किया है कि कुंती देवी का समग्र व्यक्तित्व जीवन्त रूप में सामने आ जाता है और उस समय का सारा परिवेश भी उजागर हो जाता है। लेखिका पुस्तक की नायिका की सहयात्री भी है। साहित्य में इस तरह की शैली कम ही देखने को मिलती है। वे उन हालातों को भी नहीं छिपातीं जो उन्होंने और उनकी माता यानी कुंती देवी ने भोगा और जीया।

इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुंती देवी किताब का कवर पृष्ठ

किताब के फ्लैप पर बताया गया है “ कुती देवी की कहानी 1930 के दशक दौरान बन रहे नए भारत की कहानी है।   उनका विवाह 8 वर्ष की ही अवस्था में केशव दयाल मेहता से हुआ। विवाह के समय मेहता की उम्र 18 वर्ष की थी। इस दंपत्ति को अपनी शिक्षा के लिए बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। नए बन रहे भारत को सबसे अधिक आवश्यकता शिक्षा और स्वास्थ्य की थी। अधिसंख्य आबादी इन दोनों अन्योन्याश्रित चीजों से वंचित थी। निरक्षरता और और बीमारियों का बोलबाला था। स्कूल और अस्पताल बहुत कम थे। नए भारत के निर्माण के आवश्यक था कि समाज में – विशेषकर पिछड़े- दलित समुदायों में जीवन के प्रति अनुराग उत्पन्न हो। यह तभी संभव था, जब लोग स्वस्थ और शिक्षित हों, विशेषकर महिलाएं और बच्चे प्रसन्न हों। इस कमी को पूरा करने के लिए कुंती देवी ने बिहार के नालंदा जिले के कतरीसराय और इसलामपुर कस्बे में बालिकाओं के लिए स्कूल की स्थापना की, जबकि उनके पति ने वहीं भारतेंदु औषधालय बनाया। इन सबके पीछे मकसद था – सामाजिक व लैंगिक भेदभाव की बीमारी का उन्मूलन तथा एक स्वस्थ भारत का निर्माण। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है, यह उनका तकिया कलाम था और स्वस्थ रहो, शिक्षित बनो, उनका नारा था।” समाज आगे बढ़े, यही सूत्र वाक्य रहा मेहता दंपत्ति, यानी लेखिका के माता-पिता का। आजीवन वे इसी सूत्र वाक्य का अनुपालन करते रहे। 

कुंती देवी और उनके पति वैद्य केशव दयाल मेहता

कुंती देवी का जन्म अक्टूबर 1924 ई.में पावापुरी के निकट  गोवर्धन बिगहा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम गनौरी महतो तथा माता का नाम विशुनी देवी था। कुंती देवी चार बहनें थीं। उनके सगे भाई नहीं थे। बहनों में उनका स्थान दूसरा था। कुंती देवी से उनके पति वैद्य केशव दयाल मेहता भी प्रभवित थे।  मेहता की प्रगतिशील सोच ने कुंती देवी को आगे बढ़ाया। यह उन दिनों एक क्रांतिकारी कदम था। गांव-जवार के हालात ऐसे थे कि महिलाएं भी पढ़ लिखकर कुछ कर सकती हैं, कोई सोचता भी नहीं था। 

अपने पति की तरह ही कुंती देवी पर गाँधी जी का बहुत असर था,वे स्वदेशी पर बल देती थीं। वे  स्वाध्याय कर शिक्षका बनीं थीं। स्कूल में वे बच्चियों को सरल से सरल तरीके से पढानें में विश्वास करती थीं। मानचित्र पर उनकी गजब की पकड़ थी। कुंती देवी ने एक साथ घर और स्कूल दोनों को बखूबी संभाला। वे छह संतानों की मां बनीं। इनमें चार बेटियां और दो बेटे थे। इस किताब की लेखिका पुष्पा कुमारी उनकी चौथी संतान थीं। इनके तन से प्रमोद रंजन का जन्म हुआ, जिन्होंने बड़े होकर हिंदी पत्रकारिता में  नाम कमाया और श्रमण-अर्जक-कृषक परंपरा को आगे बढाते हुए बहुजन साहित्य की अवधारणा दी। कुंती देवी इनकी नानी हैं।

