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दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना

आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते हैं। किन्तु उनमें से दो ही नाम ऐसे हैं, जिनके आगे ‘महात्मा’ शब्द लगा हुआ है– महात्मा फुले और महात्मा गांधी

दलित साहित्य जाहिरी तौर पर आम्बेडकरवादी साहित्य है और आम्बेडकरवाद तथा गांधीवाद में अनेक विरोधाभास हैं। इसलिए दलित चिंतन गांधी को सिरे से खारिज करता है। बहुजन साहित्य की नई अवधारणा में यदि ओबीसी बहुल साहित्य को मान लें, तो ओबीसी वर्ग मुख्य रूप से आर्यसमाज, नवजागरण काल और समाजवादी आंदोलन, आधुनिक काल से प्रभावित रहा है, इसलिए गांधी उनके अधिक करीब हैं। फिर अभिजन साहित्य जहां रूपवादी-कलावादी आग्रहों को छोड़कर सामाजिक सरोकारों से जुड़ता है, तो वहां न गांधी होते हैं, न आम्बेडकर। होते हैं तो मार्क्स, ऐंजिल्स और फ्रॉयड। आज के इस वैश्विक युग में विचारों को भारतीय, यूरोपीय या अमेरिकी सीमा में कैद नहीं किया जा सकता। फिर भी दलित या बहुजन साहित्य की जमीन भारतीय है। इसलिए इसे भारतीय चिंतन की दृष्टि से ही देखना अधिक उपयुक्त होगा। अर्थात् फुले, गांधी और आम्बेडकर की दृष्टि से। तीनों मुक्ति चाहते हैं-आजादी। दलित या बहुजन साहित्य का मिशन भी मानव-मुक्ति ही है और किस साहित्य में मुक्ति चेतना नहीं है?

किन्तु मुक्ति एक व्यापक शब्द है, जिसकी अवधारणा समय और समाज के साथ बदलती रहती है। इसलिए यहां मुक्ति को आधुनिक अर्थों में लिया गया है। इस आलेख का उद्देश्य किसी का खंडन या मंडन नहीं है, बल्कि मुक्ति की अवधारणाओं के सहारे दलित, बहुजन और अभिजन साहित्य की शक्ति और सीमाओं पर विचार करना है। इसके लिए हमने बहुजनों के प्रतीक पुरुष महात्मा फुले और अभिजनों के आइकॉन महात्मा गांधी को लिया है। इसलिए इस चेतना को ‘गुलामगीरी’ (फुले) और ‘हिन्द स्वराज’ (गांधी) के द्वंद्व से समझने की कोशिश की गई है।

आधुनिक काल की मुक्ति चेतना नवजागरण से शुरू होती है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार, आम्बेडकर आदि नाम गिनाए जा सकते हैं। किन्तु उनमें से दो ही नाम ऐसे हैं, जिनके आगे ‘महात्मा’ शब्द लगा हुआ है-महात्मा फुले और महात्मा गांधी। भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीति की अस्मिता और पहचान की जो चिंता ‘हिन्द स्वराज’ में महात्मा गांधी की है, वही चिंता ‘गुलामगीरी’ में महात्मा फुले की भी थी।

