[ब्रिटिश काल में भारतीय समाज कैसा था और महिलाओं की स्थिति कैसी थी, इस संबंध में अमेरिकी लेखिका मिस कैथरीन मेयो ने विस्तार से अपनी किताब ‘मदर इंडिया’ में दर्ज किया। एक तरह से यह आंखों-देखा दस्तावेज है, जिसने प्रकाशन के बाद विश्व स्तर पर भारतीय समाज और भारतीय समाज में महिलाओं की दशा को सामने रख दिया। यह 1927 की घटना है। फारवर्ड प्रेस ने इस किताब का हिंदी अनुवाद 90 वर्षों के उपरांत प्रकाशित किया है। इसका अनुवाद कंवल भारती ने किया है। यह उद्यम उन्होंने क्यों किया, पढ़ें उनके ही शब्दों में जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब में अनुवादकीय के रूप में सकंलित है।]
“मदर इंडिया” ने किया द्विजवादी पितृसत्ता पर करारा प्रहार
- कंवल भारती
कैथरीन मेयो की बहुचर्चित पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का अनुवाद आपके हाथों में देकर आज मैं अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। 1927 में प्रकाशित इस अंग्रेजी-पुस्तक ने हिंदू भारत में खलबली मचा दी थी। हिंदुत्व, हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति पर गर्व करने वाले नेता ऐसे बिलबिलाए थे, जैसे हजार बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिए हों। महात्मा गांधी सहित लगभग सभी हिंदू नेताओं ने मिस मेयो की ‘मदर इंडिया’ का खंडन किया था और लाला लाजपत राय को भी उसके विरोध में किताब लिखनी पड़ी थी। असल में मिस मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ सामाजिक विषमता, अंधी परंपराओं, भयानक अशिक्षा और गरीबी में जकड़े भारत की वह नंगी तस्वीर दिखाती है, जिसे देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति विचलित हो सकता है।
बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की रचनाओं में ‘मदर इंडिया’ का अनेक स्थानों पर संदर्भ आया है। उन रचनाओं से ही मुझे उसके बारे में पता चला। संयोग से बाबा साहब की रचनावली बीती सदी के अंतिम दशक में अंग्रेजी में आई थी। उसी दशक में दिल्ली के ‘प्राइस लो पब्लिकेशंस’ ने ‘मदर इंडिया’ का 1997 में पुनर्मुद्रण किया। लेकिन, मुझे इसका पता एक साल बाद लगा। अत: 24 नवंबर 1998 को ‘मदर इंडिया’ की एक प्रति मेरे हाथ में आई। जैसे ही मैंने इसे पढ़ा और इसे हिंदी में लाने का मन बनाया। तो दिक्कत यह सामने आई कि उन दिनों मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार था और पत्रकारिता कुछ दूसरा काम करने के लिए दम मारने का भी समय नहीं देती। मैंने अपनी इच्छा अपने बेटों से व्यक्त की, पर वे भी अपनी व्यस्तताओं के कारण इसमें रुचि नहीं ले पा रहे थे। इसलिए उन्हें भी समय नहीं मिल सका। अंतत: मुझे ही इसके लिए अपनी सुविधा के अनुसार समय निकालना पड़ा। किन्तु, यह समय मुझे 20 साल बाद 2017 के आरंभ में मिला। जब मैंने आधी से ज्यादा किताब का अनुवाद कर लिया, तो उस पर एक टिप्पणी मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखी; जिसे पढ़कर विद्वान साथी ओमप्रकाश कश्यप ने मुझे अवगत कराया कि हिंदी में उसका अनुवाद 1928 में ही हो गया था और उसी वर्ष हिंदी में उसका जवाब भी छप गया था। मेरे अनुरोध पर उन्होंने मुझे दोनों पुस्तकों की पीडीएफ फाइलें मेल कर दीं। अनुवाद की पीडीएफ फाइल अधूरी निकली। उसमें केवल 18वें अध्याय ‘दि सैक्रेड काउ’ तक का ही अनुवाद मिला, जबकि उस समय मैं 22वें अध्याय ‘रिफॉर्म्स’ का अनुवाद कर रहा था। किताब में उपसंहार को मिलाकर 30 अध्याय हैं।

