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जनक्रांति वीर नारायण सिंह को जैसा मैंने जाना : शंकर गुहा नियोगी

छत्तीसगढ़ के वीर नारायण सिंह की शहादत दिवस के मौके पर पढ़ें शंकर गुहा नियोगी के संस्मरण के मुख्य अंश, जिसके कारण वीर नारायण सिंह का संघर्ष इतिहास में दर्ज हो सका

वीर नारायण सिंह की शहादत दिवस (10 दिसंबर, 1857) पर विशेष

[आज हम याद कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के अमर शहीद वीर नारायण सिंह को, जिन्हें आज के ही दिन ब्रिटिश हुक्मरानों ने सन् 1857 को तोप से बांधकर उड़ा दिया था। उनके बारे में पहली बार विस्तृत जानकारी सन् 1979 में शहीद शंकर गुहा नियोगी द्वारा उजागर की गई। उन्होंने इस संबंध में ‘आज की पीढ़ी और वीर नारायण सिंह की वसीयत’ शीर्षक यात्रा संस्मरण लिखा, जिसे छत्तीसगढ़ माईन्स श्रमिक संघ द्वारा प्रकाशित स्मारिका ‘छत्तीसगढ़ के किसान युद्ध का पहला क्रांतिकारी शहीद वीर नारायण सिंह’ में शामिल किया गया। उनकी इस यात्रा में सहदेव साहू भी शामिल रहे। प्रस्तुत लेख शंकर गुहा नियोगी की यात्रा संस्मरण के अंशों पर आधारित है। इसे हू-ब-हू रखा गया है। चूंकि अंश अलग-अलग पृष्ठों से लिए गए हैं, इसलिए  पठनीयता बरकरार रखने के लिए आंशिक तौर पर संपादन किया गया है। मूल पाठ से संपादन को पृथक रखने के लिए बड़े कोष्ठक में रखा गया है।

वीर नारायण सिंह पर आधारित इस लेख को प्रकाशित करने का हमारा एक मकसद यह है कि आज की युवा पीढ़ी उस संघर्ष को जाने और समझे, जो आज से 161 वर्ष पहले छत्तीसगढ़ के इलाकों में चल रहा था। उनका संघर्ष ब्रिटिश हुक्मरानों की साम्राज्यवादी नीतियों, स्थानीय सामंतों व साहूकारों के शोषण के खिलाफ था। 

दूसरा मकसद, आज के मौजूदा हुक्मरानों का ध्यान वीर नारायण सिंह की उपेक्षित विरासत की ओर  आकृष्ट कराना भी है। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी से जुड़े विरासतों को संरक्षित करें, बजाय इसके कि वह प्रतीकात्मक रूप से इमारतों आदि का नामकरण कर खानापूर्ति करें। 

तीसरा मकसद, अपने पाठकों को सोनाखान में आज की तारीख में चल रहे खनन माफियाओं के खेल के बारे में बताना भी है। राज्य के संरक्षण में चल रहे इस वैध-अवैध खनन से बड़ी संख्या में आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। हालांकि स्थानीय स्तर पर इसका विरोध भी होता रहा है, परंतु कुल मिलाकर स्थिति वही है जो वीर नारायण सिंह के जीवनकाल में थी। 

अमर शहीद वीर नारायण सिंह के बारे में एक विवाद और भी है जिसके बारे में हम अपने पाठकों को स्पष्ट करना चाहते हैं। यह विवाद उनकी जातिगत पृष्ठभूमि से संबंधित है। शंकर गुहा नियोगी ने अपने यात्रा संस्मरण के प्रथम पृष्ठ में सोनाखान की सामाजिक पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि सोनाखन “जंगलों के बीच एक आदिवासी बहुल गांव है। कंवर, धनहार, बिंझवार एवं गोंड़ जाति के लोग इस बस्ती में रहते हैं।”

आगे पृष्ठ 9 में वे उद्धृत करते हैं कि “[वीर] नारायण सिंह के पूर्वज गोंड जाति के थे। बताया जाता है कि इनके पूर्वज सारंगढ़ के जमींदार के वंश के हैं। गोंड़ मारू के डर  से इनके पूर्वजों ने गोंड़ से बिंझवार जात में जाति परिवर्तन किया।”

इसी पृष्ठ के अंतिम अनुच्छेद में नियोगी लिखते हैं, “बताया जाता है कि नारायण सिंह के पूर्वज सारंगढ़ [से] में आए ‘विशाही ठाकुर’ सोनाखान जमींदारी वंश के पूर्वज थे। फते नारायण के समय में अंग्रेजों का कब्जा नहीं हो पाया था।”]


क्यों उपेक्षित है आज भी वीर नारायण सिंह की शहादत?