जोतिबा फुले की ‘गुलामगीरी’ 1873 में लिखी गई थी और महात्मा गांधी का ‘हिन्द स्वराज’ 1909 में। किन्तु गांधीजी के ‘हिन्द स्वराज’ और फुले की ‘गुलामगीरी’ में बहुत सारी समानताएं हैं। दोनों ही पुस्तकें छोटी हैं। दोनों ही क्षेत्रीय भाषाओं में आम जनता के अध्ययन के लिए लिखी गईं। ‘गुलामगीरी’ की भाषा जहां मराठी है, वहीं गांधीजी के ‘हिन्द स्वराज’ की भाषा सरल गुजराती है। दोनों ही पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद उसके प्रकाशन के एक-दो वर्षों के भीतर ही छप गए थे। दोनों की चिंता के केन्द्र में भारतीय समाज की मुक्ति और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा है। दोनों ही आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक चिंतक हैं। दोनों ने ही अपनी पुस्तकों की रचना में पश्चिमी विद्वानों से प्रेरणा ली है। ‘हिन्द स्वराज’ का चिंतन जहां ‘टॉल्स्टाय, कार्पेंटर, थोरो, रस्किन, मेजिनी’ आदि से प्रेरित है, वहीं फुले की ‘गुलामगीरी’ पुस्तक पर ‘थामस पेन की पुस्तक ‘मानवाधिकार’, ‘अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम’ और अब्राहम लिंकन’ के विचारों का प्रभाव है। दोनों ही पुस्तकों की शैली में अभूतपूर्व समानता है। दोनों की शैली ‘संवाद-शैली’ है। ‘गुलामगीरी’ के प्रश्नोत्तर जहां जोतिराव और धोड़ीराव के बीच है, वहीं ‘हिन्द स्वराज’ के संवाद ‘सम्पादक और पाठक’ के बीच हैं। जोतिबा धोड़ीराव के रूप में देशवासियों के सवालों के उत्तर खुद ही दे रहे हैं। ‘हिन्द स्वराज’ में गांधीजी ‘सम्पादक’ के रूप में बोल रहे हैं और ‘पाठक’ रूपी नागरिकों की जिज्ञासा का जवाब भी खुद ही दे रहे हैं। फुले ‘गुलामगीरी’ में जहां भारतीय जनमानस की मुक्ति में आर्य ब्राह्मण-पुरोहितों को बाधक मानते हैं, वहीं गांधी मुक्ति मार्ग की रुकावटों के लिए अंग्रेजों को दोष देते हैं।

गांधीजी के अनुसार कल-कारखाने, रेल, डाकघर, पार्लियामेंट, वकील, डाक्टर, न्यायालय आदि अच्छी संस्कृति के द्योतक नहीं हैं। इसलिए वे अपने ‘स्वराज’ में इन चीजों का सीधा निषेध करते हैं। फुले और आम्बेडकर के लिए ये जरूरी हैं। इसलिए वे आधुनिक सुविधाओं की वकालत करते हैं। गांधीजी अपनी सभ्यता का स्वराज चाहते हैं और यह स्वराज केवल अंग्रेज और उनके राज को हटा देने से नहीं मिलेगा। इसके लिए उनकी सभ्यता को भी हटाना होगा। अब सवाल उठता है कि ‘हिन्द स्वराज’ में जिस आध्यात्मिक ‘स्वराज’ की कल्पना की गई है, वैसा स्वराज क्या भारत या दुनिया के किसी भी देश में संभव है? गांधीजी की महानता इस बात में है कि उन्होंने अपने आपको हमेशा विद्यार्थी ही समझा और जीवनभर सत्य का प्रयोग करते रहे। समय-समय पर उन्होंने अपने विचारों को बदला। अपनी गलतियां स्वीकार कीं। आम्बेडकर ने भी लिखा कि ‘मैं राजनीति, समाज-कार्य में होते हुए भी आजीवन विद्यार्थी हूं।’ अध्ययनशील आम्बेडकर ने हिन्दू समाज व्यवस्था के दोष बताने और अंतर्निहित अमानुषिकता को उजागर करने के लिए आधुनिक समाजशास्त्रों का ही अध्ययन नहीं किया, बल्कि इसके साथ उन्होंने प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रों को भी बारीकी से पढ़ा था। गांधी और आम्बेडकर के लेखन की तुलना करते हुए यह यह ठीक ही लिखा गया है कि ‘गांधी के लेखन में जो स्थान सत्य और अहिंसा का है, आम्बेडकर के प्रतिपादन में वही स्थान स्वतंत्रता, समानता और बंधुभाव की त्रिपुटी का है।