पुराने हिंदी अनुवाद में उमा नेहरू की 27 पृष्ठों की लंबी प्रस्तावना है, शायद वही अनुवादक भी हैं, और लगभग 150 पृष्ठों में ‘मदर इंडिया’ की लेखिका मिस मेयो से ‘दो बातें’ भी की गई हैं। इन 150 पृष्ठों में मिस मेयो की जितनी भी भर्त्सना की जा सकती थी, वह की गई है। इसका प्रकाशन ‘हिंदुस्तान प्रेस’ इलाहाबाद से हुआ था। ‘मदर इंडिया’ का जवाब गुरुकुल विश्वविद्यालय, कांगड़ी (अब गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार) की श्रीमती चंद्रावती लखनपाल ने लिखा था; जिसका प्रकाशन संवत 1985 में ‘गंगा पुस्तक माला’, लखनऊ से हुआ था। मुझे इन दोनों पुस्तकों से ‘मदर इंडिया’ के प्रतिरोध को समझने में काफी मदद मिली।
निस्संदेह ‘मदर इंडिया’ का तीखा जवाब दिया गया था। पर, उस तीखे जवाब में भी मिस मेयो के दिए गए विवरण को नकारने का साहस कोई नहीं कर सका है। उमा नेहरू ने तो अपने अनुवाद की प्रस्तावना में यहां तक लिखा–
‘इससे भी बड़ी गलती यह होगी कि हम इस पुस्तक का संपूर्ण रीति से प्रचार न करें। यदि इसमें हमारी वास्तविक दशा चित्रित है, तो इसे पढ़ना और दूसरों से पढ़वाना हमारा धार्मिक कर्तव्य होना चाहिए। यदि इस पुस्तक में अत्युक्तियां और झूठ है, तो उससे पश्चिमी संसार धोखा भले ही खाए, हम स्वयं उससे धोखा नहीं खा सकते। अपने दोषों से घृणा करना इन्हें दूर करने की पहली सीढ़ी है। और जो लोग अपने दोष देखने से घबराते हैं, वे दवा न खाने वाले बीमार के समान अपने रक्त से स्वयं अपने रोग का पालन करते हैं।’
श्रीमती चंद्रावती लखनपाल भी ‘मदर इंडिया का जवाब’ में अपने ‘दो शब्द’ में यह कहना नहीं भूलीं–
‘इसमें संदेह नहीं कि यूरोप और अमेरिका में शराब, व्यभिचार, चोरी, डाके तथा अत्याचार दिनोंदिन बढ़ रहे हैं। परंतु, मैं स्पष्ट शब्दों में उद्घोषित कर देना चाहती हूं कि यह सब कुछ कह देना ‘मदर इंडिया’ का असली जवाब नहीं है। मिस मेयो की बहुत-सी बातें झूठ हैं। झूठ ही नहीं, गंदी तथा नीचतापूर्ण हैं। परंतु, क्या इस पुस्तक के पन्नों को पलटे जाने पर कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि उसकी कई बातें सच्ची भी हैं और यह लिखते हुए छाती फटती है कि बिलकुल सच्ची हैं। मैं चाहती हूं कि भारतवर्ष के एक-एक व्यक्ति के हाथ में यह पुस्तक पहुंचे। और सबको मालूम हो जाए कि हमें बदनाम करने के लिए, जहां मिस मेयो ने झूठ बोलने में भी कसर नहीं छोड़ी है; वहीं कहीं-कहीं सच बोलने में कसर नहीं छोड़ी। पाठक वृंद, इन शब्दों की गूंज में पुस्तक के पन्ने पलटिए और अपने समाज की गंदगी को भस्म कर देने के लिए आंखों से चिनगारियां निकालते चलिए। यही ‘मदर इंडिया’ का असली जवाब है।’
‘आंखों से चिनगारियां निकालते चलिए’- इस वाक्य पर गौर करें। मिस मेयो ने ‘मदर इंडिया’ में गरीबों, अछूतों, शूद्रों और स्त्रियों की बदहाली तथा राजाओं, सामंतों और ब्राह्मणों के शोषण-तंत्र का जो वर्णन किया है; उसे पढ़कर शोषितों की आंखों से भी चिनगारियां निकलेंगी और शोषकों की आंखों से भी। पर, दोनों की चिनगारियों की अंतर्वस्तु में बुनियादी फर्क होगा।