  • शंकर गुहा नियोगी

सोनाखान के वीर शहीद नारायण सिंह की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि और वर्तमान में क्रांति तीर्थभूमि, साोनाखान जाकर उनके परिवार से मुलाकात करने की जिम्मेदारी संस्था की ओर से मुझे एवं सहदेव साहू को सौंपी गयी। सोनाखान वर्तमान में छत्तीसगढ़ के पूर्व की ओर, रायपुर जिले की तहसील बलौदा बाजार [वर्तमान में जिला] में स्थित है। जंगलों के बीच एक आदिवासी बहुल गांव है। कंवर, धनहार, बिंझवार एवं गोंड़ जाति के लोग इस बस्ती में रहते हैं। सोनाखान पंचायत भी है। सोनाखान पंचायत में भूसरी पाली, कसोन्दी, महकम, बंगलापाली गांव है।

[इसी इलाके में] यह वही कसडोल है जहां के व्यापारियों के विरुद्ध सन् 1856 में शहीद वीर नारायण सिंह ने घोर संघर्ष किया था। आज आजादी के 32 साल बाद [स्मारिका का प्रकाशन 1979 में हुआ था] भी वीर नारायण सिंह के परिवार के लोग नितान्त गरीबी में दिन व्यतीत कर रहे हैं, परन्तु वह व्यापारी घराना जिसने शहीद नारायण सिंह के सपनों को चकनाचूर करने के इरादे से वीर नारायण सिंह को कारागार में पहुंचा दिया था, आज भी कसडोल में गगनचुम्बी इमारत बनाकर इठला रहा है।

 

गांव के पश्चिम में स्थित एक छोटा सा पहाड़ है। पहाड़ का नाम कुर्रूपाट डोंगरी है। यह वही डोंगरी है जहां वीर नारायण सिंह ‘‘कुर्रूपाट देवता की पूजा करते थे।’’ कुर्रूपाट की विशेषता यह है कि वहां एक छोटी सी जगह पर बारहों महीने पानी मिलेगा। पहाड़ी के ऊपर कुर्रूपाट के पास का वह स्थल बड़ा ही मनोरम, बड़ा सुन्दर है। कुर्रूपाट, बिंझवार जमींदार के राजदेवता हैं।

कुर्रूपाट डोंगरी में ही वीर नारायण सिंह ज्यादा समय रहते थे। उनके पास एक कबरा [चितकबरा] घोड़ा था। वो अक्सर घोड़े पर सवार होकर गांव-गांव घूमा करते थे। किसानों के दुख-दर्द सुना करते थे, समस्याओं का हल बताते थे और उनकी यथाशक्ति मदद भी किया करते थे। आज भी बहुत से लोग कहते हैं कि उन्होंने अब भी वीर नारायण सिंह को [चित]कबरे घोड़े पर सवार होकर घूमते हुए देखा है। 

वीर नारायण सिंह डरपोक आदमी को सहन नहीं करते थे। और अगर कोई व्यक्ति क्रांतिकारी वीर के पास आकर रोना-गाना करता था कि मुझे फलां बदमाश साहूकार ने सताया है, तो वे नाराज हो जाते थे एवं भुरकुट्टी ढेंकी में उसे सजा देते थे। और अगर कोई आकर उनसे ये कहता कि मैंने फलां बदमाश को मार भगाया, या किसी अंग्रेज अफसर को चांटें रसीद करे [किए] हैं तो ये सुन कर नारायण सिंह खुश हो जाते और खुशी से, उस आये हुए व्यक्ति की पीठ ठोंकते और ईनाम भी देते थे। 

शहीद शंकर गुहा नियोगी यादगार समिति व लोक साहित्य परिषद द्वारा दिसंबर, 1992 में प्रकाशित स्मारिका में शामिल वीर नारायण सिंह की व्यक्ति-चित्र व शंकर गुहा नियोगी की तस्वीर