गांधी इसलिए भी महान हैं कि उन्होंने धर्म को राजनीति से जोड़ा और उसे लड़ाई का हथियार बनाया। आम्बेडकर और फुले की महानता इस बात में है कि उन्होंने धर्म और समाज दोनों को राजनीति से जोड़ा और ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ। आम्बेडकर विद्वान भी थे और कर्मठ राजनीतिज्ञ भी। उनकी वैचारिकता पर विज्ञाननिष्ठा, आधुनिक सामाजिक चिंतन और पश्चिमी राजनीतिक-आर्थिक अवधारणाओं की गहरी छाप थी। किन्तु गांधी में विद्वता और राजनीतिक दृष्टि से अधिक धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना थी। अपनी इसी ईश्वरनिष्ठा, आस्था, विश्वास और सत्य-अहिंसा पर आधारित आचरण और चरित्र के बल पर वे इतने बड़े आंदोलन टिकाए रखने में सफल हो सके। अपनी-अपनी शक्ति और सीमा में तीनों की लड़ाई गुलामी से है।

गुलामी बनाम आधुनिकता :

यह सभी जानते हैं कि हमारे यहां आधुनिक चेतना और ज्ञान-विज्ञान अंग्रेजों के भारत आने के बाद ही आए। अंग्रेजी शिक्षा द्वारा फ्रांसीसी क्रान्ति के स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के लोकतान्त्रिक सूत्र और लोकतंत्र के अन्य मूल्यों से हमारा परिचय 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू होता है। तभी से हमने अपनी संस्कृति और साहित्य की खोज और सामाजिक बुराइयों से मुक्ति के प्रयास भी तेज किए। इन सारे कार्यों में ईसाई मिशनरियों के साथ-साथ अंग्रेजी प्रशासन भी हमारा सहायक रहा। देश में पहली बार इतिहास लिखा गया तथा सभ्यता और संस्कृति का नया विमर्श शुरू हुआ। राष्ट्रीयता की भावना तो और बाद में आई। अनेक वैदिक, पौराणिक और जैन-बौद्ध मिथकों को नई दृष्टि से देखा जाने लगा। हिन्दू-मुसलमानों का द्वंद्व भी नए सिरे से शुरू हुआ। इन तमाम बातों के लिए हम अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति को दोषी मानते आए हैं, जैसा कि गांधीजी भी मानते हैं। किन्तु जब अंग्रेज नहीं थे, तब के कटु विवादों के लिए कौन दोषी था? तमाम विवाद तो उन्हीं दिनों शुरू हुए थे। इतिहास इन प्राचीन और मध्यकालीन सभ्यता संघर्षों का साक्षी है।

स्त्री और शूद्र-अतिशूद्रों सहित देश की करीब तीन चौथाई जनता शिक्षा से वंचित थीं। अंग्रेजी मिशनरियों ने 1835 से भारतीयों के लिए स्कूल खोलने शुरू कर दिए थे। सरकार द्वारा हंटर कमीशन की स्थापना 1872 में हुई। स्मरण रहे कि स्त्री और दलितों के लिए देश में पहला स्कूल क्रमश: 1848 और 1854 में महात्मा फुले ने ही खोला था। इसके पूर्व संस्कृत पाठशाला और मदरसों में धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा दी जाती थी। उनमें भी आम जनता के बच्चों का प्रवेश नहीं था। गणित और विज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उसके बाद से अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ फुले लगातार स्त्री और शूद्र-अतिशूद्रों की शिक्षा के कार्य में लगे रहे। इसके साथ ही उन्होंने विधवा समस्या, धार्मिक आडम्बर, सामाजिक अंधविश्वास से मुक्ति के लिए आजीवन संघर्ष किया। दक्षिण के किसानों और आम जनता की समस्याओं के लिए वे जमींदार और अंग्रेज अधिकारियों से बराबर संघर्ष करते रहे। उनके ऐसे कार्यों में अंग्रेजों का समर्थन और सहयोग तो मिला ही, अनेक ब्राह्मणों ने भी उनका साथ दिया।