27 जनवरी 1867 को अमेरिका के रिजवे, पेंसिल्वेनिया में जन्मीं मिस कैथरीन मेयो वर्ष 1924-25 में भारत आई थीं। वह मूलत: इतिहासकार थीं। एक इतिहासकार के रूप में उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की। प्रांत-प्रांत घूमकर वहां के गांवों को देखा। आम जनता के जीवन, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, शिक्षा, स्कूलों-कॉलेजों, अस्पतालों, स्त्रियों और शूद्रों के हालात का पूरे तथ्यों के साथ अध्ययन किया। उन्हें सबसे अधिक दुःख भारत की स्त्रियों और अछूत जातियों की स्थिति को देखकर हुआ था। अपने अध्ययन और अनुभवों के आधार पर उन्होंने ‘मदर इंडिया’ किताब लिखी, जो 1927 में प्रकाशित हुई। कहते हैं कि उन्होंने भारतीय महिलाओं की दुर्दशा से द्रवित होकर ही किताब का नाम ‘मदर इंडिया’ रखा था। इसके प्रकाशित होते ही जहां ब्रिटिश क्षेत्रों में इसका स्वागत हुआ, वहीं भारत में इसकी घोर निंदा हुई और इसे नस्लवाद तथा इंडोफोबिया की दृष्टि से देखा गया। मेयो ने अनेक महत्वपूर्ण किताबें लिखी थीं। परंतु, सर्वाधिक चर्चा में वे ‘मदर इंडिया’ से ही आई थीं, जिसने उन्हें भारत में कुख्यात और विदेशों में विख्यात कर दिया था। हिंदुओं द्वारा की जा रही आलोचना का सबसे बड़ा कारण यह था कि मिस मेयो ने हिंदू धर्म और संस्कृति पर हमला किया था। निस्संदेह, मेयो की किताब ने भारतीय लोगों के बारे में अमेरिकी लोगों के दिमाग पर नकारात्मक प्रभाव डाला था। पर, दुर्भाग्य से उस कालखंड में यही भारत का सच भी था। इसका जबरदस्त प्रभाव यह हुआ कि भारत में 50 से भी अधिक आलोचनात्मक पुस्तकों और पम्फलेटों का प्रकाशन हुआ और उसने इसी नाम से एक फिल्म के निर्माण को भी प्रेरित किया, जबकि भारत और न्यूयॉर्क में मिस मेयो के पुतलों के साथ उनकी किताब को भी जलाया गया। महात्मा गांधी ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा–
‘मेरी नजर में यह एक नाली इंस्पेक्टर की रिपोर्ट है, जिसका उद्देश्य यह दिखाना है कि भारत में कितनी नालियां हैं और उनमें कितनी गंदगी भरी हुई है। इस किताब में उस गंदगी की बदबू का ही ग्राफिक विवरण है। अगर मिस मेयो यह स्वीकार करतीं कि वे भारत में गंदगी देखने आई थीं, तो हमें उनसे ज्यादा शिकायत नहीं होती। किन्तु, हमें दुःख है कि उन्होंने अपने गलत निष्कर्षों से हर क्षेत्र में भारत को एक गंदा देश चित्रित किया है।’
मिस मेयो की ‘मदर इंडिया’ के खंडन में जितनी पुस्तकें लिखी गईं, उनमें कांग्रेस के लाला लाजपत राय की ‘अनहैप्पी इंडिया’, दलीप सिंह सौंद की ‘माय मदर इंडिया’ और धान गोपाल मुकर्जी की ‘अ सन ऑफ मदर इंडिया आन्सर्स’ पुस्तकें मुख्य हैं। 1957 में हिंदी फिल्म ‘मदर इंडिया’ भी मिस मेयो की ‘मदर इंडिया’ की प्रतिक्रिया में ही बनी थी।
इससे समझा जा सकता है कि मिस मेयो की ‘मदर इंडिया’ ने भारत के हिंदू जगत को किस कदर विचलित कर दिया था।
आज 90 साल के बाद ‘मदर इंडिया’ को हिंदी में लाने का उद्देश्य ‘कहो गर्व से हम हिंदू हैं’ का नारा लगाने वाले हिंदू राष्ट्रवादियों की आंखों का जाला हटाना है। ताकि वे देख सकें कि क्या सचमुच हिंदू संस्कृति में दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों के लिए गर्व करने योग्य कुछ है?
(संपादन : नवल)