[सन् 1979 में]आज जहां बस्ती बनी हुई है। पुरानी बस्ती वहां नहीं थी। बस्ती तालाब से लगी हुई थी। महकम बस्ती एवं सोनाखान बस्ती एक साथ लगी हुई थी। अंग्रेजों ने 1857 के दिसम्बर महीने में इन्हीं दो बस्तियों के ऊपर हमला एवं अत्याचार किया था। यह इतिहास और वीर नारायण सिंह की वीरतापूर्ण संघर्ष का इतिहास, इतिहासकारों के विश्वासघात के बावजूद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मालूम होता रहा और यह सिलसिला शताब्दियों तक चलता रहेगा। अंग्रेजों ने इस बस्ती को तीनों ओर से घेर कर आग लगा दी थी और बस्ती के बच्चों को पकड़ कर दहकते हुए अंगारों में डाल दिया था। अंधाधुंध गोली चलाकर सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था तथा बलात्कार जैसे कुकर्म भी करने से नहीं चुके। बस्ती खाली हो गई। गांव के लोग दूर-दूर तक जंगल और पहाड़ों को पार करते हुए भाग खड़े हुए थे। परन्तु गांव के लोग उन अत्याचारों को महत्व नहीं देते हैं। वे वीर नारायण सिंह के संघर्ष को ही याद करते हैं। आज की पीढ़ियों में भी वह दुख, घृणा और गुस्से में परिवर्तित होकर रह गया है। 


अंग्रेजी साम्राज्यवाद के मुनीम-कसडोल के साहूकार परिवार, जिनके पास वीर नारायण सिंह अकाल के दिनों में गरीब किसानों के लिए अनाज मांगने गये थे, जिन साहूकारों के खिलाफ वीर नारायण सिंह ने संघर्ष किया था, वही मिश्र परिवार के लोग आज भी काले अंग्रेजों की तरह हैं। साम्राज्यवाद के मुनीम बनकर कांग्रेसी राज्य [सन् 1979 में सत्तारूढ़ सरकार] चला रहे हैं। वही साहूकार परिवार के लोग आज भी राजसत्ता पर कब्जा किए हुए हैं। इन परिवार के लोगों ने वीर नारायण सिंह का नाम मिटा देने की जी-तोड़ कोशिशें की। 

बहुत बार ग्रामवासियों की तरफ से मांग करने के बावजूद भी एक बांध के लिए सरकार ने दो लाख रुपया पास नहीं किया। नारायण सिंह के गांव से आज भी बदला लिया जा रहा है। परन्तु बाकी क्षेत्र में पानी के बन्दोबस्त के लिए प्लान बनाये जा चुके हैं।

[वीर] नारायण सिंह के जमाने में जानवर मारने में कोई मनाही नहीं थी। [वीर] नारायण सिंह खुद शिकार खेलते थे, पूरी बस्ती के लोग हांका में जाते थे। शिकार में जो भी प्राप्त होता था, उसमें हांका में जाने वाले व्यक्तियों का बराबर का हिस्सा होता था।

वीर नारायण सिंह की जरूरत है क्या? मेरे इस प्रश्न पर गांव वालों की आंखों में एक नई चमक उठी और कहने लगे हां अब हमनला वीर नारायण सिंह बने बर लगही। हमन एक्को दिन वीर नारायण सिंह बन जांबो। जंगल में एक पंछी फड़फड़ाते हुए बोल उठता टिं-टीं-टीं-टीं-।

मिसिर तोर का गति हो ही।

सरकार तोर का गति हो ही।।

वीर नारायण सिंह आही।

वीर नारायण सिंह आही।।

[वीर] नारायण सिंह के पूर्वज गोंड़ जाति के थे। बताया जाता है कि इनके पूर्वज सारंगढ़ के जमींदार के वंश के हैं। गोंड़ मारू के डर से इनके पूर्वजों ने गोंड़ से बिंझवार जात में जाति परिवर्तन किया।

बताया जाता है कि [वीर] नारायण सिंह के पूर्वज सारंगढ़ में [से]आए ‘विशाही ठाकुर’ सोनाखान जमींदारी वंश के पूर्वज थे। फते नारायण के समय में अंग्रेजों का कब्जा नहीं हो पाया था। [वीर] नारायण सिंह के पिता का नाम राम राय था। नारायण सिंह के पास करीब 70 गांव का कब्जा था।