तत्कालीन परिस्थिति में हम राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से अंग्रेजों और जमींदारों के गुलाम थे। किन्तु हमारे यहां उससे भी बड़ी गुलामी सामाजिक, सांस्कृतिक और सामंती गुलामी थी, जिसके शोषण तले देश की बहुसंख्यक जनता सदियों से पिस रही थी। हम अनेक सामाजिक और धर्मिक बुराइयों में जकड़े थे, जिनसे मुक्ति आवश्यक थी। इसलिए नवजागरण के आरंभ में हमने इन्हीं सामाजिक बुराइयों से मुक्ति के संघर्ष चलाए। आधुनिक काल में समाज सुधार आंदोलनों को अंग्रेज शासकों का प्रोत्साहन मिलने लगा। अंग्रेजी शिक्षा ने ही हमारे लिए मुक्ति के दरवाजे भी खोले।

गांधी ने भी इसी दरवाजे से मुक्ति की राह पकड़ी थी। फुले और आम्बेडकर ने तो जीवनभर भेदभाव के दंश झेले। गांधी को भी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का शिकार होना पड़ा था। अत: मौलिक रूप से गांधी अंग्रेजों की भेद-भावपूर्ण सभ्यता और दासता के विरोधी थे। इसके विपरीत फुले और आम्बेडकर की लड़ाई सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी दासता से थी, जिसके वे भुक्तभोगी थे। 1909 में विलायत से लौटते हुए गांधीजी ने यह पुस्तक जहाज पर लिखी थी। उस समय वे दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे। महात्मा फुले की ‘गुलामगीरी’ पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी अमेरिका और यूरोप के देशों में लोकप्रिय हो चुका था। ऐसे में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि गांधी ने ‘गुलामगीरी’ पुस्तक भी पढ़ी हो, क्योंकि दोनों ही पुस्तकों में विषय और शैली की अभूतपूर्व समानता है। इसी समय कुछ भारतीयों से बातचीत के आधार पर गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ नामक पुस्तक लिखी। यदि हम ‘हिन्द स्वराज’ में वर्णित तत्कालीन घटनाओं पर विचार करते हैं, तो ऊपर की तमाम घटनाएं और स्थितियां इसकी परिधि में चली आती हैं।

‘हिन्द स्वराज’ में गांधीजी बताते हैं कि जब से भारत में ‘नेशनल कांग्रेस’ स्थापित हुई, तभी से हिन्द में स्वराज की भावना पैदा हो गई। यह राष्ट्रीय भावना है। नेशन का अर्थ ही होता है-राष्ट्र। किन्तु ‘पाठक’ की प्रतिक्रिया यह है कि ‘‘नौजवान हिन्दुस्तानी आज कांग्रेस की परवाह ही नहीं करते। वे तो उसे अंग्रेजों का राज्य निभाने का साधन मानते हैं। इस पर गांधीजी का जबाव है कि ‘‘नौजवानों का ऐसा खयाल ठीक नहीं है। हिन्द के दादा दादाभाई नौरोजी ने जमीन तैयार नहीं की होती, तो नौजवान जो बातें आज कर रहे हैं, वह भी नहीं कर पाते। मिस्टर ह्यूम ने जो लेख लिखे, जो फटकारें हमें सुनाईं, जिस जोश में हमें जगाया, उसे कैसे भुलाया जाए? सर विलियम वेडरबर्न ने कांग्रेस का मकसद हासिल करने के लिए अपना तन, मन और धन सब दे दिया था। प्रो. गोखले ने जनता को तैयार करने के लिए भिखारी की हालत में रहकर, अपने बीस साल दिए हैं। आज भी वे गरीबी में रहते हैं। मरहूम जस्टिस बदरुद्दीन ने भी कांग्रेस के जरिए स्वराज का बीज बोया था।