हिंदी पट्टी में ऐसी बहुत कम पुस्तकों की रचना की गई है ,जिसमें एक स्त्री के सहारे कई स्त्रियों के सामाजिक योगदान को रेखांकित किया गया हो। जबकि यह एक बहुत बड़ा सच है कि स्त्रियों ने हमें या अपने परिवार व समाज को बदलने का काम हर युग में  किया है,पर उनके योगदान को पितृसतात्मक समाज हमेशा से नकारता रहा है। कुंती देवी का जीवन उस नकार का सटीक उत्तर था, जिसे इस किताब में रेखांकित किया गया है।

लेखिका पुष्पा कुमारी मेहता

पुस्तक की एक और खासियत इसका परिशिष्ट है। लेखिका ने अपनी और मां के बीच हुए पत्रों के जरिए संवाद को सामने रखा है। कुंती देवी की भाषा का प्रवाह और शुद्धता आज के बड़े हिंदी लेखकों के लिए भी एक नजीर है। एक छोटे से गांव में पैदा होकर, एक छाेटे से कस्बे तक सीमित रहने वाली कुंती देवी को बचपन में  शिक्षा पाने के लिए न अच्छे स्कूल मिले थे, न ही उन्होंने कभी विश्वविद्यालय का कभी मुंह देखा। उन्होंने स्वाध्याय कर अक्षर ज्ञान प्राप्त किया था, तथा स्वयं भी शिक्षिका बनी थीं तथा कई अन्य महिलाओं को पढ़ा कर उन्हें अपने बालिका-विद्यालय में शिक्षण कार्य के लिए प्रेरित किया था। इसके बावजूद उनके द्वारा हिंदी में लिखे गए इस पत्रों में  ऐसी प्रांजलता, कथात्मकता और वैचारिक प्रौढ़ता विद्यमान है, जिसे देखकर आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। अपनी मां की ही भांति घटनाओं को दर्ज करते समय लेखिका पुष्पा कुमारी मेहता ने भाषा का विशेष ख्याल रखती हैं। मगही के आंचलिक शब्दों के सही अर्थ को अपने पाठकों तक संप्रेषित करने के प्रति उनका सचेत श्रम अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है।  

उन्होंने अपनी माँ के विभिन्न पहलुओं को एक-एक कर इस तरह सामने रखा हैं, जिससे उस कालखंड से पाठकों को प्रत्यक्ष संवाद करने का अवसर मिल जाता है। उन्होंने बिन्दा देवी,  सीताराम,जगदीश हलवाई और उनकी मां ,महावीर माथुर, प्रह्लाद की मां के बहाने पूरे इसलामपुर की स्त्रियों व पुरुषों की सामाजिक-वैचारिक अवस्थिति, संघर्ष व तात्कालिक सामूहिक जीवन का आख्यान प्रस्तुत किया है, जिसमें आजादी के बाद के भारत की लाखों अनाम संघर्षशील स्त्रियों का इतिहास उपस्थित है।

पुस्तक : इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुंती देवी

लेखिका : पुष्पा कुमारी मेहता

प्रकाशक : द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली

संपर्क : +918130284314, ईमेल : themarginalised@gmail.com

मूल्य : 300 रुपए (सजिल्द)

अमेजन पर यहां से खरीदें : https://www.amazon.in/dp/9387441377/

(संपादन : सिद्धार्थ/नवल)


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लेखक के बारे में

हरेराम सिंह

'फारवर्ड प्रेस साहित्य एवं पत्रकारिता सम्मान : 2013’ से सम्मानित हरेराम सिंह कवि और आलोचक हैं। यह पुरस्कार फारवर्ड प्रेस पाठक क्लब, सासाराम की ओर से फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित बहुजन लेखक/पत्रकार की श्रेष्ठ लेख/रिपोर्ट के लिए दिया जाता है।

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