[उन दिनों] अंग्रेजी साम्राज्यवाद देशी राजा व जमींदारों के ऊपर भरोसा नहीं कर पा रहा था।

यह वर्ग था महाजन वर्ग। साहूकारों ने अंग्रेजों की मेहरबानी से समूचे देश में अपना जाल बिछा दिया। जमाखोरी, ब्याज का धन्धा आदि से साहूकार वर्ग के लोग दिन दुगुना रात चौगुना  बढ़ते गये। पहले गांव में अनाज जमा रहता था। परन्तु इन साहूकार वर्गों के चलते अनाज गायब होने लगा। सूखे की आड़ लेकर साहूकार वर्ग भयंकर शोषण करते थे। महाजन (साहूकार) वर्ग के आते ही गांव-गांव में अकाल पड़ने लगे एवं गरीब किसान भूख से तड़फने लगे। कसडोल का मिश्र परिवार भी महाजन परिवार था। ऊपरी भाग के मेहनती हरिजन [सन् 1987 तक इस शब्द का उपयोग अनुसूचित जाति के लोगों के लिए किया जाता था। परंतु बाद में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है] (सतनामी) किसान जमीन में मेहनत कर सोना जैसे धान उगा रहे थे, दूसरी तरफ जंगली क्षेत्र में भोले भाले कंवरगोंड बिंझवार, धनबार आदि आदिवासी जंगल की उपज और खेत खलिहान के धान आदि पर जिन्दा थे।


[सोनाखान इलाके में मिश्र परिवार ने] महाजनी धंधा जोर से शुरू किया। ब्राह्मण होने के नाते इस परिवार को स्वीकृति मिली, इससे शोषण के जाल फैलाने में इनको काफी मदद मिली, उपज होते ही मिश्र के आदमी सस्ती कीमत में अनाज खरीद लिया करते थे। इन्होंने ब्याज का धंधा चालू किया, बैल, बर्तन एवं जमीन जायदाद भी गिरवी में रखकर चक्रवृद्धि ब्याज के धंधे के जरिये बहुत जल्द ही यह परिवार इस क्षेत्र में अव्वल नम्बर का शोषक बन गया। 

भारत सरकार द्वारा वीर नारायण सिंह की स्मृति में जारी डाक टिकट

1856 में उस क्षेत्र में भयंकर सूखे के कारण अकाल पड़ा। जंगल के जानवर भी सूखा पड़ने से जंगल छोड़कर भाग गये। पहाड़ी क्षेत्र में कंदमूल भी मिलना दूभर हो गया। सोनाखान राज के लोग अनाज के बिना त्राहि-त्राहि करने लगे। सोनाखान में [वीर] नारायण सिंह की बैठक में सब एकत्रित हुए और सब एक आवाज में बोल उठे ‘‘कैसे करें?’’

अंग्रेज कमिश्नर इलियट और स्मिथ थे। कसडोल के मिश्र परिवार के ऊपर अंग्रेजों की कृपा दृष्टि थी। सोनाखान की बैठक में तय हुआ कि कसडोल के महाजन मिश्र परिवार से कर्ज के बदले अनाज मांगा जाये। कुछ ब्याज भी दिया जायेगा। वैसे बताया गया कि मिश्र परिवार के लोगों के मुंह से अकाल की समस्या देखते ही पानी निकल रहा था। अकाल की स्थिति में ज्यादा ब्याज व अधिक मुनाफे के लालच में, मिश्र परिवार ने [वीर] नारायण सिंह की बात पर अनाज देने से साफ इंकार कर दिया। परंतु कोई हल नहीं निकला। महाजन के कोठे में रखा अनाज सूखने लगा और जनता का पेट भी बिना अन्न के सूखता रहा। सोनाखान स्थित [वीर] नारायण सिंह की बैठक में गांव के मुखिया जुटते गये। नारायण सिंह बोले- नहीं, भूख से कोई आदमी नहीं मरेगा भले ही लड़ाई के मैदान में जूझते प्राण क्यों न चले जायें। [वीर] नारायण सिंह ने उपस्थित लोगों से पूछा क्यों तुम लोग लड़ने को तैयार हो या नहीं। जवाब में उपस्थित लोग एक स्वर में बोल पड़े, लड़बोन-लड़बोन और ये आवाज इतनी तेज थी कि सारे पहाड़ी इलाकों में तथा जंगलों में यही आवाज गूंजने लगी, तथा गांव-गांव में पहुंचने लगी। लोग सोनाखान पहुंचने लगे। कुर्रूपाट में [वीर] नारायण सिंह का डेरा था। कुर्रूपाट का पानी पीकर सरदारों ने शपथ ली कि अब हम साहूकारों को सहन नहीं करेंगे। साहूकारों की कोठी के अनाज में आदिवासी किसानों की मेहनत का खून लगा हुआ है। लहू पसीने की कमाई से पैदा हुआ अनाज महाजन की कोठी में भरा हुआ रहेगा और हम भूख से तड़फते रहेंगे, ये कभी नहीं हो सकता। नारायण सिंह की आवाज कुर्रूपाट में व आसपास के क्षेत्र में गूंजने लगी। 