किन्तु फुले को कांग्रेस की स्थापना पर खुशी नहीं होती है। इतने भेदभाव भरे भारत में वे राष्ट्रीयता की स्थापना को कठिन मानते हैं। फिर यदि ऐसा हो भी जाता है, तो उन्हें इसमें फिर से ब्राह्मणराज की स्थापना की बू आती है। इसलिए वे ‘ब्रह्म समाज’, ‘प्रार्थना समाज’, कांग्रेस आदि की स्थापना को आर्य ब्राह्मणों का स्वार्थ कहते हैं। वे लिखते हैं-ये धूर्त आर्य ब्राह्मण सारी दुनिया को नीच मानते हैं और उनसे घृणा, नफरत करते हैं। ये लोग केवल अपने स्वार्थ के लिए अज्ञानी शूद्रादि-अतिशूद्रों को किस समय किस गड्ढ़े में डाल देंगे, इसका कोई अंदाज नहीं। इसलिए आर्य ब्राह्मण एकधर्मी अमेरिका या फ्रेंच आदि यूरोपियन लोगों की नकल करके सैकड़ों नेशनल कांग्रेस स्थापित कर लें, फिर भी उनके नेशनल कांग्रेस में समझदार शूद्रादि-अतिशूद्र व्यक्ति कभी सदस्य नहीं होगा, इस बात का मुझे पूरा भरोसा है, क्योंकि वैसा करने से हमारी दयालु अंग्रेजी सरकार शूद्रादि-अतिशूद्रों की ओर कोई ध्यान नहीं देगी। जाहिर है दलित-पिछड़ों के प्रति कांग्रेस के रवैये को लेकर फुले का यह संदेह अन्यथा नहीं था। किन्तु कालांतर में कांग्रेस ने अपने चरित्र में सुधार किया और यह सुधार गांधी जैसे सुधारवादी नेताओं के कारण ही हुआ। गांधी के समय तक यदि फुले जीवित होते, तो संभव है कांग्रेस के प्रति उनके इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आता।

मुक्ति का समाज दर्शन :

अगर जोतिबा फुले के चिंतन को केवल दलित-पिछड़ों का और गांधी के चिंतन को संपूर्ण भारतीय जनमानस का पर्याय मान लिया जाए, जैसी कि मानने की परंपरा है, तो गांधी को अकेले वह प्रतिमान खड़ा करना चाहिए, जो भारत की सभी जनता के लिए मान्य हो। मगर ऐसा नहीं है। इसके प्रमाण के लिए और कहीं जाने की जरूरत नहीं है। इसे ‘हिन्द स्वराज’ के पाठ में ही देखा जा सकता है। यदि फुलेके आंदोलन को भारत में स्त्रियों का भी आंदोलन मान लिया जाए, स्मरण रहे, दक्षिण के तमाम स्त्री आंदोलन फुले और सावित्रीबाई की प्रेरणा और प्रभाव से ही शुरू हुए, तो फिर बचता ही क्या है? तीन चौथाई आबादी के बाद कौन-सी जीवंतता बच जाती है, जिनके लिए अलग से सोचा जाए। जाहिर है यह एक चौथाई आबादी मुल्ला-पंडित, राजे-रजवाड़े, देश के शक्ति-संपन्न कुलीन और अंग्रेजों की आबादी थी। इसलिए आम जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आजादी के लिए फुले ने आडंबरविहीन ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। राजनीतिक आजादी की न तो उस समय वैसी चेतना थी और न वैसा कोई वातावरण। ले-देकर उत्तर में 1857 के विद्रोह हुए, जिसकी आलोचना न केवल फुले ने, बल्कि तत्कालीन सभी बुद्धिजीवियों ने की। बाद में गांधीजी ने भी ‘सिपाही विद्रोह’ की प्रशंसा नहीं की। यद्यपि महात्मा फूले और डा. आम्बेडकर को भी अंग्रेजी सरकार से बहुत शिकायतें रहीं, फिर भी दलित और स्त्रियों के हित में किए गए कार्यों के लिए ही महात्मा फुले ने अंग्रेजों को दलितों का मसीहा कहा था और आम्बेडकर ने कहा था, ‘‘अंग्रेज देरी से आए और जल्दी चले गए।’’

