h n

दलित-बहुजन कवयित्री की कविता के विविध स्वर

पूनम तूषामड़ अपनी कविताओं में जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न को सामने लाती हैं। इसमें उनकी वैचारिकी की झलक मिलती है, जिसके स्रोत फुले, आंबेडकर और पेरियार के विचार हैं। नवल किशोर कुमार की समीक्षा

निदा फाजली की पंक्तियां हैं – ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी। जिस को भी देखना हो कई बार देखना।’ दलित-बहुजन सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाली कवयित्री पूनम तूषामड़ का नवीनतम काव्य संग्रह ‘मदारी’  निदा फाजली के कथन को चरितार्थ करता हैं। इसका प्रकाशन कदम प्रकाशन ने किया है। हाल ही में विश्व पुस्तक मेले में यह काव्य संग्रह चर्चा में रहा।

दरअसल, पूनम मन-मिजाज से पूरी तरह साहित्य में डूबी कवयित्री हैं, विविधता उनके सृजन का अहम हिस्सा है। मसलन, जिस कविता के शीर्षक को उन्होंने कवर पर संकलन के शीर्षक के रूप में जगह दी है, वह भले ही पृष्ठ संख्या 106 पर हो, लेकिन आज के राजनीतिक यथार्थ को अत्यंत ही चुटीला अंदाज में बयां करती है। मदारी कविता की अंतिम पंक्तियों को देखें तो आपको हास्य रस भी मिलेगा और भोगे हुए दर्द की अनुभूति भी। वही दर्द जो आज पूरा देश महसूस कर रहा है।

‘हम उसके जैसा/ सूट पहनकर/ बूट पहनकर/ गले में ताजा/ नोट पहनकर/ नाच-नाच कर/ ढोल पीटकर/ भूखों की / गाथा कह डालें, / मरतों पर/ कविता रच डालें।’

काव्य संग्रह ‘मदारी’ का कवर पृष्ठ व कवयित्री पूनम तूषामड़ की तस्वीर

पूनम की कश्मीर कविता में एक अलग भाव नजर आता है। हालांकि यह कविता विशुद्ध रूप से राजनीतिक कविता है जो केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में धारा 370 व 35ए को हटाए जाने के बाद के हालात को बयां करती है। आप इस कविता में कश्मीर घाटी को संवाद करते पाएंगे।

‘एक घाटी है……
सिसकती सी,सुबकती सी
सुलगती सी…!
शाम अक्सर यहां बस!
खौफ में ढल जाती है
किसी शायर ने कभी
जन्नत भी कहा था जिसको
अब हकीकत उसकी कुछ और
नजर आती है।’

यह इस काव्य संग्रह की पहली कविता है और पहली ही कविता में कवयित्री का विद्रोही तेवर सामने आता है। वह भी ऐसे हालात में जबकि पूरे देश में अघोषित आपातकाल लागू है। बोलने वालों को या तो देशदोही कहा जा रहा है या फिर अर्बन नक्सली करार दिया जा रहा है, पूनम तूषामड़ ने सच को सच कहने का साहस किया है।

उनका यही रूप आजादी कविता में भी सामने आता है। वे लिखती हैं–

‘आजादी इस मुल्क में
झूठों, चोर-लुटेरो की बांदी है
आजादी पर मिटने वाले
भूखे-नंगे और बदहाल
आजादी का जश्न मनाने वाले
भाषण देने वाले धूर्त और
मक्कार नेताओं की चांदी है।’

इन कविताओं से जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दी न करें। इस संग्रह में प्रकाशित कविताएं आपसे यह अनुरोध हर बार करती हैं। आजादी कविता के दूसरे अंश में पूनम दृढ संकल्प से युक्त महिला के रूप में बेखौफ अपनी बात कहती हैं-

‘उन मर्दों के मुंह से आजादी
की बात सुन कर हंसी आती है
जिनकी पत्नियां, किसी अजनबी
चेहरे को कहीं राह में तो क्या
ख्वाब में देखकर घबराती हैं।’

पूनम तूषामड़ जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न को भी सामने लाती हैं। इसमें उनकी वैचारिकी की झलक मिलती है, जिसके स्रोत  फुले, आंबेडकर और पेरियार के विचार हैं। मसलन, ‘बेड़ियां’ शीर्षक कविता में वह लिखती हैं –

‘बेड़ियां किसी को अच्छी नहीं लगतीं
फिर चाहे इंसान हो या जानवर।
जब-जब गुजरता है जुल्म हद से,
तब-तब टूटती हैं बेड़ियां।’

जैसा कि मैंने पहले कहा कि कवयित्री के अनेक रूप हैं, तो इनमें से एक रूप प्रेयसी का भी है। लेकिन यह प्रेयसी अलग है। वह शर्तें स्वयं तय करती है। ठीक वैसे ही जिसका आह्वान पेरियार ने आत्मसम्मान आंदोलन के दौरान किया था। ‘इश्क’ शीर्षक कविता में वह लिखती हैं–

‘मैं तुमसे जरूर इश्क करूंगी
अगर तुम करोगे इश्क अपने
स्वाभिमान से,आत्म सम्मान से।
मैं तुमसे इश्क करूंगी
अगर तुम्हें बर्दाश्त नहीं अन्याय।
हां मैं जरूर इश्क करूंगी तुम से
अगर खौलता है तुम्हारा लहू
अपने पर या दूसरों पर किये जुल्मों पर।’

बहरहाल, आज के जमाने में जबकि वक्त आपको रोज-ब-रोज की ठेलमठेल वाली जीवनशैली अपनाने को मजबूर कर देता है और आपके पास इतना भी वक्त नहीं कि लंबे गद्य पढ़ सकें, अच्छी कविताएं आपको विकल्प देती हैं और खुद को ओर बरबस खींच लेती हैं। पूनम तूषामड़ की कविताएं इसे सत्यापित करती हैं। यदि कविताओं के चयन और संपादन को थोड़ा और गुणवत्तापूर्ण तरीके से किया गया होता, तो यह काव्य संग्रह और अधिक बेहतरीन बन जाता। लेकिन पूनम तूषामड़ युवा कवयित्री हैं। इनके अंदर जोश, उमंग और साहस है।  ‘मदारी’ काव्य संग्रह महज एक और पड़ाव है। अभी पूनम की काव्य संवेदना और प्रतिभा के बहुत सारे सृजनात्मक रूप अभी सामने आने बाकी हैं। 

समीक्षित पुस्तक : मदारी (काव्य संग्रह)

कवयित्री : पूनम तूषामड़

प्रकाशक : कदम प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य : 100 रुपए

(संपादन : सिद्धार्थ)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (अंतिम कड़ी)
आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (पहली कड़ी)
नूपुर चरण ने औरत की ज़ात से औरत की ज़ात तक वही छिपी-दबी वर्जित बात ‘मासिक और धर्म’, ‘कम्फर्ट वुमन’, ‘आबरू-बाखता औरतें’, ‘हाँ’, ‘जरूरत’,...
‘गबन’ में प्रेमचंद का आदर्शवाद
प्रेमचंद ने ‘गबन’ में जिस वर्गीय-जातीय चरित्र को लेकर कथा बुना है उससे प्रतीत होता है कि कहानी वास्तविक है। उपन्यास के नायक-नायिका भी...