1856 का साल था। [वीर] नारायण सिंह अपने [चित]कबरे घोड़े पर सवार होकर नेतृत्व सम्हाला। लोगों के साथ [वीर] नारायण सिंह कसडोल पहुंचे, फिर एक बार कसडोल के ब्राह्मणों से कर्ज के रूप में अनाज मांगा। मिश्र लोगों ने अंगूठा दिखा दिया। [वीर] नारायण सिंह से अब सहा नहीं गया। कोठी के धान को [वीर] नारायण सिंह ने जब्त कर लिया और ग्रामवासियों के बीच जरूरत के आधार पर बांट दिया। सन् 1856 साल की यह घटना एक क्रांतिकारी घटना थी। आर्थिक मांगों पर अनाज के लिए संघर्ष की जो मिसाल छत्तीसगढ़ के दूर एवं दुर्गम गांवों में [वीर] नारायण सिंह ने शुरू की उसकी मिसाल इतिहास में दुर्लभ है।

यह था जनता के लिए, जनता द्वारा संग्राम, जिसका नेतृत्व किया था सोनाखान के आदिवासी नेता वीर नारायण सिंह ने। [वीर] नारायण सिंह ने अंग्रेज शासकों को बाद में खबर भी दे दी। व्यापारी मिश्र ने भी अपनी क्षति का पत्र डिप्टी कमिश्नर को भेजा।

अंग्रेज कमिश्नर इलियट ने व्यापारी का भेजा हुआ शिकायत पत्र प्राप्त होते ही एक फौज की टुकड़ी के साथ [वीर] नारायण सिंह के नाम से वारन्ट भेज दिया। परन्तु फौजी टुकड़ी धोखा देकर ही [वीर] नारायण सिंह को रायपुर ले जाने में सफल हुई। 1857 साल सारे देश में सिपाही गदर की आग जल रही थी। वे मौका पाकर जेल से भाग निकले फिर सोनाखान।

[वीर] नारायण सिंह को अनाज लूटने के आरोप में बन्दी बनाया गया था। सोनाखान चुप नहीं बैठा था। सोनाखान और 18 गांव के आदिवासी किसान गुस्से से तमतमाते रहे। जब [वीर] नारायण सिंह आ गये तो गांव-गांव के आदिवासी अपने नेता को देखकर खुशी में दृढ़ निश्चय के साथ फिर संगठित हुए। विद्रोह का नगाड़ा गांव-गांव में बजने लगा।

बैठक हुई; [वीर] नारायण सिंह के नेतृत्व में लोगों ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ फिर से संग्राम के लिये इरादा बनाया। छत्तीसगढ़ के इतिहास में आदिवासियों के टपकते खून का इतिहास, देश को मुक्त करने का इतिहास, मुक्ति संघर्ष की शुरुआत का इतिहास। अंग्रेज भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने भी अपनी तैयारियां की।

कुर्रूपाट डोंगरी में चढ़कर जब तक वीर नारायण सिंह की फौज की बन्दूक गरजती रही, अंग्रेज फौज की टुकड़ी को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। 