शूद्र और दलित नेताओं की ये टिप्पणियां अकारण नहीं थीं। इसके लिए हमें कंपनी शासन और नवजागरण के आरंभ के सामाजिक परिवेश पर नजर डालना होगा, जिसमें सामाजिक भेदभाव अपनी चरम सीमा पर थे। पेशवाओं को छोड़ भी दें, तो देश की तमाम सामाजिक-राजनीतिक ताकतें इनको बरकरार ही रखना चाहती थीं। उस जमाने के जाने-माने उदारवादी-सुधारवादी नेता भी स्त्री और दलित मामले पर उदार नहीं थे। चाहे बाल गंगाधर तिलक हों या मदनमोहन मालवीय या खुद सर सैयद अहमद खान ही, स्त्री और दलितों से ऊपरी तौर पर ही सहानुभूति रखते थे। इसलिए 1857 की समाप्ति के बाद फुले कहते हैं ‘‘उस विद्रोह में अगर अंग्रेजी शासन यहां से जाता तो इतिहास की पुनरावृत्ति हो जाती। ब्राह्मण पेशवाओं के राज्य का फिर से आगमन हो जाता। स्मृति-पुराण की हिन्दू संस्कृति का जोर बढ़कर शूद्र और अतिशूद्र बहुसंख्यक जनता के उद्धार की आशा, जो अंग्रेजी राज से अंकुरित हुई है, वह पूरी तरह नष्ट हो जाती। सामाजिक अन्याय हजारों वर्षों से चलता आया है, इसकी जड़ें और बहुत गहराई तक पहुंची हैं। अंग्रेजी राज्य आज है और कल नहीं। प्रमुख सवाल यह है कि सामाजिक गुलामी कैसे नष्ट होगी? इस सामाजिक गुलामी का मूल ब्राह्मणी धर्म और ब्राह्मणों द्वारा निर्मित धर्मग्रंथों में हैं।

इस प्रकार गांधी और फुले के मुक्ति दर्शन में मौलिक अंतर के बावजूद अनेक समानताएं हैं। गांधी भी कहते हैं, हम अंग्रेजों के नहीं, अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम हैं। अंग्रेज चाहे जाएं, चाहे रहें, हमें अपनी; सच्ची सभ्यता का स्वराज चाहिए। फुले भी कहते हैं-’’अंग्रेजी राज आज है और कल नहीं। प्रमुख सवाल यह है कि सामाजिक गुलामी कैसे नष्ट होगी? गांधी के मुक्ति चिंतन के मूल में धर्म है और फुले के चिंतन के मूल में समाज। गांधी कहते हैं ‘‘मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दुख मुझे यह है कि हिन्दुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं यहां हिन्दू, मुस्लिम या जरस्थोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन सब धर्मों के अंदर जो ‘धर्म’ है, वह हिन्दुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं। इस प्रकार गांधीजी की आजादी या मानव-मुक्ति धर्म के दायरे में है। इसलिए वे स्वराज के लिए सत्य, अहिंसा और प्रेम का मार्ग अपनाते हैं। यही ‘सत्याग्रह’ है।

इस प्रकार गांधी में एक राजनेता और राजनीतिज्ञ की नहीं, एक संत की आत्मा थी। इसलिए धर्मभीरू और शान्तिप्रिय भारतीय जनता पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ा। गांधी और गांधीवाद लम्बे समय से इस देश और दुनिया में चिंतन और जीवन दर्शन के लिए एक रूढ़ प्रेरणास्रोत बने रहे हैं। गांधी अपनी स्वदेशी दृष्टि और दर्शन के लिए चर्चित हैं। पश्चिमी विचार-दृष्टि को बेहद चुनौती देने के कारण गांधी प्रासंगिक बने रहेंगे। लेकिन उनकी यह प्रासंगिकता समय और समाज के साथ आज पुरानी होती दिखायी पड़ रही है। निस्संदेह गांधी के चरित्र में बहुत सारी खूबियां थीं। किन्तु उनकी सारी शक्तियां ब्रिटिश सत्ता के विरोध में खर्च हो गई। जिस सांप्रदायिकता से वे जीवनभर लड़ते रहे, अंतत: उसी सांप्रदायिकता ने उनकी हत्या कर डाली। गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ का सपना पूरा नहीं हुआ। फुले का मिशन भी अधूरा ही है। किन्तु फुले के ‘गुलामगीरी’ का चिंतन और मिशन गांधी से अधिक प्रासंगिक और व्यावहारिक लगता है। फुले भेदभाव से परे समान मानवाधिकार चाहते थे, चाहे शासन किसी का हो, राजा कोई भी हो, प्रजा शोषित-पीडि़त और अपमानित नहीं हो। इस प्रकार फुले में सामाजिक के साथ-साथ सांस्कृतिक और आर्थिक चिंता भी शामिल है। इसे वे सामाजिक न्याय के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे। गांधीजी के ‘हिन्द स्वराज’ में भी मानव-मुक्ति की चिंता थी। यह स्वराज अभी बाकी है। समान मानवाधिकारों की समस्या भी ज्यों की त्यों बरकरार है। इसलिए फुले और गांधी दोनों आज भी प्रासंगिक हैं।