[यात्रा के दौरान एक गांव में जब शंकर गुहा नियोगी लोगों से वीर नारायण सिंह के बारे में पूछ रहे थे] एक आदिवासी अधेड़ व्यक्ति (कंवर) बोल उठा, मैं बताऊंगा ‘लड़ाई की कहानी’ विभीषण बिना रावण को हराना मुश्किल था, उसी प्रकार जमींदार घरानों ने [वीर] नारायण सिंह को दगा दिया। किसान युद्ध की पीठ में चाकू भोंका, एकमात्र सम्बलपुर के क्रांतिकारी सुरेन्द्र सहाय को छोड़ कर बाकी सभी जमींदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया। [यहां तक कि] [वीर] नारायण सिंह के सगे बहनोई ने भी। 

[वीर] नारायण सिंह के एवं किसान युद्ध के दुश्मन ज्यादा ताकतवर नहीं थे, परन्तु जमींदारों के विश्वासघात के कारण इतने बड़े संघर्ष को पराजय झेलनी पड़ी।

[शंकर गुहा नियोगी से एक स्थानीय निवासी] गजपाल सिंह बोले- ‘कौन जानता है क्या था? पर उसकी बात बिल्कुल सत्य है कि अकाल पीड़ित किसानों के लिए अनाज दिलाने हेतु संघर्ष में उन्होंने पहले नेतृत्व दिया था। जेल तोड़ने के पश्चात वीर नारायण सिंह ने सिपाही गदर के समय एक तरफ अंग्रेजों का राज खत्म करने का विचार ठान लिया था। साथ-साथ साहूकार वर्ग के खिलाफ, तीव्र घृणा के कारण, कोटगढ़ एवं खरौंद जाकर मिश्र परिवार के लोगों को खत्म कर नये संघर्ष की शुरुआत की थी। सिर्फ बच गई थी मिश्र परिवार की एक गर्भवती महिला और साथ में उसका एक पुत्र।

[यात्रा में] साथी सहदेव ने फिर पूछा- ‘कुर्रूपाट की आखिरी लड़ाई का क्या हुआ?’ उदास होकर मुच्चु बोला- अंग्रेज सिपाहियों के साथ लड़ते-लड़ते वीर नारायण सिंह की गोला-बारुद ख़त्म हो गई। आधुनिक शस्त्रों के साथ देहाती शस्त्रों का मुकाबला न हो सका। वीर नारायण सिंह पकड़े गये। उनको पकड़ कर एक साथी के साथ अंग्रेज लोग उनके ही कबरे घोड़े पर बैठाकर रायपुर ले गये। 

चलते-चलते मैंने [शंकर गुहा नियोगी] गजपाल सिंह से प्रश्न किया ‘सोनाखान में कब से सोना पाया जाता है?’ गजपाल सिंह उत्तर में बोले- यह भी तो बहुत दिन की बात है। अपनी वंशावली का एक कागज आपको गोलमर्रा में दिखाऊंगा जिसमें लिखा है कि सोनाखान गांव का पुरातन नाम सिंघगढ़ था। सिंघगढ़ से सिंहखान एवं वर्तमान में सोनाखान बना।

रातों रात सफर कर जब हम रायपुर पहुंचे तो सूर्योदय की लालिमा पूर्व गगन में उदित हो रही थी। सूरज की किरण [रायपुर के] जय स्तम्भ चौक के ऊपर पड़ी। इसी जय स्तम्भ के पास ही [वीर] नारायण सिंह का उबलता हुआ गरम खून गिरा था, देश की मुक्ति के लिये। आज यह जनपथ है, रोज लाखों लोग आना-जाना करते हैं। क्या? [उन्हें इसका अहसास है?]

(संपादन : गोल्डी/नवल/सिद्धार्थ/इमानुद्दीन)


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लेखक के बारे में

शंकर गुहा नियोगी

ट्रेड यूनियन नेता रहे शंकर गुहा नियोगी (14 फरवरी, 1943 - 28 सितंबर, 1991) का प्रारंभिक जीवन असम के नगांव में बीता। छात्र जीवन से ही सामाजिक कार्यों में सक्रिय नियोगी ने सन् 1971 में छत्तीसगढ़ में कार्य करना शुरु किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। उद्योगपतियों द्वारा 28 सितंबर, 1991 को गोली मरवाकर उनकी हत्या कर दी गई

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