अब इस दलित और बहुजन साहित्य पर यदि हम विचार करें, तो गांधी तो गांधी, फुले और आम्बेडकर की मुक्ति चेतना पर भी वे खरे नहीं उतरते। गांधी, फुले और आम्बेडकर-तीनों ने समाज सुधार के लिए धर्म का सहारा लिया। किन्तु मार्क्सवादियों की तरह दलितवादी और स्त्रीवादी साहित्य ने भी ईश्वर और धर्म की कोई जरूरत नहीं समझी। मार्क्सवादी-प्रगतिवादी साहित्य के पास तो उनके मार्क्स थे, जिन्होंने धर्म को अफीम कहा था और इनके पास? इसीलिए आरंभ में नवबौद्धों ने दलित साहित्य को बौद्ध साहित्य कहने की वकालत की थी। नास्तिक दर्शन भारत के लिए कोई नई चीज नहीं है। कपिल, कणाद से लेकर चार्वाक तक और बुद्ध से लेकर मक्खली गोशाल और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तक इसकी एक लंबी परंपरा है। माना धर्म ने अपनी भूमिका अदा कर ली है, विज्ञान के इस युग में धर्म और ईश्वर अब उतने उपयोगी नहीं रहे, किन्तु हमारे समाज और संविधान में भी इसकी अहमियत है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत हम व्रत-अनुष्ठानों, पर्व-त्योहारों, रीति-रिवाजों और संस्कारों में जीते हैं। हमें विभिन्न सरकारी कागजातों में जाति और धर्म के नाम दर्ज कराने पड़ते हैं। दलित या बहुजन साहित्य हमारे लिए कौन-सा विकल्प सुझाता है? माना यह काम साहित्य का नहीं, धर्मगुरुओं और समाज-सुधारकों का है, तो उन्हें पैदा कौन करेगा? सरोकारवादी साहित्य ही न!

माना दलित और बहुजनों का संताप सदियों का है। उनका विरोध-प्रतिरोध होना चाहिए। किन्तु दुख, असहमति और विरोध के मुख्य स्वरों के साथ अन्य मानवीय भावों और सामाजिक स्थितियों का चित्रण क्यों नहीं हो सकता? दलित और बहुजन भी हंसते-रोते हैं, प्यार और शृंगार करते हैं, उदारता, उदात्तता, व्यंग्य-विनोद वहां भी होते हैं, फिर इन भावों का चित्रण क्यों नहीं हो रहा? अभिजन साहित्य निश्चय ही जातिवादी-वर्णवादी साहित्य है। मनुवादी संस्कृति के अनुरूप यहां शास्त्र ज्ञान की तरह साहित्य को भी ब्राह्मण या सवर्णों की विरासत समझी गई। स्त्री और शूद्र शिक्षा और शास्त्र से वंचित रहे। यदि कोई प्रतिभावान शूद्र या दलित कवि या ज्ञानी बने, तो उसे भी पूर्व जन्म का ब्राह्मण, विधवा ब्राह्मण की संतान या किसी उदार ब्राह्मण गुरु का शिष्य घोषित कर दिया गया। तमाम बातें हैं।

लोकतान्त्रिक शिक्षा ने स्त्री, शूद्र या दलितों में अपनी सम्मानजनक अस्मिता और पहचान की चेतना पैदा की। तदनुरूप संस्कृति की खोज शुरू हुई। पारम्परिक साहित्य और शास्त्रों का पुनर्मूल्यांकन हुआ। नए साहित्य लिखे जाने लगे। जाहिर है इनकी प्राथमिक चेतना दुख, अपमान, प्रताडऩा और विरोध से पैदा हुई है, क्योंकि इतिहास-पुराणों में इनके लिए कोई सम्मानजनक स्थान नहीं था। किन्तु जब ऐसे साहित्य की एक पहचान कायम हो चुकी है, तो इससे आगे की बात होनी चाहिए। एक बात स्थिर हो चुकी है कि स्त्री साहित्य स्त्री और दलित साहित्य को दलित ही लिख सकते हैं, क्योंकि उनके अनुभव और अनुभूति में प्रामाणिकता होती है, उनमें भोगा हुआ या विरासत से जाना हुआ यथार्थ होता है। दलित, स्त्री या बहुजन साहित्य अभिजनों द्वारा निर्मित हर प्रतिमान को शंका की दृष्टि से देखते हैं या उस पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हैं। यह स्वाभाविक है। किन्तु अभिजनों द्वारा कही गई हर बात दलित या बहुजनों के विरोध में ही हो, ऐसी बात नहीं है। दुख और सुख दोनों ही स्थितियों में हृदय मुक्त हो सकता है और वाणी व्यापार होता है। अन्यथा दुख में भी कबीर, रैदास, हीरा डोम या अछूतानंद ऐसे उदात्त पदों की रचना नहीं कर पाते। कविता या साहित्य के लिए अनुभूति की गहराई होनी चाहिए। वस्तुत: ओबीसी, दलित या बहुजन साहित्य सदियों से दुत्कारे-फटकारे मनुष्यों का साहित्य है। इसलिए वह कलावादी न होकर सरोकारवादी होगा। चिंतन प्रधान होगा। किन्तु कला उसमें आए ही नहीं, यह कोई शर्त नहीं है। सरोकारों का साहित्य उद्देश्यपरक होता है। ऐसे साहित्य का उद्देश्य सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विसंगतियों से मुक्ति है। इसलिए इनकी चेतना फुले और आम्बेडकर के ज्यादा करीब है। किन्तु गांधी भी इनसे ज्यादा दूर नहीं हैं। इसलिए गांधी सहित अभिजन साहित्य में जहां चिंतन या ज्ञान की अनुकूलता हो, उसे इन साहित्यों में जगह मिलनी चाहिए।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2013 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

हरिनारायण ठाकुर

एम.एस. कॉलेज, मोतिहारी (बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ्फ़रपुर, बिहार) के अवकाश प्राप्त प्राचार्य हरिनारायण ठाकुर सुविख्यात साहित्य समालोचक हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में ‘बिहार में अति पिछड़ा वर्ग आंदोलन’ (2007, हिमाचल प्रेस, पटना), ‘हिंदी की दलित कहानियां’ (2008, समीक्षा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर-दिल्ली), ‘दलित साहित्य का समाजशास्त्र’ (2009, भारतीय ज्ञानपीठ; पांचवां पेपरबैक संस्करण 2022, वाणी प्रकाशन समूह; देश के सभी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में), ‘भारत में पिछड़ा वर्ग आंदोलन और परिवर्तन का नया समाजशास्त्र’ (2009, अद्यतन-2022, कई संस्करण, ज्ञान बुक्स, नयी दिल्ली), ‘भारतीय साहित्य का शूद्र-पाठ (शुद्ध-पाठ)’ (2017, समीक्षा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर-दिल्ली; दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया के पाठ्यक्रम में) शामिल हैं। वहीं आत्मकथा ‘आकुल उड़ान’ वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशनाधीन है।

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